तेज बयार का झोंका आकर एकबारगी कँपा गया। बरफ सी छुअन थी हवा में। हो भी क्यों न! आखिर दिन भी तो जोड़ो के थे। भगवान् सूर्य अपना किरणजाल समेटकर कब के जा चुके थे। अब तो साँझ अपनी धुंधली-सी चादर सब ओर फैलती जा रही थी। तभी एक नारी मूर्ति छाया-सी दिखाई पड़ी। वह बरामदे से उतर कर कुंए की ओर बढ़ रही थी। उसके बढ़ते पाँवों के साथ ही उसके मन में अनेकों सवाल उठ खड़े हुए। ये प्रश्न कुछ ऐसे अटल और अविचल थे कि इनके सामने वक्त भी थम-सा गया।
स्मृतियों के झरोखे से नजर आने लगी आज से चालीस वर्ष पूर्व की वह खुशनुमा रात। शयनकक्ष को खूब सजाया गया था। पुष्पशरुया बनाई गई थी। आखिर यह सुहागरात कोई रोज-रोज थोड़े ही आती है। उनके दोस्त समरेख ने क्या-क्या सपने नहीं देखे थे, इस दिन के लिए। इस पल भी उसके दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी, जरा घूँघट की बदउली हटे और चाँद दिखाई दे। शारदा भी एक-दो पल के लिए माँ से धकेली जाने पर वहाँ आई थी। घूँघट की ओट से समरेश का मुंह देखा था। भीतर से कुछ उमड़ा था, फिर संकोच ने उसे जकड़ लिया था। समरेश ने लाख चाहा कि वह खुले,पर वह बड़ी तेजी से दरवाजा खोलकर निकल गई थी।
उसकी सहेलियों को सुबह पता चला कि वह रातभर माँ के पास सोती रही। सुहागरात नहीं मनाई जा सकी। अगले दिन ही घर भी वापस लौटना था। गाँव का पिछड़ा इलाका। लाज-संकोच, पुराने रीतिरिवाज। परिणाम यही रहा कि समरेश विदा के समय भी शारदा को देख नहीं पाया था।
समय बीतता गया और आकाश बादलों से भर गया। इधर सावन की मूसलाधार वर्षा और उधर हैजे का भीषण प्रकोप। लोग धड़ाधड़ा मरने लगे। समरेश भी एक दिन इस महामारी की लपेट में आ गया। उसके पिता ने डॉक्टर वैद्य बुलाए, मनौतियाँ मानी, पर कोई उसे बचा नहीं पाया। यह आघात उनका हृदय सह नहीं पाया, दौरे-पर-दौरे पड़ने लगे। पागल जैसे नहीं बल्कि पिता पूरी तरह पागल ही हो गए। सारा जीवन बिखर गया।
शारदा पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। सद्यः विवाहिता, सहज सोलह वर्ष की सुँदरी घुटती। घुटनों तक लहलहाते काले बाल। सुँदर नाक-नक्शा और उस पर वैधल्य का वज्र प्रहार। साल भर बाद वह अपनी ससुराल लाई। जो बाल कल तक खूबसूरती के मानदंड थे, जिन आँखों के सामने झील की गहराई भी कम लगती थी, व अब ताने और व्यंग्य के आधार बन गए। राक्षसी, कुलक्षणी, डायन इन्हीं शब्दों से उसके जीवन का परिचय होने लगा।
ताने, व्यंग्य, उलाहने, मार के अलावा भला उसे और मिलना भी क्या था? जो उसकी ओर सहानुभूति की नजर फेंकना चाहता, वही बदनाम हो जाता। वह रात के एकांत में रोती-बिसुरती और यौवन को कोसती। पर वह क्या करे! यह सोच नहीं पा रही थी। हालाँकि उसने साज-शृंगार कब का त्याग दिया था। फिर भी आग को राख के भीतर चाहे जितना छिपाकर रखा जाए, फिर भी उसका तेज नहीं छिपता है। वह अपना ताप फैलाकर ही रहती है। उसकी जिंदगी भी अपने ही ताप में जलकर स्वाहा होने लगी।
उसकी अवस्था मैथिल कवि विद्यापति के काव्य में वर्णित उस कीड़े के समान हो गई, जो लकड़ी के बीच पड़ा है और दोनों ओर से लकड़ी धू-धू जल रही है। उसके हर पल संघर्ष के पर्याय बन गए। घर में ही विरानी बनी रही अशोकवाटिका में सीता के समान कैद रही। होती रही पग-पग पर उसकी परीक्षा और वह सीता के समान निर्विकार बनी रही।
नारी कुसुम सी कोमल होती है, तो वज्र के समान कठोर भी। पता नहीं परिस्थिति के ताप में उसकी कोमलता कहाँ खोती चली गई। उसकी जगह कठोरता आती गई। भयंकर तूफान जब आता है, तो बड़े-बड़े वृक्षों को धराशायी कर देता है। लेकिन लंबे समय तक वह भी नहीं रहता। परिस्थिति के वात्याचक्र में पिसती शारदा शाँति के आकाश के नीचे रहने लगी। धीरे-धीरे रामायण, सुखसागर, महाभारत, गीता का पारायण होने लगा। पिता प्रसिद्ध रामायणी थे, राधेश्याम कथावाचक की तरह कीर्तन करने वाले। बचपन में जब उसकी उम्र आठ साल की थी, तो पिता ने कहा था-”धार्मिक संस्कार की जड़े जितनी गहरी होंगी बेटी, तुम्हारा जीवन उतना ही सुखमय होगा।” घुट्टी के समान पिलाया गया यह संस्कार शारदा के लिए परम औषधि बन गया।
