मंत्रजप में जब अर्थ आवश्यक नहीं होता

March 2000

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मंत्रजप के समय अर्थ की भावना और चिंतन भी आवश्यक है । साधारण स्थिति में यह स्वाभाविक रूप से भी चलता रहता है । उदाहरण के लिए, ॐ का जप करने पर निर्गुण-निराकार परमात्मा का स्मरण होता है, राम नाम जपने पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की छवि मन में आनी चाहिए, महामृत्युँजय जप में शिव के ब्रह्मस्वरूप की झाँकी का ध्यान किया जाता है और दैवीमंत्रों में भी संबंधित इष्ट की भावना उत्पन्न होती है । लेकिन यह अर्थ की भावना है, मंत्र का अर्थ नहीं है । अर्थचिंतन उस मंत्र के शाब्दिक अनुवाद और उसमें निहित प्रेरणाओं की अनुभूति का नाम है । गायत्री मंत्र का जप करते समय जैसे तीनों लोकों के स्रष्टा ईश्वर के तेज का ध्यान करने और सद्बुद्धि की प्रार्थना का चिंतन चलता है । महामृत्युँजय मंत्र में मृत्यु का भय निवारण करने वाले अर्थ का चिंतन किया जाता है ।

प्रारंभिक स्थिति में मंत्रजप के साथ उसके अर्थ का चिंतन सहायक है । साधना की उच्च कक्षा में पहुँचने पर अर्थविचार की आवश्यकता प्रायः नहीं रह जाती । एक स्थिति आने पर उसका निषेध भी किया जाता है । इसका कारण चित्त की एकाग्रता का ध्यान रखना नहीं है, मंत्र-विज्ञान के सूक्ष्म नियम मुख्य कारण है । जिनके चलते मंत्रजप के साथ उसके अर्थ पर ध्यान नहीं देने का निर्देश दिया जाता है ।

यों अर्थचिंतन का अपना महत्व है । गायत्री मंत्र का अर्थ सर्वविदित है । परमपूज्य गुरुदेव श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने इसके अर्थचिंतन को ध्यान विधि और संकल्प से कितने ही साधकों ने अपने व्यक्तित्व का पुनर्गठन किया, उसे सुदृढ़ बनाया और विकसित किया । अर्थचिंतन एक सीमा तक साधक के स्तर को ऊपर उठाता है । उसके बाद मंत्र की ध्वनि ही काम करती है। यह सभी जानते हैं कि मंत्रों के गठन में ध्वनि और कंपन का विशेष महत्व है ।

मंत्र को जीवंत और जाग्रत करने में उन सिद्ध साधकों का बल भी अपना प्रभाव उत्पन्न करता है, जिन्होंने मंत्र−साधना से उच्च आत्मिक स्थिति प्राप्त की है । इस तथ्य को समझाने के लिये हथियारों का रूपक दिया जाता है । उपयोग से शस्त्र की मारक क्षमता या धार तेज होती है । जितने लोग उसे चलाते हैं, उतनों का बल और प्रयोग शस्त्र को समर्थ बनाता है । मंत्र को भी साधकों की प्राणचेतना माँजती रहती है उसे समर्थ बनाती है ।

किसी समय मंत्र की सामर्थ्य निरूपित करने के लिए उसके जापकों की सिद्धि-सामर्थ्य का उदाहरण दिया जाता था । अर्थ दृष्टि से गायत्री मंत्र में परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना की गई है । चारों वेदों के बीस हजार मंत्रों में सौ से भी ज्यादा मंत्र है, जिनमें सद्बुद्धि की कामना है । छंदशास्त्र की दृष्टि से मंत्र ज्यादा निर्दोष और परिपूर्ण है । लेकिन संध्या उपासना में गायत्री मंत्र का ही उपदेश दिया गया है । क्यों ? एक मुख्य कारण, अब तक करोड़ों साधकों द्वारा किया गया जप है, उन साधकों के जप से उद्भूत प्राणशक्ति का अंश आकाश में विद्यमान् रहता है । वह सतत् जप करने वाले साधकों को अनुप्राणित करता है ।

व्याप्त अग्नितत्व के रूपक से भी मंत्र की सामर्थ्य समझाई जाती है । अग्नि सर्वव्यापी है । उसे प्रकट करने के लिए दियासलाई की एक तीली पर्याप्त है । प्रकृति ने व्याप्त अग्नि सामान्य स्थिति में अप्रकट रहती है । रगड़ और दियासलाई का मेल होते ही वह प्रकट हो जाती है । अपने आप में इन साधनों और क्रियाओं का कोई अर्थ नहीं होता । मंत्रजप साधक के चित्त में घर्षण उत्पन्न करता है । उससे चेतना में मंत्र के देवता अथवा इष्ट की सामर्थ्य प्रकट होती है ।

