जीवनसाधना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी

March 2000

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों ! भाइयों!!

उपासना की महत्ता अपरंपार है। भगवान के नजदीक आप बैठें, उपासना करें, तो देखेंगे कि उनके सारे गुण आप में आते चले जाते है। बिजली को जो छूता है, तो उसके अंदर करेंट आ जाता है। भवान् को जो छुएगा, भगवान् से उसमें करेंट आ जाएगा। दो तालाबों को आपस में जोड़ दें, तो नीचे वाले तालाब का लेवल बढ़ता हुआ चला जाता है और दोनों का तल एक हो जाता है। भगवान और भक्त एक हो जाते हैं। सच तो यह है कि भक्त का उत्साह बढ़ाना चाहते हैं। और दूसरे कामों में उपयोग करना चाहते हैं। शबरी ने जूठे बेर भगवान् ने खाए थे न! गोपियों के यहाँ भगवान छाछ माँगने गए थे न बलि के दरवाजे पर बावन अंगुल के बन करके भगवान गए थे न! कर्ण के दरवाजे पर सोना माँगने के लिए साधु और भिखारी का रूप बनाकर गए थे न! ये बड़प्पन है! भक्त का बड़प्पन!! भृगु ने भगवान के सीने में लात मारी थी, कहाँ कैसे भगवान ने महर्षि भृगु की लात के निशान को अपनी मूर्तियों में महर्षि भृगु की लात का निशान बना रहता है। महर्षि भृगु बड़े थे, भगवान से। भक्त बड़ा होता है भगवान से; पर सही भक्त होना चाहिए। सही भक्त की हम आपको पहचान बात चुके हैं और ये बता चुके है कि भक्त को भगवान के अनुशासन पर निर्भर रहना चाहिए; भगवान को अपनी मरजी पर चलाने की बात नहीं सोचनी चाहिए। अपनी मनोकामना की बाबत ध्यान नहीं रखना चाहिए कि हमारी मनोकामना खत्म कर दी गई। भक्त अपनी मनोकामना खत्म कर देते हैं। और भगवान् की मनोकामना को अपने ऊपर बनाए रहते हैं।

नारद एक बार मनोकामना माँगने के लिए भगवान के पास गये और कहने लगे- एक युवती का स्वयंवर होने वाला है। मुझे आप राजकुमार बना दीजिए, सुँदर बना दीजिए, ताकि मेरी अच्छी लड़की से शादी भी हो जाए और मैं संपन्न भी हो जाऊँ। दहेज जो मिलेगा, उससे मालदार भी हो जाऊंगा। मालदार बनने की और संपन्न बनने की दो ही तो मनोकामनाएं है और क्या मनोकामना है? एक लोभ की मनोकामनाएं है, एक मोह की मनोकामना है। दोनों के अलावा और कोई तीसरी मनोकामना दुनिया में है ही नहीं। इन दोनों मनोकामनाओं को लेकर जब नारद भगवान् के यहाँ गए, तो भगवान के अचंभे का ठिकाना नहीं रहा। भक्त कैसा? जिसकी मनोकामना हो। मनोकामना नहीं होगी। दोनों का निर्वाह एक साथ नहीं हो सकता। जहाँ अँधेरा नहीं होगा। दोनों का एक साथ जोड़ कैसे होगा? इसलिए भगवान सिर पर हाथ रख करके जा बैठे। अरे! तुम क्या कहते हो नारद! लेकिन नारद ने अपना आग्रह जारी रखा-नहीं, मेरी मनोकामना पूरी कीजिए, मुझे मालदार बनाइए, मेरी विषयवासना पूरी कीजिए। भगवान चुप हो गए। नारद ने सोचा-भगवान ने चुप्पी साध ली है, शारद मेरी बात को मान लिया होगा। भगवान को माननी चाहिए भक्त की बात, ऐसा ख्याल था। बस वो चले गए स्वयंवर में। स्वयंवर में जाकर बैठे। राजकुमारी ने देखा-कौन बैठा है? नारद जी का और भी बुरा रूप बना दिया-बंदर जैसा। राजकुमारी देखकर मजाक करने लगी, हँसने लगी। यह बंदर जैसा कौन आ करके बैठा है? बस, उसको माला तो नहीं पहनाई और दूसरे राजकुमार को माला पहना दी। नारद जी दुःखी हुए फिर विष्णु भगवान के पास गए, गालियाँ बकने लगे। विष्णु ने कहा-अरे नारद! एक बात तो सुन। हमने किसी भक्त की मनोकामना पूरी की है क्या आज तक! इतिहास तो ला भक्तों का उठा करके। जब से सृष्टि बनी है और जब से भक्ति का विधान बना है, तब से भगवान् ने एक भी भक्त की मनोकामना पूरी नहीं की है। हर भक्त को मनोकामना का त्याग करना पड़ा है और भगवान् की मनोकामना को अपनी मनोकामना बनाना पड़ा है। बस, कल हम यह बता रहे थे कि आप अगर उपासना कर सकते हो, तो भगवान भी आपके बराबर हो सकते हैं। उसने बड़े भी हो सकते हैं। भगवान के गुण और आपके गुण एक बन सकते हैं आप महापुरुष हो सकते हैं, महामानव हो सकते हैं, ऋषि हो सकते हैं, देवात्मा हो सकते हैं और अवतार हो सकते हैं, अगर आप उपासना का ठीक तरीके से अवलंबन ले तो। कल का यह विषय था।

