सिद्धात्व का रंग-बिरंगा रहस्य

March 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ये कोटिशः धन्य है, जिन्होंने पहले अर्वती नरेश के रूप में दुर्जेय संग्रामों में हजारों-हजारों शूरमाओं-महारथियों को परास्त किया, वही अब राजर्षि के रूप में स्वयं को तपा रहे है । ये तपोमूर्ति इस बात के जीवंत प्रतीक है कि सच्ची वीरता किसी अन्य को नहीं, अपने आप को जीतने में है । कितनी प्रभापूर्ण और प्रभावपूर्ण है इनकी योगमुद्रा, इनकी तप−साधना ! क्या कोई है इनके तुल्य अन्य राजर्षि ? विचारों की यह भोर हुई थी कोशल नरेश के अंतर क्षितिज में ।

महाराज प्रसेनजित चले जा रहे थे अपनी अंगरक्षक सेना के साथ कोशल देश के ही दूसरे छोर पर बने संघाराम की ओर। मार्ग में उन्होंने दर्शन किए-वटवृक्ष की छाया में एक पाँव पर खड़े प्रगाढ़ ध्यानावस्थित राजर्षि अजितसेन के । ये राजर्षि ध्यानमग्न थे उस निर्जन वनप्राँतर की एकाँत गोद में । दिखाई दे रहा था । राजर्षि अजितसेन का एक पाँव पहले पाँव के घुटने से सटा हुआ । हाथ ऊर्ध्वाकाश की ओर उठे हुए । देह बाँस-सी सीधी खड़ी खड्गासन की मुद्रा में । आँखों अर्द्धोन्मीलित, श्वास गति मंद-मंद । महाराज प्रसेनजित कुछ विचारमग्न से हो गए । वे उनकी तपस्या, त्यागशीलता, सौम्यता एवं प्रशाँतता से प्रभावित हुए बिना न रहे सके । उनके मन के रेगिस्तान में राजर्षि के प्रति श्रद्धा का मरुद्यान मुस्करा उठा । अंकुवाने लगे मन-ही-मन उनकी अभ्यर्थना के बीज । अंगरक्षक सेना का दल आगे बढ़ता रहा, किंतु महाराज प्रसेनजित का मन जहाँ-का-तहाँ टिक रहा, राजर्षि के ध्यानमग्न सौम्य मुख पर ।

तभी हठात् रथ रुक गया । प्रसेनजित की विचार-शृंखला की कड़ियाँ टूटी और उन्होंने देखा कि रथ संघाराम के पास आ पहुँचा है । वे रथ से नीचे उतरे ओर नंगे पैर जा पहुँचे संघाराम में विराजित भगवान् तथागत का चरणवंदन करने । उनके दर्शन और सत्संग का लाभ पाने । प्रसेनजित ने प्रभु का दर्शन पाकर स्वयं को कृतार्थ समझा । उन्हें सविधि वंदन कर कोशल नरेश ने अपना आसन ग्रहण किया ।

संघाराम का हर कण ज्योतिर्मय था । प्रभु का ज्ञानदीप नष्ट कर रहा था-जन-जन के अज्ञानतमस को । लोग आते, प्रभु का सामीप्य पाने और अपने जीवन की रहस्यों से उलझी गुत्थियों को सुलझाकर चले जाते । लहरा उठता था उनके अंतरविश्व में आत्मसंतोष का महासागर ।

कोशल नरेश प्रसेनजित भगवान् तथागत के दायीं ओर आसीन थे । उनके पीछे था-सत्संग-प्रेमीजनों का विशाल समुदाय । प्रसेनजित ने बोधिज्ञान में निमग्न महात्मा बुद्ध से निवेदन किया-”भगवन् ! आज मैं कृतकृत्य हुआ । मार्ग में मैंने परम साधनारत राजर्षि अजितसेन का दर्शन किया । मैंने उनमें समग्रता की शक्ति, अनावेगशीलता की स्थिति ओर समता की दृष्टि का विकास पाया । वे काट रहे थे ध्यान रूपी कुठार से भववृक्ष को । सचमुच प्रभो ! भावविभोर कर दिया था उनकी वृषभ सी भद्रता, वायु-सी निस्संगता, सूर्य-सी तेजस्विता और मेरु-सी निश्चलता ने मुझे ।”

