निष्कलंक के प्रकटीकरण की भविष्यवाणी साकार होने जा रही

March 2000

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श्री माव जी महाराज की भविष्यवाणी से संबंधित संर मरणात्मक कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ परिजन जनवरी माह की पत्रिका में पढ़ चुके है। श्रीमाव जी महाराज के शिष्य संत श्री देवापुरी जी महाराज ने अपनी गुरुसत्ता द्वारा वि॰ संवत् 1974 में की गई भविष्यवाणियों को वि॰ संवत् 2011 में अपने भक्तजनों को आगमवाणी (भविष्यवाणी) के रूप में स्थानीय भाषा में लिपिबद्ध किया है। इसे पूरे आसपूर (डूँगरपूर-राजस्थान) व आसपास के क्षेत्र के परिजन लोक शैली में गाते हैं व अपनी गुरुसत्ता के संदेश का निष्कलंक अवतार का प्रचार-प्रसार करते हैं।

विगत डूँगरपुर-बाँसवाडा के राजस्थान प्रवास पर अपनी इन्हीं आँखों से जब सब कुछ देखा-सुना-समझा तो विश्वास और पक्का हो गया कि युगपरिवर्तन की भविष्यवाणी जिस समय के लिए की गई थी, वह यही है। हम भले ही समझ न पाएँ- वह सूक्ष्म चेतनसत्ता उसे मूर्त रूप में लाने के लिए संकल्पित है। बेणेश्वर धाम जो माव जी महाराज की स्थापित मुख्य पीठ है, तीन ओर से नदियों से धिर, दुर्भिक्ष से ग्रस्त राजस्थान में आज भी एक हरा-भरा एवं पावन क्षेत्र है। इसी पर एक युवा संत श्री अच्युतानंद जी माव जी महाराज के उत्तराधिकारी के रूप में विराजते हैं। उनके द्वारा भी हमारी व्यक्तिगत मुलाकात में इन भविष्यवाणियों की सत्यता पर मुहर लगा दी गई।

स्थानीय बोली कुछ गुजराती-कुछ वागड़ क्षेत्र कुछ-कुछ मेवाड़ की मिश्रित भाषा है। इसकी भाषा में कुछ भजन भावार्थ व टिप्पणी सहित यहाँ प्रस्तुत है।

उत्तराखंड थी आलम आवसे, धेली वाव ऊपर कुँआरी कन्यानु मंदिर मंडासे। दुदिया काड़ में लिला-पिला तम्बु तणा से, दूध पाणी ना न वेड़ा थासे। गोल आसपूर एक थसे अने थासे हाला बोल॥

भावार्थ कुछ इस प्रकार है-”उत्तरप्रदेश से भगवान का आदेश आएगा और धोली बावड़ी पर कुँआरी कन्या का मंदिर बनेगा। दुदिया काड़ (मंदिर से सटे हुए खेतों वाले क्षेत्र का नाम) में नीले-पिले टेंट लगेंगे। सत्य-असत्य का न्याय होगा। गोल (एक मील दूर स्थित एक गाँव) एवं आसपुरी एकम होंगे। मानवमात्र-जाति-पाँति एक होंगे, ऊंच-नीच का भेद मिटेगा।”

टिप्पणी- अभी विगत 5 फरवरी इसी बोली वागडी परन बजे गायत्री मंदिर के पास महाकाल के मंदिर की स्थापना की गई। आसपुर के गायत्री शक्तिपीठ की प्राणप्रतिष्ठा का समारोह 27-4-1974 को आज से सोलह वर्ष पूर्व हो चुका है। जहाँ कुँआरी कन्या के मंदिर की बात कही गई है, उसका उल्लेख इसी गायत्री शक्तिपीठ के विषय में हुआ है। आसपास के पूरे क्षेत्र में इस शक्तिपीठ ने क्रमशः विस्तार लेकर बड़ा विराट् रूप ले लिया है। आश्वमेधिक प्रयाजों के अंतर्गत रंजवंदन समारोहों व अनुयाजों के अंतर्गत संस्कार महोत्सवों से वस्तुतः वातावरण ऐसा ही बना, जिसका चित्रण ऊपर किया गया। ऐसा ही उस क्षेत्र का वातावरण भी है, जो हमने स्वयं देखा। बावड़ी का जीर्णोद्धार कर उसमें गंगाजल डालकर उसकी अब एक पावन तीर्थ हिमालयवासी परमपूज्य गुरुदेव की सत्ता के मार्गदर्शन में ही यह सब हुआ है।

