विधि-व्यवस्था का एक अंग है सृजेता का विनाशकारी रूप

March 2000

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सृष्टि की संरचना एवं उसकी गतिविधियाँ इतनी अनोखी और अचरज भरी है कि इसके सृजेता की महिला को सिर नवाकर स्वीकारना ही पड़ता है । समूचा ब्रह्मांड ही महाशून्य में स्थित है । इसी में अपना सौरमंडल है, जिसमें धरतीमाता भी एक छोटी-सी सदस्य है । इस अनंत ब्रह्मांड में असंख्य आकाशगंगाएँ, नक्षत्र, तारे, ग्रह-उपग्रह, निहारिकाएँ एवं आकाशीय पिंड सतत् घूम रहे है । सबके सब अपनी-अपनी स्थिर कक्षाओं में स्थापित है । यही है उस महान् जादूगर की जादूगरी । परन्तु इनके बीच जरा-सा भी व्यतिक्रम आ जाने से प्रलयंकारी दृश्य आ खड़े होते हैं । आकाश में ऐसे अनेकों आकाशीय पिंड है, जो अपनी मस्ती में आवारागर्दी करते रहते हैं । यही यदा-कदा विनाश व विध्वंस का कारण बनते हैं । इसके बावजूद धरती व जीवन का सुनियोजित चक्र चलना किसी महाचमत्कार से कम नहीं है ।

अपना सौरमंडल शून्य-सागर में तैर रहा है । सूर्य के पश्चात् सर्वाधिक निकट तारा चार प्रकाशवर्ष की दूरी पर है । चार प्रकाशवर्ष यानि 200 खरब मील की दूरी । अपना सूर्य भी एक खास तरह का तारा है, जो आकाशगंगा के विशिष्ट भाग में रहता है इस आकाशगंगा में लगभग 100 अरब तारे है, जिसमें कई तो सूर्य से भी भी सैकड़ों गुना बड़े है । इस क्षेत्र में गैसीय बादल, धूल, धूमकेतु, ग्रह, उपग्रह तथा ब्लैकहोल भी है आकाशगंगा इन अंतरिक्षीय पदार्थों से भरी रहती है । बीच-बीच में यह उभरी हुई-सी लगती है । इसके कई सर्पिल अंग है, जो गैस व तारों के बने रहते हैं । अपना सूर्य भी इसके एक ऐसे ही सर्पिल अंग पर अवस्थित है । आकाशगंगा के केंद्र से इसकी दूरी तीस हजार प्रकाशवर्ष है । अपने सौरमंडल से आकाशगंगा के दृश्य भाग की दूरी इस लाख प्रकाशवर्ष है ।

इस विराट् ब्रह्मांड में लाखों आकाशगंगाओं का अनुमान किया गया है । जिनकी आकृति सर्पाकार, दीर्घ वृत्ताकार तथा अन्य विभिन्न प्रकार की होने का आकलन है । इनका विस्तार ब्रह्मांड के विशाल क्षेत्र में है । पर दूरी इतनी है कि इनका प्रकाश अपनी धरती तक आने में करोड़ों प्रकाशवर्ष लग जाते हैं । हाँ इन्हें विशिष्ट वैज्ञानिक उपकरणों से जरूर देखा-जाना जा सकता है । अपनी सबसे निकटतम आकाशगंगा का नाम ‘एंड्रोमेटा’ है । इसकी दूरी 20 लाख प्रकाशवर्ष है । यह एंड्रोमेटा तारामंडल की दिशा में स्थित है । इसका धुँधला प्रकाश आँखों से भी देखा जा सकता है । एम-100 आकाशगंगा पृथ्वी से 400 लाख प्रकाशवर्ष की दूरी पर है । 29 नवंबर 1883 को इसके बारे में विस्तृत जानकारी मिली थी । आकाशगंगा जब अपनी बाल्यावस्था में होती है, तो यहाँ पर सुपरनोवा की घटनाएँ तेजी से होती है । यह प्रक्रिया दस लाख वर्ष में 20,000 बार होती है । अपनी आकाशगंगा में अब तक करोड़ों सुपरनोवा दृश्य उपस्थित हो चुके है । यह संख्या साढ़े चार अरब पूर्व जब सूर्य की उत्पत्ति हुई थी, उस काल को दर्शाती है । ऐसे विस्फोट अधिकतर आकाशगंगा के सर्पिल अंगों पर ज्यादा होते हैं ।