भगवान् तथागत ने कहा, “एक तपस्वी साधक की ध्यानरत छवि को देखकर तुम्हारे मन-अंतःकरण में सहृदयता के सुमन महके, यह प्रसन्नता की बात है ।”

प्रसेनजित बोले, “मैं इसे प्रभु की कृपा मानता हूँ ।”

तथागत ने कहा, “प्रसेनजित ! आत्मविकास किसी की कृपा पर नहीं, स्वयं अपने मन के परिणामों पर आधारित है । भले ही स्वयं साधक अपनी अंतरात्मा के प्रकाश के ऊपर आए आवरणों को क्षय करने में पदच्युत हो गया हो, किंतु तुमने साधक का गुणानुवाद करके स्वयं अपने भावों को स्वच्छ-निर्मल बना लिया ।”

प्रसेनजित को प्रभु की वाणी रहस्य में डूबी लगी । पूछा-”पर प्रभो ! जिस क्षण मैंने राजर्षि अजितसेन के दर्शन किए, उसी क्षण यदि उनका निधन हो जाता, तो उनकी क्या गति होती ? उन्हें कौन-सा लोक प्राप्त होता ?”

तथागत का उत्तर था, “सप्तम नरक ।”

“क्या कहा प्रभो ! सप्तम नरक ?”

“हाँ प्रसेनजित ! ठीक सुना तुमने सप्तम नरक ।”

तथागत के अंतरदर्पण में संसार की सारी गतिविधियाँ स्वयमेव प्रतिबिंबित हो रही थी । पर उनकी वाणी ने आज सबको आश्चर्यचकित कर डाला । प्रसेनजित के तो आश्चर्य की सीमा न रही । प्रभु की वाणी पर शंका कभी किसी ने भी नहीं की । पर आज स्वयं प्रसेनजित के मुख पर अविश्वास की भावरेखाएँ झलकने लगी । उनका मन, उनके नेत्र साक्षी थे राजर्षि अजितसेन की तप−साधना के । वे सोचने लगे-भला जिस साधक को मैंने अपनी आँखों से ध्यान−साधना में डूबा हुआ पाया । जिन्हें देखकर मेरे हृदय में अपार श्रद्धा उमड़ी । क्या उस समय उनकी स्थिति सातवें नरक में जाने जैसी थी ? नहीं ऐसा नहीं हो सकता, पर भगवान् का कथन भी तो कभी निष्फल-निरर्थक नहीं हो सकता । तो क्या जो मैंने देखा वह निरा भ्रम था ? मैं तो राजर्षि की गति बहुत ऊँची सोच रहा था, किन्तु प्रभु तो सर्वाधिक नीची बता रहे है ।

प्रसेनजित के मन में उथल-पुथल होने लगी । चिंतन के सागर में ऊहापोह का ज्वारभाटा मच रहा था । भगवान् तथागत का उत्तर उनके लिए सम्यक् समाधान न बन पाया । अपितु और अधिक समस्या की गुत्थियों को उलझाने वाला लगा । प्रसेनजित ने साहस कर पुनः प्रश्न किया, “प्रभो ! उस समय तो राजर्षि को सातवें नरक में स्थान मिलता, किंतु यदि इस समय मृत्यु हो जाए तो ?”

प्रतिष्ठित होने जा रहे है । आखिर साधुता की नींव पर ही सिद्धता का महल खड़ा होता है । बिना साधुता के सिद्धता पाने की कल्पना आकाश में फूल खिलाने जैसी है ।’ में रोशनी की चंदन-सी बौछार होने लगी । हिलोरे लेने लगा जनसमुदाय के हृदय में आनंद का महासागर ।

लगा एक मधुरिम संगीत, देव-दुँदुभियों के सुदूरव्यापी सुरीते स्वर । अंधे-अभिशप्त गलियारों