अगला भजन है-

धरती माते तो हेमर हाल सेस, सूना है नगर ने बाजार, लोक तेणी लसमी लूटाय के, जिनी दाड न फरियाँद।

अर्थात् “धरती पर प्राकृतिक विपदाएँ आएँगी, जिससे नगर व बाजार सूने पड़े रहेंगे। लोकों की लक्ष्मी लुट जाएगी, जिसकी फरियाद की कोई सुनवाई नहीं करेगा, ऐसा समय आएगा।”

उपर्युक्त गीत में वर्तमान परिस्थितियों का चित्रण है, जिसे कोई नकार नहीं सकता। आगे कि पंक्तियाँ है-

अरे भाई! झूठारे पुस्तक ने झुठारे पुस्तक ने झुठारे पानड़ा, झूठा हे काजी ने कुराण। जती के सती ने साबरमति जो तया होशे संरासंग्राम। काया में कारंगा ने मार जो, घर से निष्कलिंक मान॥

भावार्थ यह है कि “जब निष्कलंक अवतार होगा, तब साबरमती रूपी मानव मन में देवासुर संग्राम होगा, जिसके फलस्वरूप कलियुग का अंत होगा। कजी-मौला-पंडित लोग भ्रमित करने वाले साहित्य की रचना करेंगे। जिसका प्रतिकार करने हेतु जती एवं सती दोनों में संग्राम होगा। मानव देवत्व को धारण करेगा और मानवमय में बैठे क्रोध रूपी असुर को मारेगा। सतयुग की स्थापना होगी।”

टिप्पणी- आज की परिस्थितियों में यही हो रहा है कि धर्मतंत्र के संप्रदायवादी स्वरूप से मनुष्य दिग्भ्रमित है। सभी ओर अंतर्जगत में एक देवासुर संग्राम चल रहा है। सत्विंतन-प्रगतिशील विचारप्रवाह एवं दुष्चिंतन-निषेधात्मक विचारो में एक प्रकार से युद्ध हो रहा है। यही इस युग विचारक्रांति है, जो देवत्व को मानव मन में उत्कृष्ट अरइयर्रपरइरे लिर्ण्रीएररे केस्न में स्थापित कर रही है। गायत्री परिकर और उसकी युग निमार्ण योजना जिस तरह क्रियाशील है, एक परिष्कृत प्रगतिशील सर्वधर्म समभाव वाले धर्मतंत्र का स्वरूप क्रमशः स्पष्ट होता जा रहा है। गायत्री मंत्र जन जन तक पहुँचा है एवं सद्बुद्धि के विस्तार के साथ-साथ एक जाति विहीन समाज की ओर मानवजाति अग्रसर हो रही है। क्रोध-आवेश उत्तेजना-तनाव ने ही आज मनुष्य को नारकीय जीवन उत्तेजना-तनाव ने ही आज मनुष्य को नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर दिया है। इनसे मोरचा ले रहा है गायत्री मंत्र की सामूहिक साधना का अभियान ज्ञानयज्ञ की क्राँतिकारी प्रक्रिया एवं संस्कारों का घर-घर विस्तार। तभी तो सतयुगी समाज की स्थापना होगी।

अगला भजन है-

अरे भाई! ढोल ढमको वाग सेस, ब्रह्माण्ड डोल वाय रे चतुर भमरा संत चढे, गामे दिवा लाग से दीवाली नवी आव से, ढोले एम को वाग से, ब्रह्माँड डोल वाय रे। अरे भाई घर घर घेडिला घुम से, जीव जराया हाथ रे कायम लेखो माँग से निष्कलिंग लेखो माँरग से जुग चौथा मार रे।

भावार्थ-”‘चौथे युग में (सतयुग में) ऐसा शंखनाद होगा, जिसमें ब्रह्मांड की सारी देवशक्तियाँ हिल जाएंगी निष्कलंक अवतार से अनुप्राणित होकर शक्ति पाकर शिष्य लोग घोड़े के रूप में घर-घर, गाँव-गाँव जाएँगे तथा नई दीपावली की तरह नए युग की स्थापना करेंगे। इनका जीवन निर्वाह दूसरों के भरोसे रहेगा।”