ये आकाशगंगाएँ भी स्थायी न होकर परिवर्तनशील है । इनके तारे नाभिक की परिधि में आते हैं और ये घूमने लगती है । सूर्य अपने सौरमंडल के ग्रहों के साथ आकाशगंगा का एक चक्कर लगाने में 20 करोड़ वर्ष का समय ले लेता है । यह परिभ्रमण बड़ा ही अद्भुत होता है । मार्ग में आने वाले तारे धूमकेतुओं के बादलों को साफ कर देते हैं और कुछ को सूर्य की ओर बिखेर देते हैं । धूमकेतु सौरमंडल के अंदर से निकलता है, इस कारण सूर्य उसके भीतर स्थित वाष्पशील पदार्थों को भाप बना देता है । इतना ही नहीं सौरपवन इसकी लंबी पूँछ के कुछ भाग को उड़ा देता है । तारों एवं धूमकेतु में आपसी टकराहट की संभावना बहुत कम रहती है, परंतु इसके निकटवर्ती निकलने वाले तारों से होती है बृहस्पति का विशाल पिंड उपग्रहों एवं आकाशीय पिंडों की परिधि में विघ्न पैदा करता है । यह किसी एक को सूर्य की ओर धकेल देता है, जिससे पृथ्वी पर भयंकर संकट होने की संभावनाएँ बन जाती है ।

आकाशगंगा के रास्ते में अन्य पिंड भी मिल जाते हैं । यहाँ गैस के विशाल बादल भी उड़ते रहते हैं । ये बादल सौरपवन की दिशा को बदलने में भी समर्थ होते हैं । इतना ही नहीं ये सूर्य से आने वाली ऊष्मा के प्रवाह को भी प्रभावित करते हैं । अंतरिक्ष के विस्तार में न्यूट्रोन तारे, आकाशीय पिंड, ब्लैकहोल आदि समाए रहते हैं । ये अचानक ही सौरमंडल में प्रवेश का संकट उपस्थित कर देते हैं । ‘डेथस्टार’ के नाम से जाने जाने वाले आकाशीय पिंड तो अपनी प्रबल गुरुत्वाकर्षण शक्ति के द्वारा धूमकेतुओं को भी खंडित कर देते हैं । यह भयावह दुर्घटना समूचे अंतरिक्ष के लिए घातक परिणाम उपस्थित कर देती है । भू-वैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्येक 30 करोड़ वर्ष के पश्चात् भयंकर अंतर्ग्रहीय परिवर्तन होता है, जो पर्यावरण विनाश का कारण बनता है इन विज्ञानविदों के अनुसार यह समय सन् 2000 के आसपास हो सकता है । आज से चार अरब वर्ष पूर्व जब जीवन की उत्पत्ति हुई थी, उस समय ऐसे ही परिवर्तन से धरती पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो गई थी ।

365 दिनों में सूर्य की एक परिक्रमा लगाने वाली पृथ्वी को सबसे अधिक संकट आवारागर्दी करने वाले आकाशीय पिंडों से होता है । ये उल्कापिंड कभी भी पृथ्वी से टकरा सकते हैं । सन् 1908 में साइबेरिया के ताँगुस्का क्षेत्र में पाँच मील का एक विशाल धूमकेतु गिरा था । इसकी विस्फोटक क्षमता 20 मेगाटन थी । इससे 700 वर्ग मील का समूचा जंगल विनष्ट हो गया था । नासा के एक नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार एक हजार से चार हजार पिंड पृथ्वी के कक्ष के आसपास मँडरा रहे है । इनका क्षेत्रफल आधे मील से भी कम है । इनमें से मात्र 150 पिंडों की ही पहचान हो सकी है । नासा के ही एक अन्य वैज्ञानिक दल के अनुसार पृथ्वी के दायरे में तकरीबन 3 लाख पिंडों में से तीन सौ ऐसे है, जो ताँगुस्का सदृश भीषण तबाही मचा सकते हैं इतना ही नहीं लगभग 10 प्रतिशत उल्का पिंड पृथ्वी के लिए घातक एवं विध्वंसक हो सकते है । एक किलोमीटर व्यास के एक पिड में लाखों मेगाटन की ऊर्जा हो सकती है इनकी टकराहट पृथ्वी के पर्यावरण तंत्र के विनष्ट करने में समर्थ है ।