योगशास्त्र में भी जप के साथ अर्थचिंतन एक सीमा तक ही आवश्यक बताया गया है । पतंजलि ने योगसूत्र में एक स्थान पर कहा है, “तज्जस्पतदर्शभावनः” (1/24) इस सूत्र की टीका करते हुए स्वामी हरिहरानंद आरण्यक ने लिखा है-साधकों को पहले सावधानी से वाच्यवाचक भाव को मंत्र में जाग्रत करना पड़ता है । शब्द का जप तथा उसके अर्थ की भावना करते-करते मन अभ्यस्त हो जाता है । अभ्यास से जब चित्त कुछ स्थिर, निश्चित तथा ईश्वरीय भाव में स्थित होने में समर्थ हो जाए तब हृदय में स्वच्छ-शुभ्र-असीम आकाश की धारणा करनी चाहिए । हृदय -आकाश में स्थित ईश्वर के साथ अपने चित्त को मिलाकर निश्चित, संकल्पशून्य और तृप्तभाव से रहने का अभ्यास करना होता है ।

जप में शब्दों के उच्चारण की अपेक्षा मौन जप को ज्यादा महत्व दिया गया है । उसके साथ भाष्यकार यह भी मानते हैं कि अर्थ की भावना साधक के चित्त को तुरीय अवस्था तक पहुँचने में बाधक बनने लगती है । स्वाध्याय से इष्टदेवता के साथ मिलन होता है । (1/44) सूत्र का अर्थ करते हुए टीकाकार लिखते हैं, एक अवस्था में जप के समय अर्थ की भावना ठीक नहीं रहती । मन विषयाँतर में दौड़ता रहता है । स्वाध्याय स्थिर होने तक ही अर्थभावना अविच्छिन्न रहनी चाहिए । उसके बाद जप आरंभ होते ही इष्ट की छवि में चित्त का लय हो जाना चाहिए । इस स्थिति में किया गया जप अनहद स्तर का होता है ।

जप का एक स्तर सिद्ध होने के बाद, सामान्य स्थिति में भी साधक अपने इष्ट से तादात्म्य अनुभव करने लगता है । शरीर निश्चल, आसन पर स्थित और इंद्रियाँ विषयों से विरत होने के बाद ध्यान सिद्ध होने लगता है । शरीर निश्चल होने का अर्थ यह नहीं है कि वह जड़ और निष्क्रिय हो जाता है अथवा इंद्रियाँ अपना कार्य कर देती है । शरीर की सामान्य गतिविधियाँ अपनी गति से चलती रहती है । परिवर्तन सिर्फ यह होता है कि राग-द्वेष या हर्ष-अमर्ष के रूप में होने वाले प्रभाव बंद हो जाता है ।

वैदिक मंत्रों और पौराणिक मंत्रों के अर्थ अनुभव किए जा सकते हैं, हालाँकि इनकी आवश्यकता नहीं है, लेकिन ताँत्रिक मंत्रों का स्वरूप ही इस तरह है कि उनका न अर्थ किया जा सकता है और न ही उनका मर्म समझा जा सकता है । आध्यात्मिक दर्शन को अब तक के सभी स्तरों से ऊपर ले जाने के लिए प्रख्यात मनीषी श्री अरविंद ने भी अर्थ के पचड़े में ज्यादा नहीं उलझने की सलाह दी है । कुछ वेदमंत्रों का अर्थभाष्य करने के बाद उन्होंने यह कहते हुए विराम दे दिया था कि इतना ही पर्याप्त है । वैदिक मंत्रों का अर्थ नहीं, उनका पाठ महत्वपूर्ण है । विधिपूर्वक पाठ करना ही व्यक्ति के चित्त में उस मंत्र के देवता को अवतरित कर देता है । भलीभाँति उच्चारण सीख लिया जाए, यह ज्यादा आवश्यक और उपयोगी है ।

मंत्रों ही नहीं, विभिन्न स्तुतियों और शस्त्रों के भी पाठ पर ही ज्यादा जोर दिया जाता है । बारंबार उनका उच्चारण चित्त को संस्कारित करता है । कुएं से पानी खींचते हुए कोमल रस्सी की रगड़ से पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं । इसके लिए किसी व्याख्या-विवेचना की आवश्यकता नहीं पड़ती । मंत्रजप या स्तोत्रपाठ को भी उस आवर्तन की तरह कहा गया है, जिसका कोई अर्थ या भाव नहीं है । ध्यान नहीं रखें जाने पर भी वह अपना प्रभाव देता है, बल्कि ज्यादा अच्छी तरह देता है, क्योंकि इस प्रकार प्रक्रिया ज्यादा कुशलता से चलती है ।

अर्थ पर ही ध्यान केंद्रित करने से कई बार-भ्रम-भटकाव की आशंका भी होती है । एक ही मंत्र के विद्वानों ने कई अर्थ किए है । दर्शन और चिंतन-मनन के स्तर पर उनका महत्व है । वे विद्वानों की बौद्धिक और आँतरिक स्थिति को व्यक्त करते हैं । उस स्थिति में भावभरी और एकाग्र पुकार ही अंतस् के द्वार खोलती है । उस द्वार से साधक का अपना इष्ट प्रकट होता है ।


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