टिप्पणी- निश्चित ही यह भविष्यवाणी सतयुग की वापसी के बारे में है आसुरी शक्तियाँ देवसत्ताओं का शंखनाद सुनकर हिल गई। अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रही है। गायत्री परिवार के कार्यकर्त्ता घर-घर गाँव-गाँव मंथन करने पहुँच रहे है। इस वर्ष सारे भारत का जो गहन मंथन गांव से जिले व संभाग स्तर पर हो रहा है, देवदक्षिणा में एक बुराई छोड़कर एक अच्छाई ग्रहण करने की बात जो कही जा रही है, उसी का संकेत ऊपर किया गया है। सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के कार्यक्रम जिस सघन स्तर पर चल रहे है, उसी की ओर संकेत कभी माव जी महाराज एवं बाद में उनके शिष्य देवापुरी जी कर गए है। दीपयज्ञों की शृंखला अनवरत चल रही है एवं सारे भरत व विश्व में यह 1978-77 के बाद से संतत संपन्न हो रही है। गायत्री परिवार ने ही यह शृंखला आरंभ कर ब्रह्म दीपयज्ञ, विराट् दीपयज्ञों से लेकर छोटे-छोटे कुछ दीपों द्वारा सुसंस्कारों को मनाने की परिपाटी आरंभ की। आज घर-घर, गाँव-गाँव दीपयज्ञ हो रहे है। हर वर्ग के जाति के नर-नारी इसमें भागीदारी कर रहे है। महापूर्णाहुति भी 151,501,1001 एवं 24,000 दीपों द्वारा सारे भारत में गाँव, ब्लॉक, जिला एवं संभाग स्तर पर क्रमशः संपन्न होने जा रही है, जिसमें जाना चाहिए कि निष्कलंक अवतार की अंशावतार सत्ता का संकेत कितना स्पष्ट था। जो नहीं समझ पाए, उनके लिए सिर धुनकर पछताना ही एकमेव नियति है।

अगला भजन है-

अरे भाई पदम पाटन प्रकट होय से, थानक पुरे वाप रे निष्कलंक चरणे तलक चढसे, आलम चरणे तलक चढसे, जुग चौथा मार रे, अरे भाई ग्यारसी अववारी होसे, त्रिगुणी पाखरे रे। तरकस तीर ताजणा वाये ढलकती ढाल रे॥

भावार्थ यह कि ”तीन पद वाली (त्रिपदा गायत्री की ओर संकेत) पर सवार होकर निष्कलंक अवतार प्रकट होगा। उसके शिष्यगण सद्साहित्य रूपी तीरों के समान ज्ञानरूपी विचार लेकर अपने कंधों पर झोला रूपी तरकश में भरकर ढपली रूपी ढाल के सहयोग से ज्ञानगंगा बहाएँगे और पाटन (आसपुर का पौराणिक नाम) में पद्म रूपी निष्कलंक की चरणपादुका की स्थापना होगी। लोग उनके चरणों पर तिलक लगाएँगे और पूजन करेंगे।”

टिप्पणी- बड़ा ही स्पष्ट वर्णन है। तीन पद वाली त्रिपदा गायत्री की ओर स्पष्ट संकेत है। परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री परिवार की धुरी ही गायत्री उपासना को बनाया है। ऋतंभरा-प्रज्ञा के अवतरण को पूज्यवर ने निष्कलंक अवतार का चेतनारूप में अंतरण बनाया है। उलटे को उलटकर सीधा करने वाली क्राँति विचारक्राँति सद्विचारों के क्राँतिधर्मी साहित्य के प्रचार-प्रसार से ही हो रही है। ढपली माध्यम बनी है। लोक गायन के माध्यम से धर्मधारणा के विस्तार में। श्रेष्ठ साहित्य लिए झोला पुस्तकालय लेकर जनक्रांति के अग्रदूत युगशिल्पी गुरुकार्य मानकर जन-जन तक जा रहे है। अभी 5 फरवरी को आसपूर में प्रखर-प्रज्ञा, सजल-श्रद्धा की शक्तिपीठ पर ऐतिहासिक बावड़ी के समीप स्थापना हो चुकी । समय बस वही आ गया है, जिसकी घोषणा एक संत-अवतारी सत्ता 275 वर्ष पहले कर गए थे। जो चेत गए सो ठीक, जो नहीं चेत- नहीं बदल जाए- अवतारी चेतना के स्वरूप को नहीं समझ पाए, उनके लिए पश्चाताप के अलावा कुछ हाथ नहीं लगने वाला। हम सभी इस समय की विशिष्टता को समझ ले, इसलिए ये प्रमाण दिए गए है।