इन उत्पाती पिंडों का पता लगाने के लिए एरिजोना विश्वविद्यालय के अंतरिक्ष विभाग के टाम गहेरल्स ने एक विशेष टेलिस्कोप का निर्माण किया है । इसके माध्यम से वह अनेकों आकाशीय पिंडों का अध्ययन कर चुके है गहेरल्स का सर्वेक्षण अत्यंत भयप्रद है । इनके अनुसार सन् 2024 तक इनकी गति तेजी से पृथ्वी की ओर होगी । गहेरल्स का मानना है कि 100 मीटर व्यास के लगभग 3 लाख तथा 20 मीटर व्यास 10 करोड़ पिंड है अगर इनकी टकराहट धरती के साथ होती है, तो ये काफी कुछ परिवर्तन कर सकते हैं जो कुछ भी हो, ये पिंड शाँत एवं समुन्नत धरती को हमेशा आँखें दिखाते रहते है एरिजोना के ही यूजीन शूमेकर ने अपनी पत्नी कैरोलीन के साथ मिलकर लगभग तीन सौ उल्काओं का पता लगा है इन्होंने इनका नाम अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर रखा है । सन् 1973 में शूमेकर ने भूगर्भशास्त्री इलिनर हेजलीन के साथ विश्व के सुनियोजित वेग वाले पहले पिंड का पता लगाया ।

16 से 22 जुलाई 1994 के दिन, अंतरिक्षीय घटनाओं के इतिहास में अपनी उपस्थिति दर्ज करा गए । इस दौरान अपने विराट् सौरमंडल के सबसे विराट् ग्रह बृहस्पति से 21 पर्वताकार पिंड लगातार छह दिनों तक टकराए । इनकी क्षमता लाखों मेगाटन के बराबर थी । ये पिंड 60 किमी. प्रति सेकेंड के वेग से टकराए एवं वहाँ 24 किमी. का गहरा गड्ढा बना गए । इससे 400 किमी. की गैसपट्टी समाप्त हो गई । इन 21 विस्फोटों की संयुक्त ऊर्जा 200 लाख मेगाटन के बराबर थी । शूमेकर नामक यह पिंड सात जुलाई 1992 को बृहस्पति से 25,000 किमी. की दूरी पर था । फिर बृहस्पति के वायुमंडल से टकराकर यह 21 खंडों में बँट गया । इनका टकराव इतना भयावह था कि यदि यह घटना बृहस्पति के बजाया पृथ्वी पर होती तो पृथ्वी का विनाश हो गया होता ।

सन् 1992 में मेक्सिको का यूकेटेन प्रायद्वीप का 176 किमी. क्षेत्र ऐसे ही अंतर्ग्रहीय परिवर्तन के कारण अचानक प्रभावित हो गया था । संभवतः 650 लाख वर्ष पूर्व ऐसे ही उल्कापात से हुए परिवर्तन के कारण डायनासोर्स का अस्तित्व मिट गया था । नासा के अनुसार 1993 में 3.4 किमी. की एक उल्का धरती से 350 लाख किमी. दूरी पर थी । अचानक इसकी दिशा पृथ्वी की ओर मुड़ गई इससे एक भीषण दुर्घटना होती, तभी इसकी दिशा में पुनः परिवर्तन हुआ और यह धरती के पास से गुजर गई । सन् 1997 में ऐसे ही एक अन्य पिंड का पता लगाया गया था, जो पृथ्वी की ओर 56,000 मील प्रति घंटे की रफ्तार से बढ़ रहा था । परन्तु अचानक ही इसकी दिशा में परिवर्तन हुआ और यह कहीं गायब हो गया । सन् 1932 में सूर्य और पृथ्वी के बीच के कक्ष में घूमने वाले एक पिंड की पहचान हुई थी । इसका वेग 54,000 मील प्रति घंटा था । इसमें 5 लाख मेगाटन शक्ति होने की संभावना है, जबकि हिरोशिमा में गिराए गए बम की क्षमता 0.95 मेगाटन थी । अगर यह धरती पर आ गिरे तो वायुमंडल में 5 मील गोलाई का छेद हो जाएगा । इसकी सीमा के आने वाले पत्थर, वृक्ष, वनस्पति, प्राणी सभी गैस बनकर उड़ जाएंगे ।