आज दूसरी बात बताते हैं आपको। अपनी पात्रता का विकास करना पड़ेगा, पात्र इसके लिए बनना पड़ेगा। पात्र अगर न होंगे तब? शादी कोई लड़की करना चाहे किसी अच्छे लड़के से और वह बुड्ढी हो तब? गूँगी बहरी, अंधी हो तब? तो कौन शादी करेगा? इसीलिए पात्रता बहुत जरूरी है। कल हमने कहा थान- उस दिन आपसे कहा था, गड्ढा होना जरूरी है, बादलों की कृपा प्राप्त करने के लिए। बादल तो बरसते ही रहते हैं। उनकी कृपा तो सबके ऊपर है। गड्ढा जहाँ होगा, वही तो पानी जमा होगा न। गड्ढा न होगा तब? सूरज कृपा तो हरेक के ऊपर है; लेकिन जिसकी आंखें खराब हो गई हो, उसके लिए क्या कर सकता है सूरज! दुनिया में एक से-एक सुहावने दृश्य दिखाई पड़ते है; पर एक-से एक सुहावने दृश्य को देख कौन सकेगा? जिसकी आंखों का तिल साबुत होगा, वही तो देखेगा? जिसकी आंखों का तिल साबुत नहीं है तो कैसे देखेगा जरा आप ही बताइए। जिसके कानों की झिल्ली खराब हो गई है, निया में एक-से-एक बढ़िया संगीत और आवाज निकलती है, पर कानों की झिल्ली खराब हो जाए, तब दुनिया के संगीत सुनने के लिए आदमी की कोई सहायता-सेवा नहीं कर सकता। आदमी का दिमाग खराब हो जाए तब? एक से-ऐ बढ़िया परामर्श देने वाले, एक-से-एक सहायता देने वाले क्या कर सकते है? कोई सहायता नहीं कर सकता। किसकी? जिसका दिमाग हो गया है। क्या करेंगे? अपना दिमाग तो सही हो, अपनी झिल्ली तो सही हो, अपनी आँखें का तिल तो सही हो। ये सही होंगे तो फिर सूरज भी सहायता करेगा, वायु भी सहायता करेगी। पाँच तत्व दुनिया में है जिसमें से हवा भी है, रोशनी भी है, सूरज भी है-ये सब आदमी की सहायता करते हैं। इन्हीं की सहायता से तो आदमी जिंदा है, लेकिन आदमी जिंदा तो होना चाहिए। मर गया होगा तब, साँस क्या करेगी? बहुत अच्छी प्रातः काल की हवा है; हवा फेफड़ों को मिलनी चाहिए, पर लेगा तो तभी, जब वह जिंदा हो। जिंदा नहीं हो, तो क्या करेगी हवा? एक से एक बढ़िया आहार है और भोजन है, लेकिन आहार और भोजन के होते हुए अगर किसी आदमी का पेट खराब हो जाए तब? आप क्या खिला करके करेंगे? और उलटा पेट में दर्द हो जाएगा। आप पौष्टिक पदार्थ दीजिए, मलाई मिठाई दीजिए। अगर पेट खराब है, पचता नहीं है तो मलाई मिठाई क्या करेगी? और जहर पैदा कर देगी। मेरा मतलब पात्रता से है।