भगवान यहाँ कह रहे है। कि स्थितप्रज्ञ एक समुद्र की तरह धीर-गंभीर व्यक्तित्व वाला होता है। जिस तरह से चारों ओर से आने वाले जल को अपने अंदर वह समा लेता है।, फिर भी सीमा का उल्लंघन नहीं करता, उसी तरह अनेकों कामनाओं के-काीवों के अंदर प्रविष्ट होने पर भी स्थितप्रज्ञ विचलित नहीं होता-शाँत बना रहता है। जो कामोपभोगों के पीछे दौड़ता है, उसे शाँति नहीं प्राप्त होती। वह सदैव संक्षुब्ध-विक्षुब्ध बना रहता है। यहाँ जिस ‘काम’ शब्द का प्रयोग भगवान् श्रीकृष्ण ने किया है, वह स्थितप्रज्ञ के लक्षणों के साथ यहाँ बहुवचन में प्रयुक्त हुआ है। “कामा यं प्रविशन्ति” का अर्थ है- उपभोग पदार्थ-बाह्य सुख के विषयों का उपभोग। ऐसा ही ‘काम’ का अर्थ ऋषि ने उपनिषद् में भी किया है, जब वे कहते है- “ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके” अर्थात् “हे नचिकेता जो-जो विषयभोग इस जगत में दुर्लभ हैं, वे सब मैं यम तुझे देता हूँ।” इस प्रकार काम शब्द के तीन अर्थ हुए-एक मूल विकार काम, दूसरा मनोगत कामना एवं तीसरा बाह्य विषयों का उपभोग। एक अर्थ परमपूज्य गुरुदेव दिया करते थे-’काम’ अर्थात् अंतः की उल्लास की वृत्ति, जिसका ऊर्ध्वगमन करने पर वह रचनात्मक ज्ञान की शक्ति बन जाती है। ‘आध्यात्मिक कामविज्ञान’ पुस्तक में इस विषय में बड़े विस्तार से व्याख्या हुई है।

बाह्य विषयों को ‘कामना’ के आधारभूत कहने का कारण यह है कि उनका आश्रय लेने से मन में कामना जाग्रत होती है। ये विषय ही कामनाओं के निमित्त बनने है। अनेक जन्मों के पूर्व कर्म-अनेक नए और पुराने अनुभव व तद्जन्य संस्कार, यही हमारे मन की कामनाओं के मूल कारण है। इन्हीं के कारण बाह्य पदार्थों को विषयभोग पैदा करने वाला ऐसा कहा जाता है।

मन पर विषयों का-बाह्य पदार्थों का असर सहज ही होता रहता है। वे इंद्रियों के द्वारा मन में प्रवेश करते हैं, तो भी स्थितिप्रज्ञ के चित्त पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यही स्थितिप्रज्ञ पुरुष का वैभव है। वह हृदय में स्थित कामनाओं को-भोग करने की इच्छा को मिटा देता है। उसे किसी भी विषय से डरने की-दूर रहने की जरूरत नहीं है। विषयों के बाजार में-मायावी संसार में भी उसे ला खड़ा कर दिया जाए, तो भी वह अपनी स्थिति से डिगता नहीं। यहाँ श्रीकृष्ण के रूप में योगेश्वर से वेदव्यास ने काव्य के माध्यम से ज्ञानी पुरुष के गौरव ली गाथा का गान कराया है।

