सहस्राब्दी के इतिहास में दीप्तिमान नारीशक्ति का सूर्य

March 2000

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नारी की कोमल संवेदना के बिना जीवन ही नहीं जग भी अधूरा है । उसका अस्तित्व केवल आधी दुनिया तक ही सिमटा नहीं है, बल्कि समूची दुनिया उसी के गर्भ से जन्मती और उसी के हाथों उसका लालन-पालन होता है । यों तो उसे अबला कहने और समझने का प्रचलन रहा है, इतना ही नहीं अपने असीम भावभरे अनुदानों के बदले उसे प्रायः शोषण-उत्पीड़न ही सहना पड़ा है । किंतु उसमें प्रतीक्षा, कौशल, शौर्य, बलिदान एवं तपत्याग की कमी नहीं है । जब भी उसे अवसर मिले है, उसने नए प्रतिमान कायम किए है । सहस्राब्दी के इतिहास में नारी चेतना का यह गौरव अपनी विशेष चमक लिए हुए है । इसका आकलन इस बात का भरोसा दिलाता है कि भविष्य में भी वह समूची मानवजाति को उत्कृष्ट दिशाबोध एवं समर्थ संबल-संरक्षण देने में समर्थ है ।

इतिहास के पृष्ठ बताते हैं कि सहस्राब्दी की प्रथम सदी में देश की उत्तरी राज्य काश्मीर का कुशल प्रशासन रानी दिद्दा के हाथों में था । दक्षिण भारत में अक्का देवी ने 1015 ई. में, रानी मैला देवी ने 1050 ई. में, रानी कुमकुम देवी ने 1079 ई. में, तथा रानी लक्ष्मीदेवी ने 1100 ई. में चालुक्य प्रशासन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई । राजपूताने राजकुमारियाँ एवं रानियाँ प्रशासन के साथ युद्ध−कौशल में भी प्रवीण थी । महारानी कुर्मा देवी ने 1195 ई. में कुतुबुद्दीन के आक्रमण के समय उससे डटकर लोहा लिया था । राणासाँगा की विधवा महारानी कर्मवती ने बहादुरशाह के विरुद्ध घमासान युद्ध किया था । राणासाँगा की ही अन्य विधवा रानी जौहरबाई दुर्ग की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुँई थी । अन्य राजपूत वीराँगनाओं में संयोगिता, पहृनी, कर्णावी आदि नारियों के शौर्य एवं बलिदान के किस्से आज भी लोगों की जुबान पर है ।

बारहवीं सदी के आसपास काव्य क्षेत्र में उत्तर भारत की कई महिलाओं ने अपना योगदान दिया । इनमें शिला महणोकर, बीज भाणका, प्रभुदेवी, सुभदा, मारुला आदि के नाम प्रमुख है । दक्षिण भारत में अक्का महादेवी महान् वैष्णव संत होने के साथ कई धर्मग्रथों की सृजेता भी थी । इसके अतिरिक्त रानी शाँतल एवं नयाकुशल आदि ने भी अपनी उत्कट संवेदना को शब्दरूप दिए ।

संक्राँति के प्रथम पर्व पर संत कबीर की अगुवाई में जो भक्ति की लहर उठी थी, इसमें नारीशक्ति ने भी अपनी महती भूमिका निभाई । मीराबाई इस युग की प्रमुख नारी संत थी । उनके अतिरिक्त लल्ला, गंगाबाई, कमाली, माताबाई, दयाबाई आदि नारियाँ इस युग में प्रवाहित हुई नारी चेतना की संवाहक बनी । कला-साहित्य के क्षेत्र में विहार के मिथला अंचल की तीन प्रख्यात महिलाएँ लछिमा देवी प्रथम, लछिमा देवी द्वितीय ओर धीरमती उल्लेखनीय है । कला के क्षेत्र में चंद्रकला देवी, मृगनयन एवं रूपमती भी इसी काल में चर्चित रहीं । दक्षिण भारत में भी कवयित्रियों की एक लंबी शृंखला रही । इनमें चेनम्मा, भंगम्मा आदि प्रमुख रहीं ।