आप ध्यान दीजिए और गौर कीजिए। पात्रता का विकास किए बिना न संसार में रास्ता है और न पात्रता का विकास किए बिना आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई रास्ता है। आपको अफसर बनना है? पब्लिक सर्विस कमीशन के सामने जाइए और अपनी पात्रता साबित कीजिए। अच्छा डिवीजन लाइए और अच्छे नंबर लीजिए। आपको अच्छा स्थान मिल सकता है। नहीं साहब! हम तो परीक्षा से दूर रहेंगे, हम तो भगवान जी की आरती गाएँगे, हम तो पब्लिक सर्विस कमीशन की आरती गाएँगे हमको अफसर बना दीजिए। नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। पात्रता विकसित करना बहुत जरूरी है। पात्रता का इससे क्या मतलब है? पात्रता का अर्थ होता-जीवन को परिष्कृत करना। जीवन को परिष्कृत करने के लिए साधना करती पड़ती है। भगवान को प्राप्त करने के लिए उपासना और अपने आपको पात्र बनाने के लिए साधना। साधना किसकी? अपनी। अपनी से क्या मतलब? अपनी से मतलब यह है कि जो हमारे भीतर जन्म-जन्माँतरों के कुसंस्कार जमे पड़े हैं, उनका परिशोधन करना पड़ेगा, बचकानापन दूर करना पड़ेगा। बच्चों को तो कोई कह नहीं सकता। बच्चा कहीं भी पेशाब कर देता है, कहीं भी खड़ा हो जाता है, कुछ भी करने लगता है, कोई भी चीज फैला देता है, लेकिन बड़ा आदमी तो न केवल स्वयं सँभल के रहता है, वरन् दूसरों की चीजों को भी सँभालकर रखता है। ये बड़प्पन की निशानियाँ है पात्रता से मेरा मतलब इसी से है। चिंतन की दृष्टि से सज्जन और सभ्य-इन दो विशेषताओं को अपने भीतर पैदा करे आदमी, तो ये माना जाएगा कि उसने पात्रता का विकास कर लिया। पात्रता का विकास अगर कर लिया है, तो संसार में भी इज्जत और भगवान के यहाँ भी इज्जत। पात्रता का अगर आपने विकास नहीं किया, तो संसार में भी उपहास और तिरस्कार और भगवान् के यहाँ भी नाराजगी। आप कहीं भी, कुछ भी नहीं पा सकते। पात्रता की ओर ध्यान एकाग्र कीजिए। पात्रता आपके हाथ की बात है। उपासना भगवान का अनुग्रह, भगवान के हाथ की बात है; पर साधना तो आपके हाथ की बात है। आपने आपको सुसंस्कारी बनाने के लिए जो भी मुमकिन हो, आप पूरी शक्ति से और पूरी ईमानदारी से मेहनत कीजिए। आपको अनगढ़ और सुगढ़ बनाना है। हमारा जीवन अनगढ़ है; चौरासी लाख योनियाँ घूमने के बाद में न जाने कितने कुसंस्कार हमारे पास जमा है। और वे कुसंस्कार अगर इसी तरीके से जमा रहे, तो दीवार के तरीके से खड़े रहेंगे और फिर हमको आगे नहीं बढ़ने देंगे और ये हथकड़ियों और बेड़ियों के तरीके से रास्ता रोक लेंगे, न हमको ऊँचा उठने देंगे, न आगे बढ़ने देंगे। इसलिए कुसंस्कारों के विरुद्ध जद्दोजहद करना-यह हमारा काम है। साधना इसी का नाम है। साधना करने से आपने देखा है न, कितनी घटिया-घटिया चीजें, मामूली चीजें, क्या से क्या बन जाती है। आदमी पेड़ों को काटता है, छाँटता है, कलम लगाता है। जंगली पेड़ और माली के बगीचे के लगाए हुए पेड़, उनको आपने देखा नहीं है क्या? कैसे बढ़िया-बढ़िया गुलाब के फूल आते हैं। रंग-बिरंगे फूल आते हैं ये माली के हाथ की करामात है। क्यों? उन्हीं गुलाबों को जो जंगल में रहते हैं, खुशबू भी नहीं आती, बहुत छोटे-छोटे फूल होते हैं, उन्हीं गुलाबों को ऐसा बना देता है। इसका नाम क्या है? इसका नाम कलम लगाना कहिए, सुसंस्कारिता कहिए अथवा माली की साधना पौधे के साथ और आपकी जीवात्मा की साधना अपने जीवन के साथ। जीवन को अगर परिष्कृत बना ले, व्यक्तित्व को अगर ऊँचा आप उठा ले, फिर मजा आ जाएगा। फिर देखिए आपकी हैसियत कितनी बड़ी हो जाती है और आपकी जितनी हैसियत है, उसी हिसाब से आपको कीमत मिलनी शुरू हो जाएगी। आप एम॰ए॰ तक पढ़े है, तो ज्यादा पैसा मिलेगा-मैट्रिक तक पढ़े है, तो कम पैसा मिलेगा और बिना पढ़े आदमी है, तो उससे भी कम पैसा मिलेगा। पात्रता बढ़ाइए न, कीमत बढ़ाइए न अपनी। और जो चाहते हैं पाइये। कीमत आप बढ़ाना नहीं चाहते, माँग करके लेना चाहते हैं। प्रार्थना करेंगे- मांगेंगे! मांगेंगे!! मांगेंगे!!! अरे बाबा! मांगने से तो पाँच पैसे भी नहीं मिलते; उसमें भी पात्रता की जरूरत होती है। अंधा कोढ़ी होगा, तो शाम तक उसकी भीख में दो रुपये आ जाएंगे, हट्टा-कट्टा होगा, तो कोई देगा नहीं, गालियां और सुनाएगा तुझे शर्म नहीं आती बेशरम! भीख मांगने चला आया। काम, मेहनत, मजदूरी क्यों नहीं करता? पात्रता तो भिखारी को भी चाहिए, फिर सामान्य लोगों का तो पात्रता के बिना दुनिया में कुछ नहीं चलता। इसलिए पात्रता के लिए अपने गुण, अपने कर्म, अपने स्वभाव इन तीनों चीजों को परिष्कृत करना हर आदमी के लिए बेहद जरूरी है।