स्वाद हो या अस्वाद, स्थितप्रज्ञ का मन आहारभोग से कभी विचलित नहीं होता। रसगुल्ला खाते समय मन करता है, हम और खाएं। हम तो स्थितप्रज्ञ है- हमें भोग नहीं व्यापते और रसगुल्ला खाने का मन करता है। स्वामी विवेकानंद यह उदाहरण देकर कहते थे कि ऐसा आदमी जीभ पर छाले हो जाएँ, तो चीखता रहता-चिल्लाता रहता है, तब स्थितप्रज्ञ नहीं बनता। मन का विचलन न हो, तो एक व्यक्ति सभी कुछ ग्रहण करने पर भी कभी विकारयुक्त नहीं होता। रामकृष्ण परमहंस के पास स्वामी विवेकानंद बहुत कुछ अभक्ष्य खाकर आए व कहने लगे कि आप तो प्याज-लहसुन को भी मना करते हैं, मैं तो इतना सब कुछ खाकर आया हूँ। तब ठाकुर कहते थे कि तू इन सबसे परे है। तू इनके समक्ष गलत उदाहरण मत रख। ये तेरी नकल कर लेंगे बिना समझे कि तू कितनी उच्च स्थिति को पहुँचा स्थितप्रज्ञ है, जहाँ तुझे जरा भी नहीं व्यापते।

एक ऐसा उदाहरण परमपूज्य गुरुदेव के जीवन का भी है। वे प्रवास पर थे। भाव से भरे परिजनों ने गलती से दूध में चीनी के स्थान पर नमक डाल दिया। अच्छी तरह मिलाया नहीं था, तो चम्मच लाकर मिलाकर पूज्यवर को दिया, तब तक वे एक घूँट पीकर चख चुके थे। वे उसी भक्त के सामने सारा दूध पी गये-चेहरे पर जरा भी भाव नहीं आने दिया कि दूध में नमक है। साथ चल रहे श्रद्धेय पंडित जी व एक और परिजन के चेहरे पर जब उनने भव देखे तो मूक स्थिति में ही डाँट दिया व पी जाने को इशारा किया। बाद में जब औरों से पता चला, तो वह बहन बहुत रोई कि हम यह क्या कर बैठे। परंतु स्थितप्रज्ञ की स्थिति में पहुँची हमारी उस गुरुसत्ता ने अपनी ओर से जरा-सा भी उस त्रुटि का आभास नहीं होने दिया। ऐसे भोग, ऐसे महामानव में जाकर लय हो जाते हैं।

श्रीरामकृष्ण परमहंस के पास गिरीयश बाबू व नरेंद्रनाथ की बहस चल रही थी की स्थितप्रज्ञ कैसा होता है-उसे कैसे व कहाँ देखे। गिरिश बाबू को ठाकुर ने चर्चा हेतु रोक लिया व नरेंद्रनाथ (स्वामी विवेकानंद) से कहा कि वे पंचवटी में जाकर ध्यान करे। चारों ओर से मच्छरों ने स्वामी जी को ढँक लिया, मानों काली चादर हो, फिर भी उनका मन एकाग्र ही रहा- जरा भी विचलित नहीं हुआ। गिरिश बाबू को रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र के पास बैठकर ध्यान करने को कहा, तो वे काफी देर तक मच्छरों के आक्रमण से विचलित रहे। बाद में अंदर से एक कंबल लेकर आए, ताकि ध्यान में एकाग्र हो सके। कहीं-न-कहीं से मच्छर कंबल में घूस गए, तो फिर वे अस्थिर हो गए। आठ घंटे सतत् विवेकानंद ध्यानस्थ रहे मच्छरों के सतत् आक्रमण के बाद। गिरिश बाबू मच्छर उड़ाते रहे-आश्चर्य देखते रहे कि इनका ध्यान कैसे लग रहा है। विवेकानंद उठे-अपना हाथ हिलाया, सभी मच्छर उड़ गए। उनने गिरिश बाबू को देखा व कहा कि जीसी (गिरीश बाबू का नाम) आप क्या कर रहे है? वे बोले-हम तो ध्यान करने की कोशिश कर रहे थे, पर कर नहीं पाए। आपने कैसे ध्यान कर लिया-इतने मच्छरों के होते हुए? स्वामी जी बोले कि ध्यान तो आत्मा से किया जाता है। मच्छर तो शरीर को काट रहे थे, आत्मा को थोड़े ही कष्ट दे रहे थे। आप जरा शरीर से गहरे डूबकर ध्यान करके तो देखिए। जब ऐसी स्थिति आ जाती है, आत्मा रूपी समुद्र निश्चल बना रहता है, तो कितने की कष्ट आएँ-कितने ही विषयों के आक्रमण हो-चित्त जरा भी डाँवाडोल नहीं होता। ऐसी स्थिति में किया गया जब ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करा देता है। इस उदाहरण से ‘समुद्र’ वाली संज्ञा को, जो स्थितप्रज्ञ के विषय में दी गई, भलीभाँति समझा जा सकता है।