संक्राँति के द्वितीय पर्व में समर्थ सद्गुरु रामदास की पावनभूमि में जीजाबाई ने अपना बलबूते प्रशिक्षित किया । जिन्होंने औरंगजेब के 19 वर्षीय दमनचक्र के बीच देश के साँस्कृतिक गौरव को न केवल प्रदीप्त रखा, बल्कि उसका विस्तार भी किया । अपनी वीरता और कौशल के लिए अहिल्याबाई एवं ताराबाई के नाम आदरणीय है भक्तिचेतना का अलख जगाने वाली नारियों में मुक्ताबाई, जनाबाई, सखुबाई, बेनबाई आदि प्रमुख है । गुजरात-सौराष्ट्र क्षेत्र में कृष्णबाई, गबरीबाई, पुरीबाई, राधाबाई, जानीबाई आदि ने अपनी सार्थक भूमिका निभाई । पूर्वी भारत में प्रशासन के क्षेत्र में विश्वास देवी एवं चाँविग ने असम में, चंद्रप्रभा एवं राजी भवानी ने बंगाल में अपना योगदान दिया । चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आँदोलन को तीव्र गति देने में शचीदेवी, विष्णुप्रिया, जाहन्ना, इच्छादेवी एवं हेमलता का योगदान भुला नहीं जा सकता ।

सल्तनत एवं मुगलकाल की मुस्लिम महिलाओं में भी कुछ नाम उल्लेखनीय है । राजकाज के क्षेत्र में रजिया सुलतान, गुलबदन बेगम, नूरजहाँ जहाँआरा बेगम जेबुन्निसा; धार्मिक क्षेत्र में बीबी फातिमा, बीबी जसिरना और वीराँगनाओं में चाँदबीबी प्रमुख रूप से अग्रणी रहीं ।

19 वीं सदी में 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नायिका महारानी लक्ष्मीबाई के शौर्य से भला कौन अपरिचित है । स्वयं अंगरेज सेनापति के उद्गार थे-”शी बाज द बेस्ट एण्ड ब्रेव एमंग देम” अर्थात् वह उन सब में सबसे योग्य और बहादुर थी । इसी सदी में ही गौरी पार्वतीबाई एवं मैसूर की रानी केंपनन्जमनी अबरु भी उल्लेखनीय है । उन्नीसवीं सदी में पुनर्जागरण के दौर में जो परिवर्तन की लहर आई, उससे नारीशिक्षा एवं उत्थान का मार्ग और भी प्रशस्त हुआ । इस दिशा में अग्रणी महिलाओं में पंडिता रमाबाई, तारुदत्त, सरलादेवी चौधरी, लेडी अबला बोस, कामिनीराय, स्वर्णकुमारी देवी एवं सरोजनी नायडू आदि ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई । तृतीय संक्राँति के नाक श्रीरामकृष्ण परमहंस की सहधर्मिणी माँ शारदा का उल्लेख किए बिना 19 वीं सदी में महिलाओं की भूमिका की कहानी अधूरी रह जाएगी ।

विश्वपटल पर, पश्चिमी दुनिया में सहस्राब्दी का पूर्वार्द्ध नारियों के लिए नरक का सृजन कर रहा था । जो सोलहवीं सदी में डायन हत्या के रूप में अपने चरम तक जा पहुँचा था । वैसे भी ईसाई धर्मशास्त्रों में नारी को पाप-पतन का कारण मानकर उसे दूसरे दरजे में समेट रखा था । इसके बावजूद इस दौरान अपनी प्रशासनिक कुशलता का लोहा मनवाने वाली महिलाओं में सेक्सन की राजकुमारी एल्गिफू (1010 ई. ), विजेंटिम साम्राज्य की रानी जी )1028 ई.), जेरूसलम की रानी मेलेसेंड (1105 ई.), फ्राँस की रानी ब्लैच (1226 ई.), एवं फ्राँस-इंग्लैंड युद्ध में फ्राँस की किशोरी जॉन ऑफ आर्क के नाम अविस्मरणीय है । इस संदर्भ में इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया के जीवन को भी भुलाया नहीं जा सकता ।