आध्यात्मिकता के रास्ते पर, जहाँ भगवान का पल्ला पकड़ना पड़ता है वहाँ दूसरा वाला कदम यह उठाना पड़ता है कि हमारी जीवन की साधना क्रमबद्ध है कि नहीं हमने अपने को साध लिया है कि नहीं। साध लेने से आदमी का मूल्य बढ़ जाता है। आप जानते हैं न! साँप को मदारी लोग पाल लेते हैं और सिखा लेते हैं। वह साँप जो आमतौर से हर आदमी को काट खाता है, वही साँप मदारी के बाल-बच्चों के गुजारे का माध्यम बन जाता है। बंदर के बारे में आप जानते हैं न। बंदर कितना वाहियात! किसी के कपड़े उठा के भाग जाता है, किसी को काट खाता है, किसी को क्या करता है, लेकिन वही बंदर पाल लिया जाता है, सिखा लिया जाता है, साध लिया जाता है, वो मदारी के बाल-बच्चों का गुजारा करने के लिए वही सबसे बड़ा स्त्रोत हो जाता है। रीछ जानते हैं कैसा खौफनाक होता है। लेकिन रीछ तब पाले लिए जाते हैं, साध लिए जाते हैं तब रीछ ही अपने पालने वाले का गुजारा कर देता है। सर्कस के बारे में आप जानते हैं। न! शेर कितना भयंकर और दूसरे जानवर कितने भयंकर लेकिन रिंगमास्टर के द्वारा जब साध लिए जाते हैं, तो सर्कस के मालिक को एक-एक दिन में हजारों रुपये कमा करके देते हैं। शेर, जो किसी को भी मार डाल सकते हैं, मालिक को दो-दो हजार रोज कमा करके देते हैं। ये कैसे हो सका? साधना के द्वार। साधना जैसे जंगली जानवरों की, की जा सकती है, उसी के तरीके से जीवन की भी जा सकती है। साधना अगर न की जाए तब? आदमी प्राकृतिक रूप से बड़ा वाहियात है, वनमानुष है। डार्विन ने कहा था कि इनसान बंदर नहीं है, वह बंदर का भाई बंधु है। वनमानुष होते हैं, जंगलों में रहते हैं, देखो है न आपने? न इनको कपड़ा पहनना आता है, न इनकी कोई सभ्यता है, न इनकी कोई बातचीत है। ऐसे किसी तरीके से जैसे बंदर पाल लिए जाते हैं, ऐसे एक वनमानुष के तरीके से वे लोग भी गुजारा कर लेते हैं, जिनको लोग जंगली कहते हैं जंगली लोगों को नर-पशुओं में गिना जाता है।