भगवान् तथागत ने तत्काल कहा, “अब वे सेवार्थ सिद्ध होने जा रहे है । अब तक जिन्हें तुम मात्र साधु समझ रहे थे, वे ही अब निर्वाप्न में के इस कथन के समापन के साथ ही स्तब्ध सभा ने देखा कि आकाश जगमगा उठा । हवा में दिव्य सुरभि महक उठी । कानों में सुनाई देने

एक साधक की गति के गिरते चढ़ते आयाम असंतुलितता के बोधक थे । कहाँ सप्तम नरक और कहाँ सर्वोच्च देवलोक-यह कैसी तथागत

यह सब देख-सुनकर प्रसेनजित हक्के-बक्के रह गए । समझ न पाए इस सारी लीला का, लीला के रहस्य को । पूछ बैठे, “भंते,

“हाँ, प्रसेनजित ! पहला और अब दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, छठा और अब सर्वोच्च देवलोक ।”

तो राजर्षि को सातवें नरक में प्रथम स्थान मिलता, किन्तु यदि इस समय मृत्यु हो जाए तो ?”

भगवान् बुद्ध ने कहा-”षष्ठ नरक।”

प्रसेनजित को बड़ी हैरानी हुई । उन्हें भगवान् की वाणी गिरगिट की तरह रंग बदलती हुई उन्होंने पुनः जिज्ञासा की, “इस समय ?”

भगवान बुद्ध का प्रत्युत्तर था, “पंचम नरक ।”

प्रसेनजित ने अगले क्षण फिर पूछा-”इस समय ?”

भगवान् तथागत ने कहा, “चतुर्थ नरक ।”

सभी स्तब्ध होकर सुन रहे थे । प्रसेनजित एक-एक क्षण के अंतराल से प्रश्न पूछते गए और तथागत उत्तर देते गए ।

“इस क्षण ?”

“तृतीय नरक ।”

“अब ? अब ?”

“द्वितीय, प्रथम नरक ।”

“ओर अब ?”

“प्रथम देवलोक ।”

विस्मय है, यह सब क्या है ! कैसे हुआ !! और क्यों हुआ !!!”

तथागत ने कहा, “प्रसेनजित ! महर्षि अजितसेन ने अपने जीवन की उन सभी चट्टानों

को हटा दिया, जिनसे अंतरात्मा का झरना अवरुद्ध था । फलतः आत्मस्रोत के अमृतस्रावी जल ने उनका अभिषेक किया है । भगवंता ने की है । यह दृश्यमान आभा राजर्षि अजितसेन की चेतना के ऊर्ध्वारोहण की परिचायिका है

प्रसेनजित ने कहा, “किंतु भगवन् ! जिस साधक के लिए आपने कुछ क्षण पहले नरकलोक की संभावनाएँ जताई, क्या वह इतने शीघ्र निर्वाण के पुष्प प्रस्फुटित कर सकता है ?”

तथागत बोले, “क्यों नहीं! राजर्षि अजितसेन भावों के उतार-चढ़ाव मूलक स्थिति के प्रतीक हैं और उनके भाव नरक-स्वर्गमूलक स्थिति के।”

“प्रभो! स्पष्टीकरण करें, इस उलटबांसी का अवगुँठन उघाड़े।” प्रसेनजित ने विस्मयमिश्रित लहजे में कहा।

तथागत बोले, “प्रसेनजित! जिस समय तुमने अजितसेन को देखा, उसके कुछ क्षण पहले उन्होंने तुम्हारी अंगरक्षक सेना कीं अग्र पंक्ति में चल रहे वीरसेन और भद्रसेन नामक दो सैनिकों का यह वार्त्तालाप सुना, कि महाराज अजितसेन ने अपने छोटे पुत्र को राज्यभार सौंपकर और संन्यास ग्रहण करके भारी भूल की है। उनके मंत्रियों ने उनके पुत्र और परिवार की हत्या करने के लिए षड्यंत्र रचा है। राजकुमार अपना राजमहल छोड़कर और कहीं भाग गए हैं।”