दिसंबर 1997 में अंतरिक्षवेत्ता इलिनर हेलीन ने स्वच्छ आकाश में एक पिंड को धरती की ओर अग्रसर होते देखा । इसका नाम ग्थ् 11 रखा गया । यह अकेले 108 पिंडों की विध्वंसक क्षमता रखता है । इलिनर का मानना है कि ग्थ्11 ‘मिस डिसटेंस् ऑफ जीरो’ के तहत पृथ्वी के टकराया तो पृथ्वी के पर्यावरण में तीव्र परिवर्तन हो सकते हैं, संभव है कि पृथ्वी के पर्यावरण में तीव्र परिवर्तन हो सकते हैं, संभव है कि पृथ्वी फिर से आदिम सभ्यता की ओर मुड़ जाए । एरिजोना यूनिवर्सिटी के जीन स्काटी के अनुसार ग्थ् 11 प्रति 21 माह में सूर्य के अति निकट से गुजरता है । यह सन् 2028 में पृथ्वी से 5 लाख मील दूर होगा ओर 26 अक्टूबर 2028 के दिन 1.30 बजे 23,000 मील तक आ जाएगा । इस दूरी में यह पृथ्वी से टकराकर विस्फोट कर सकता है । वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् 2126 में 10 किमी. चौड़ा धूमकेतु ‘स्वीफ्ट टटल’ धरती से टकरा सकता है । यदि ऐसा हुआ तो पृथ्वी को 10,000 से 1,00,000 वर्ग मील का सफाया हो जाएगा । लास आल्मोरा नेशनल लैबोरेटरी के जेकहिल्स के मतानुसार यदि ग्थ् 11 अटलाँटिक में जा गिरा तो हजारों मील के तटीय क्षेत्र 8 से 10 किलोमीटर का अतिक्रमण कर जाएँगे और वहाँ केवल कीचड़-ही-कीचड़ नजर आएगा ।

कैलीफोर्निया की लारेंस लिवरमोर लैबोरेटरी के वैज्ञानिकों ने ‘कॉस्मिक बंबाईमेंट’ नामक एक शोधपत्र में उल्लेख किया है कि इन उल्कापातों एवं आकाशीय पिंडों से धरती कभी भी विनष्ट हो सकती है । परन्तु इतने भयावह संकटों से घिरकर भी पृथ्वी में जीवन का अस्तित्व है । यह तथ्य आश्चर्यजनक किंतु सत्य है, जो सृष्टिकर्त्ता की नियामक शक्ति एवं विधि व्यवस्था का प्रमाण प्रकट करता है । ब्रह्मांडीय संरचनाएँ एक ओर तो चकित करती है, परंतु दूसरी और यहाँ होने वाली विलक्षण-विनाशकारी घटनाएँ डरा-सहमा भी जाती है वस्तुतः विनाश तो सृष्टिकर्त्ता का कालदंड है जो अपने इंगित से हमें सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित और विवश करता है । इस सन्मार्ग पर चलने का सुफल ही उज्ज्वल भविष्य है, जिसकी हम सभी धरतीवासी इक्कीसवीं सदी के आगमन के साथ ही प्रतीक्षा कर रहे है । यह प्रतीक्षा तभी सार्थक एवं सफल होगी, जब हम यह समझ सकें कि इस अनंत एवं विराट् ब्रह्मांड के छोटे-से ग्रह में निवास करने वाले इनसान को उस समर्थ सृजेता की महिमा पहचाननी ही होगी, ताकि उसका अहंभाव नष्ट हो और वह परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ बना रहे । यह कृतज्ञता हमारे समुज्ज्वल जीवन का आधार एवं पर्याय है ।


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