स्थितप्रज्ञ की स्थिति का गीता के द्वितीय अध्याय के इस सत्तरहवें श्लोक के परिप्रेक्ष्य में विवेचन करने हुए विनोबा ने ‘स्थितप्रज्ञ दर्शन’ में लिखा है कि स्थितप्रज्ञ अविचल मनःस्थिति व अंतःकरण का होता है। एक ओर उसमें अत्यंत परिशुद्ध कर्म भी असंभव है, तो दूसरी ओर निषिद्ध कर्म भी संभव है। एक ओर शुभाशुभ कर्मों का योग है। सभी स्थितप्रज्ञ स्थिति के व्यक्तियों का आँतरिक लक्षण सदा एक ही रहता है। उनका अंतर्जगत सदैव शाँत बना रहता है। आत्मस्थिति कभी भंग नहीं होती। सदा अविचलित बनी रहती है। जाग्रत विवेकशक्ति के माध्यम से-सत् व असत् का निरंतर भान करते हुए, वह समुद्र की तरह विराट् धीर-गंभीर हृदय वाला होता है- इसमें स्थितप्रज्ञ की परिभाषा को समझना चाहिए। नहीं तो हम सभी यह मान बैठेंगे कि आचार-व्यवहार की कोई रोक-टोक उसे नहीं होती। वह चाहे जो करता है-कर सकता है, पर निर्लिप्त भाव से कर रहा है, अतः क्षम्य है। ऐसा होने पर तो कोई भी इस परिभाषा के बाने में घुसपैठ कर सकता है। वस्तुतः स्थितप्रज्ञ अपने आप को इस तरह विकसित कर लेता है कि उसकी दृष्टि में संसार में शुभ के सिवा कुछ भी नहीं है-यह व्याप्त हो जाता है। इसी कारण वह सदैव शाँति को प्राप्त है। शाँति पाने का यही एकमेव सूत्र भी तो है।

अगला श्लोक है-

विहाय कामान्यः सर्वान्युमाँच्श्ररति निःस्पृहः। निर्ममो निरंहकारः स शंतिमधिगच्छति॥

अर्थात् “जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर मगतारहित, अंहकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वहीं शाँति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शाँतिरूप हो जाता है।”

स्थितप्रज्ञ प्रकरण के इस उपसंहारपरक विवेचन में बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें कही जा रही है।, जिनमें से कुछ दुहराई जा रही है। लक्षणों की शुरुआत योगीराज श्री कृष्ण ने कामना त्याग से की थी। यहाँ उपसंहार में भी कामना त्याग की बात पुनः कही है। ममता, अहंकार व स्पृहा (वासना अथवा कामना) इन तीनों को छोड़ दे, वह शाँतिरूप हो जाता है। यही प्रकाराँतर से तृष्णा, अहंता व वासना के रूप में; वित्तेषणा, लोकेषणा पुत्रेषणा के रूप में समझाई जाती रही है। यहाँ ‘निःस्पृह’ शब्द को समझना जरूरी है। जब सभी कामनाएँ छोड़ दी, तो फिर स्पृहा (वासना-कामना) नहीं छोड़ी यह बात इस श्लोक में समझने में नहीं आती। “सब कामनाएँ छूट गई तो जीवन विषयक कामना छूटी कि नहीं”- यह आशय यहाँ विहाय कामान् के बाद निस्पृह से है। जीने की अभिलाषा मरने तक शूल की तरह चुभती रहती है। किंतु जो जीने की वासना छोड़ देता है, वह जीवित रहते हुए भी जीवनमुक्त परमहंस हो जाता है। जीवन शुद्ध-आनंदमय हो जाता है। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति जीवन से ऊबा हुआ नहीं होता। जीवन की अभिलाषा मिट जाने से मृत्यु का भय मिट जाता है। अर्जुन की मनःस्थिति को देखते हुए भगवान् द्वारा यह यहाँ स्पष्ट किया जाना बड़ा अनिवार्य भी था व युगशिक्षण के लिए भी एक सूत्र इसे बनाना था।