यूरोप में पुनर्जागरण के दौर से नारी के प्रति दृष्टिकोण में तो बदलाव आने लगा, परंतु आम नारी की स्थिति यथावत बनी रही । 18 वीं सदी के अंत में हुई फ्राँस की सामाजिक क्राँति ने स्वतंत्रता, समता एवं लोकतंत्र के आदर्शों को मुखर किया । इससे नारी जगत् भी अछूता न रहा । इसके साथ हुई राजनीतिक, औद्योगिक एवं वैज्ञानिक क्राँतियों ने मिलकर आधुनिक नारी आन्दोलन की नींव रखी । ‘वूमेन एंड पावर इन हिस्ट्री’ में ‘अमीरी दि रिएनफोर्ट’ लिखते है-यह नारी की अपनी नई पहचान की खोज थी । हालाँकि नारी की व्यथा-वेदना एवं अधिकार संबंधी विचारों के 1792 ई. में ब्रिटेन की मेरी वाल्स्टन क्राफ्ट की रचाना ‘ए विंडीकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वूमेन’ में अभिव्यक्ति मिल चुकी थी । परंतु नारी मुक्ति आँदोलन को यथार्थ गति 19 वीं सदी के दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल ने दी ।

उन्होंने तो नारी को बराबरी का दरजा दिए जाने के लिए जंग छेड़ दी । 1830 ई. में अमेरिका में दासप्रथा के विरुद्ध हुए विरोध ने भी महिला आँदोलन को प्रेरित किया । 1858 ई. में प्रथम बार महिला अधिकार सम्मेलन का अमेरिका में आयोजन किया गया । इन सब प्रयासों के परिणामस्वरूप न्यूजीलैंड में सर्वप्रथम 1893 ई. में शुरुआत से ही 1908 व 1911 में यह आँदोलन क्रमशः अमेरिका व इंग्लैंड की गलियों तक आ गा था । परिणामस्वरूप 1920 ई. में अमेरिका व 1928 ई. में इंग्लैण्ड में महिलाओं को मत का अधिकार मिला । भारत में भी सन् 1917 ई. में ‘दि इंडियन वूमेंस सोसाइटी’ बनी । इन्हीं दिनों यहाँ स्वाधीनता आँदोलन जोर पकड़ रहा था ।

स्वाधीनता आँदोलन में भारत में नारियों की भूमिका बढ़-चढ़कर रही । 1925 ई. में सरोजनी नायडू काँग्रेस की अध्यक्ष बनी । 1930 ई. में नमक आँदोलन व 1952 ई. के भारत छोड़ो आन्दोलन में हजारों-हजार महिलाएँ अपनी बलिदानी भावनाओं के साथ आगे आई । इस दौर में अरुणा आसफ अली एवं राजकुमारी अमृतकौर जैसी महिलाओं ने कुशल नेतृत्व किया । दुर्गा भाभी एवं नागारानी गिडालू ने भी इस समय अपने क्राँतिकारी साहस का परिचय दिया ।

बीसवीं सदी में नारी जागरण का जो अंकुर निकला, वह बढ़ता ही चला गया । इसकी पृष्ठीय शारद हैरियट स्टो न तैयार की थी । उन्होंने टाम काका की कुटिया लिखकर दासप्रथा के विरुद्ध जो संवेदना उभारी, वह नारी जागरण की प्राणचेतना भी बन गई । इस दौर में फ्लोरेंस नाइटेंगल ने रेडक्राँस को जन्म देकर सेवा का अद्वितीय काम किया । 1912 में मारिया माँटेसरी ने बालशिक्षा में अपना योगदान दिया । अंधी और बहरी होते हुए भी हेलन कीलर ने अपने जीवन से यह प्रमाणित किया कि नारी कभी हारती नहीं । मैडमक्यूरी ने सन् 1902 एवं 1911 ई. में दो बार नोबुल पुरस्कार जीता ।