एक ओर धर्म के प्रति निष्ठा का संगीत गूँजने लगा, तो दूसरी ओर उसके श्वसुर की हालत में सुधार होने लगी। इन्हीं दिनों समरेश के दोस्त राजेंद्र बाबू महात्मा गाँधी के क्षरा चलाए जा रहे स्वाधीनता आँदोलन में कूद पड़े थे। उनके सान्निध्य ने इन श्वसुर-बहु पर भी अपना प्रभाव डाला था। शारदा के जीवन के अब दो ही पहलू थे- कठोर तप और देशसेवा। अधिकाँश दिन पर्व, एकादशी, उपवास, प्रभु का स्मरण।
तभी अचानक एक झटका-सा लगा स्मृतियात्रा को। उन्होंने देखा कि शारदा कुंए में कुछ कर ही है। थोड़ी देर बाद वह जाड़े में कांपती-ीगती निकली। ध्यान से देखने पर पता चला, वह अपने शरीर को सफेद खादी की चादर से ढके है। वह एकटक देखते रहे और पूछ ही बैठे-
“अच्छा शारदा भाभी! अभी नहाने का कौन-सा समय है, जब शीत लहरी चल रही है।” उसने उनकी ओर एक्सरे की सी पैनी दृष्टि से देखा, मानो वह उनके मन की थाह लेना चाहती हो। फिर किंचित उत्साह और पर्याप्त गंभीरता लिए धीरे-धीरे बोली- “राजेंद्र बाबू! इस शरीर से जितना तप कर लिया जाय, उतना ही अच्छा।”
“सो कैसे? इससे तो आपका दुःख बढ़ेगा, शरीर भी टूटेगा।”
“आप उलटा सोचते हैं। तप में प्रवृत्ति व्यक्ति बाहर से दुःखी और अभावग्रस्त लगता है, पर वस्तुतः वह आँतरिक तौर पर परम संतुष्ट होता है। जीवन के सारे दुःख तो तप की आग में जलकर भस्म हो जाते हैं।” उस समय शारदा उन्हें एक प्रतिमा लगने लगी, भारतीय नारी के आदर्श की प्रतिमा। बाबू राजेंद्र प्रसाद सोचने लगे- भारतीय नारी के प्राचीन आदर्शों की यह जीवंत प्रतिमा कितनी आकर्षक व मोहक है। अपने अनगढ़पन के विरुद्ध कितना आँदोलन, कितना संघर्ष झेला है शारदा भाभी ने, तभी तो वह प्रतिमा होगा। अपने रूप को कितनी बार गलाया होगा, मिटाया होगा।
सफेद खादी की चादर में लिपटी शारदा उन्हें प्रतिमा ही लग रही थी और वह किंकर्तव्यविमूढ़ से उसे देखे जा रहे थे। तभी उसने उनका ध्यान बँटाया।
“क्या सोचने लगे राजेंद्र बाबू?”
“मैं आपकी हिम्मत की सराहना करता हूँ, पर सोचता हूँ कि परमात्मा ने क्यों भेजा आपको इस धरती पर? क्या कष्ट भर झेलने को?”
“ऐसी बात कभी मुँह से भी नहीं निकालिए। उसकी सारी योजना विवेकसम्मत है। हम उस पर टीका-टिप्पणी करने के अधिकारी नहीं है।”
“तब आप ही बताइए? कैसे गुजरता है आपका एकाकी जीवन?”
“वही रास्ता जो बापू जी ने बताया और आपने मुझे सिखाया।” यह कहते हुए पहली बार उसके होठों पर एक मंद-सी मुस्कान झलकी।
वह आगे बोली-”मैंने अपने पास-पड़ोस की निरक्षर महिलाओं को साक्षर बनाया है। वे रामायण और महाभारत आराम से पढ़ लेती है। इतना ही नहीं, मैंने अनुभव किया कि नारी को सर्वप्रथम आर्थिक संरक्षण मिलना चाहिए, जिसके लिए पूरा प्रशिक्षण जरूरी है।”
राजेंद्रबाबू उसकी बात सुनकर विस्मय-विमुग्ध होते गए। शारदा ने अपनी बात आगे बढ़ाई-”बापू द्वारा बताए गए उपाय से एक चरखा केंद्र चला रही हूँ। इसी के साथ गृह उद्योग का भी संचालन हो रहा है। जिसमें कुमारियाँ और मुझ जैसी अनाथ बहने है। मैं। अब बहुत खुश हूँ मेरा अभाव भरता जा रहा है। सूनापन मिटता जा रहा है। मेरी उपयोगिता की सीमाएँ बढ़ती जा रही है।”
“आप तो दार्शनिक हो गई हैं, शारदा भाभी।”
“सच कहती हूँ। मैं समझने लगी हूँ कि ईश्वर ने मुझे मानवता की सेवा के लिए जन्म दिया है। इसीलिए ऐसा भाग्य दिया। मुझे एक की सेवा के स्थान पर जन-जन की सेवा के लिए रचा गया है।”
राजेंद्र बाबू को भारतीय नारी के आदर्श की यह प्रतिमा और भी आकर्षक लगने लगी। श्रद्धेय और पूज्य! उसे वह भारतवर्ष के प्रथम राष्ट्रपति होने के बाद भी नहीं भूले। इन बाद के दिनों में भी एक अवसर पर उन्होंने कहा कि यदि भारतीय नारी अपने सच्चे स्वरूप को पहचान ले, तो कोई भी जीवन की विषमता, उसके मार्ग का अवरोध नहीं बन सकती। बीसवीं सदी में नारी की यह संकल्पित भावना ही, इक्कीसवीं सदी में नारी अभ्युदय के नवयुग को मूर्त करेगी। सच भी तो है, अगले सालों में राजेंद्र बाबू का यह विश्वास फलित होने को है।