यहाँ ‘चरित’ शब्द आया है-इसका भावार्थ है कि ऐसा व्यक्ति खेलता है-कूदता है-विचरता है। उसके जीवन में दुःख नहीं रहता। बाहर की वासनाएँ-जीने की अभिलाषा मिटते ही भीतर का विशुद्ध आनंद शेष रह जाता है। इस प्रकार वह छोटे बच्चे के निर्मल चित्तमन वाला होकर व्यवहार करता हुआ विचरण करता है। ‘गीता रहस्य’ के अनुसार तिलक ने कहा है कि ‘चरित’ का अर्थ-संयमपूर्वक इंद्रियों का सदुपयोग करते हुए जीना तथा परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि इस शब्द का अर्थ-देवमानव की तरह सदैव हँसती-हँसती जिंदगी जीना-औरों को सूख मिले ऐसा इंद्रियों का उपभोग करना। प्रकाराँतर से सभी व्याख्याएं एक ही निष्कर्ष पर ले जाती है किस साधक की स्थिति में जीने पर अहंता ममता चल जाती है-शुभाशुभ कामना चली जाती है, जीवन स्पृहा चली जाती है, तो फिर मात्र शाँति-ही-शाँति रह जाती है।

संख्यायोग का अंतिम श्लोक स्थितप्रज्ञ की समापनापरक व्याख्या करता है-

एषा ब्राह्मी स्थितिः फार्थ नैनाँ प्राप्य विमुह्मति। स्थित्वास्यामतकालेअपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥

अर्थात् “हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है। इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है।”

सिद्धपुरुष जिसमें निवास करते हैं। चेतना की इस अवस्था को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है। यह उच्च चेतना के जागरण की-भगवान चेतना के अति चेतन में अवतरण की प्रक्रिया का नाम है। यह एक प्रकार से परिवर्तित जीवन दृष्टि का नाम है। यह नित्य व स्थायी व्यवस्था है। इसमें पहुँचकर व्यक्ति कभी लौटना नहीं-लौकिक धरातल पर। यह मन की एक प्रकार से एक क्राँतिकारी छलाँग है। ‘ब्राह्मी स्थिति’ शब्द जहाँ आया है, वहाँ योगेश्वर कृष्ण स्थितप्रज्ञ की मूल धुरी पर केंद्रित होकर रहे है। यह स्थिति ‘स्थितप्रज्ञ’ की हमेशा टिकने वाली सहजावस्था है। इसमें व्यक्ति पर ज्ञान का बोझ नहीं होता। अंतकाल तक टिकी रहने वाली इस स्थिति में सहज हलकापन होता है, जो निरंतर बना रहता है-आपातकाल में भी टिका रहता है। ब्रह्मनिर्वाण का अर्थ है-ब्रह्म में मिलना-घुल जाना, एकाकार हो जाना। व्यापकतम स्थिति है ‘ब्रह्मनिर्वाण’। यहाँ देह का परदा हट जाता है। सभी उपाधियों को छोड़, देहभाव छोड़ व्यक्ति अनंत में-ब्रह्म में लीन हो जाता है। उसका लोकसंग्रह होता है दिखाई देता है। कीर्ति अक्षुण्ण बन जाती है। हमारी वैदिक संस्कृति में ‘ब्रह्मनिर्वाण’ शब्द बड़ी व्यापकता का परिचायक है। हम नष्ट हो गए-हम शून्य हो एक के बजाय हम व्यापक हो गए-हम अनंत हो गए, यह अर्थ उपयुक्त शब्द का बनता है। परमपूज्य गुरुदेव ने स्वयं को सूक्ष्म में विलीन कर अनंत विराट् रूप में लिया, यह हम सभी ने देखा व नित्य देख रहे है। ‘स्थितप्रज्ञ’ का समग्र दर्शन यदि समझना हो तो परमपूज्य गुरुदेव के जीवनदर्शन में हम उसकी झाँकी देखते हैं। वह विस्तार से और कभी। अब हम इस द्वितीय अध्याय का-तीन महत्वपूर्ण प्रसंगों से भरे साँख्ययोग का समापन करते हैं। अगले अंक में ‘कर्मयोग’ नामक तृतीय अध्याय से आरंभ करेंगे युगगीता-अपने ग्यारहवें उपखंड के माध्यम से।


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