इस सदी में नारियों ने अलग-अलग देशों में अपने अनूठे प्रतिमान कायम किए । रूस की वेलेंटिन टेरेरकोवा आकाश में जाने वाली प्रथम महिला बनी । स्वाधीनता के पश्चात् विजय लक्ष्मी पंडित रूस में भारत की राजदूत बनी । राजकुमारी अमृतकौर देश की प्रथम महिला थी, जो केंद्रीय मंत्री बनी । सुचेता कृपलानी ने पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में उत्तरप्रदेश का शासन संभाला । लक्ष्मी एन.मेनन 1957 ई. में भारत की पहली महिला विदेश मंत्री बनी । सरोजनी नायडू देश की पहली महिला राज्यपाल नियुक्त हुई । अन्नाराजम चार्ज 1950 ई. में पहली आई.ए.एस. अधिकारी बनी । ब्रिटेन की रोसलीन हिगिंस पहली महिला हुई, जो अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट की जज बनी । जेरी माक ने 1965 में पहली महिला पायलट के रूप में समूचे विश्व की परिक्रमा लगाई । मारिया एस्टेल परसन ने पहली महिला राष्ट्रपति के रूप में पदभार सँभाला । 1953 ई. विजयलक्ष्मी पंडित संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला प्रधान बनी । अन वेंक्राफ्ट वह पहली महिला है, जो उत्तरी ध्रुव पहुँची । लिव अर्नसेन इस परम्परा का निर्वाह करते हुए दक्षिण ध्रुव पहुँचने वाली पहली महिला बनी ।

अपने देश में जिन महिलाओं ने योग्यता के प्रतिमान स्थापित किए, उनमें सर्वप्रथम एवं सर्वप्रमुख श्रीमती इंदिरा गाँधी है, जो अपने जीवनकाल में एवं मृत्यु के बाद भी शौर्य एवं प्रशासकीय योग्यता के लिए याद की जाती है । कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने अपने आकलन एवं सर्वेक्षण के बाद उन्हें शताब्दी की महानतम महिला भी घोषित किया । उनका अनुकरण करते हुए अन्य महिलाएँ भी आगे बढ़ी । प्रेममाथुर पहली महिला पायलट बनी । दुर्वा बनजी ऐसी पहली महिला पायलट हुई, जिन्होंने इंडियन एयरलाँइस के विमान उड़ाए । बछेंद्रीपाल माउंट एवंरेस्ट विजेता बनी, तो सौदामनी देशमुख जेट कमाँडर । किरन बेदी पहली महिला आई.पी.एस. है । आरती साहा देश की पहली महिला के रूप में इंग्लिश चैनल विजेता बनी । कमलजीत संधु ने देश की पहली महिला के रूप में सन् 1950 में एशियाड स्वर्णपदक जीता । हरिता कौर दिओल ने 1994 ई. में महिला पायलट के रूप में अकेले उड़ान भरी और अभी कुछ ही समय पहले डॉ. कल्पना चावला अंतरिक्ष में जाने वाली अपने देश की प्रथम महिला बनी ।

नारी चेतना ने सहस्राब्दी में इतनी उपलब्धियाँ अर्जित की है कि अब निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि भावी सदी नारी के विकास की सदी नहीं, नारी के वर्चस्व की सदी होगी । उसकी संवेदना उसकी प्रत्येक उपलब्धि में घुलकर, जीवन को एक अनूठी भावमयता-तरलता प्रदान करेगी । उसके इसी सद्गुण एवं मौलिकता के बल पर ही तो विधाता ने उसे भावी युग की निर्मात्री घोषित किया । इक्कीसवीं सदी में नारीशक्ति के जागरण का-नारीसदी का उद्घोष स्वयं सृजेता की पुकार है, जो समूची विश्वचेतना में स्पंदित होने लगी है ।


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