“तत्पश्चात् इस चर्चा ने ध्यानस्थ तपस्वी को कुद्ध कर दिया। जो भावधारा अब तक संयम सागर की और जा रही थी, वही अब हिंसा के दुर्गंधित नाले की और बहने लगी। आखिर मन तो है खाली हवा में पड़े दीपक की लौ जैसा। मन की सृजनात्मक ऊर्जा विकेंद्रित हो गई और अपनी वास्तविकता को भूलकर उतार-चढ़ाव के दायरे में डगमगाने लगी। लगाम छूट चुकी थी- उनके हाथ से, उनके मन के अश्व की। फलतः वह भटक गया विचारों के बीहड़ वन में”

“पर जिस समय मैंने राजर्षि को देखा, उस समय वे ध्यानमुद्रा में थे।”

“थे, पर वह ध्यान अशुभ था”।

“और संन्यासी का वेश?”

“वेश पहचान का प्रतीक है, संन्यास का नहीं। वेश धारण करने मात्र से मन मौन नहीं होता। मात्र वेश जीवन के प्रश्नचिह्नों का समाधान करके समाधि नहीं देता। मन का मौन-एकाग्रता ही ध्यान है और ध्यान की प्रगाढ़ता में ही समाधि मिलती है।”

“उस चर्चा को लेकर अजितसेन ने मन-ही-मन मंत्रियों एवं शत्रुओं से लड़ाई शुरू कर दी”

“हाँ, प्रसेनजित! साधु की परिधि में द्वेष, क्रोध एवं युद्ध आदि नहीं आते। जो यह सब करता है वह साधु नहीं, साधुत्व का व्यंग्य है, मात्र अभिनय है।”

“अपने मन में ही यह युद्ध लड़ते-लड़ते अजितसेन का धनुष टूट गया। वे अन्य शास्त्र न पा सके। उन्होंने स्वयं को विपक्षी शस्त्रास्त्रों से घिरा हुआ पाया। सहसा उन्हें अपने तीक्ष्ण शिरस्त्राण की स्मृति हो आई। वे उसे उतारकर शत्रुदल में त्राहि-त्राहि मचाने के लिए उद्यत हुए। मस्तक पर हाथ पड़ते ही उनकी चेतना में दस्तक हुई। उन्होंने स्वयं को पथच्युत पाया। जो भिक्षु पहले मात्र वेश के थे, अब होश के हो गए। पहले वे अपनी भिक्षु मर्यादा का अतिक्रमण कर बैठे थे, किन्तु अब तुरंत वापस लौट आए अपनी मर्यादा की सीमारेखा में। प्रतिक्रमित हुए स्वयं में और प्रतिक्रमण की उस प्रक्रिया में बाहर फेंक दिया अस्वच्छताओं का समुद्र। वे सोचने लगे, अरे! मैं कहाँ है अवंती? क्या ऐसे अस्वच्छ कलुषित भाव ही हैं। मेरी साधना के मानदंड? मेरा स्वरूप तो संन्यासी का है, राजा का नहीं।”

“अर्थात् अजितसेन ने अपने कुद्ध संकल्पों एवं विचारों की आलोचना की। उनका भावसिंधु राग-द्वेष के द्वंद्वमूलक ज्वारभाटे से विनिर्भुक्त हो गया। फूट पड़ा फिर से वीतरागता का झरना, अंतरमन के शिखर से, उपशम गिरि से। भावों के जिन आयामों से वे नीचे गिरे थे, उन्हीं से वे वापस ऊँचे चढ़े। और प्रसेनजित! ऊँचे भी इतने कि जिसकी समाप्ति परमज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर आत्मविजय के ध्वजारोहण के साथ हुई। परिपूर्ण आनंदमय विश्राँति देने वाली समाधि में हुई।”

भगवान् तथागत के इस समाधान से प्रसेनजित के ज्ञानचक्षु उन्मीलित हो गए थे और खुले ये विस्मय के कोहरीले द्वारा। सर्वबोधगम्य हो गया था भावों का श्लेष प्रधान काव्य। सभा ने जान लिया था साधक होने की बाहरी-भीतरी परत-दर-परत को। समाधि व सिद्धत्व के रंग-बिरंगे रहस्य को।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118