रामू के बारे में सुना है न आपने! रामू नाम का एक लड़का था। आगरा जिले के भेड़ियों की माँद में पाया गया? इनसान का बच्चा था। भेड़िए उठा कर ले गया, पर खाया नहीं पाल लिया उन्होंने। शिकारियों ने भेड़ियों को मार करके उस मनुष्य के बच्चे रामू को पकड़ लिया। फिर क्या हुआ? वह जंगली जानवरों के तरीके से रहता था। बोलता भी वैसे ही था, चलता भी वैसे ही था। कच्चा माँस खाता था। उसको कुछ भी नहीं आया। उसको लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में भरती कर दिया गया। चौदह वर्ष की उम्र तक जिया, लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी उसे कुछ नहीं आया, कुछ बन नहीं सका। क्यों? क्योंकि छोटी उम्र में संस्कार नहीं डाले गए थे। संस्कार डालना आदमी के लिए बेहद जरूरी है। संस्कार के बिना आदमी स्वभाव का कैसा हो सकता है? फूहड़ है अनगढ़ है, बेहूदा है। इसलिए आपको, अपने आपको संस्कारवान स्वयं बनाना चाहिए। कौन बनाएगा? दूसरा कहाँ तक बनाएगा? बचपन में तो होता भी है। गुरुकुलों में ऋषि लोग छोटे बच्चों को महापुरुष बनाने की शिक्षा देते थे। आरण्यकों में वानप्रस्थों की भरती करने के बाद में शिक्षण देने की बात भी चलती है, पर सामान्य जीवन कैसे चले? बताइए आप। सामान्य जीवन में कौन पीछे लगेगा आपके? एक-एक गलती, एक-एक विचारधारा, एक-एक भूल के बारे में कौन सुधार करेगा? इसलिए ये काम आपको स्वयं ही करना पड़ेगा। आप ही अपने गुरु है आप ही अपने शिक्षक है और आप ही अपने साधक है, आप ही अपने मार्गदर्शक है। अगर आप यह समझ ले, तो आपके जिम्मे एक ही काम रह जाता है कि आप अपने आपको सुधारिये आप अपने आप को सँभालिए, आप अपने आप को ठीक कीजिए और अपने भगवान को नजदीक जाइए।

भगवान क्या है? बताइए आप। एक भगवान तो वह है, जो सारे विश्व में छाया हुआ है, सारे नियमों की व्यवस्था बनाते हैं। वे एक तरह के नियम है, कायदा और कानून है, जिसको हम परब्रह्म कहते हैं। एक और भी ब्रह्म है, जिसको आपको अपने ढंग से बनाने हैं; वह कौन-सा परब्रह्म है? अंग्रेजी में इसको सुपर-काँशस (सुपर चेतन) कहते हैं। वेदाँत की भाषा में इसको स्व कहा गया है, आत्मा कहा गया। आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मंतव्यः निदिध्यासितव्यः। अरे लोगों! अपने आप को जानो, अपने आपको समझो, अपने आपको सुधारो, आपने आपको ठीक करो। यह कैसे हो सकता है? अपने आप। अपने आपसे क्या मतलब? आपने आपसे मतलब है-सुपर चेतन से, जो हमारे भीतर है, जिसके बारे में शुरू में बता या गया है। भीतर के अंतःकरण में व्यक्तित्व है, जिसमें कि गुण, कर्म और स्वभाव भरे पड़े है, जिसमें विश्वास और मान्यताएँ भरी पड़ी है, जिसमें आदतें भरी पड़ी है। आदतों को आपको ठीक करना है। अपनी मान्यताओं में, जिसमें घिनौनेपन घुसे बैठे है उनमें आपको सुधर करना है, शुरू से लेकर अंत तक देखभाल करनी है, उनको ठीक करना है। आपको आत्मदेव की करनी है, उनको ठीक करना है। आपको आत्मदेव की उपासना करती है। उपासना के बारे में जो हम कल कह रहे थे, वास्तव में वह आपको आत्मदेव है। अपने आपकी उपासना किया कीजिए। अपने आपकी उपासना जो कर लेते हैं वह अपने आप ही अपनी साधना से ही, अपने ही दबाव से भगवान बना लेते हैं। मीरा ने अपने ही दबाव से पत्थर को गिरिधर गोपाल बना लिया ओर एकलव्य ने अपने दबाव से ही मिट्टी के पुतले को द्रोणाचार्य बना दिया था और रामकृष्ण परमहंस ने अपने ही व्यक्तित्व के दबाव से पत्थर को काली बना दिया था। अपने आपके व्यक्तित्व का उजागर होना और स्वच्छ, निर्मल होना यह बहुत बड़ी बात है। इसके लिए आपको क्या करना चाहिए? चौबीसों घंटे आपको ध्यान रखना चाहिए। क्या ध्यान रखना चाहिए? यह कि हमारा जीवन किस तरीके से ठीक बन सकता है? आपको अपने कर्त्तव्यों पर ध्यान देना चाहिए। आपको अपने ज्ञान को परिष्कृत करना चाहिए और अपनी भक्ति-भावना का विकास करना चाहिए। तीन योग हैं न! एक योग का नाम है-ज्ञानयोग। इसका अर्थ है-आप वास्तविकता को समझे। अपने बाहर को समझा है, बीजों को समझा है, खेती-बाड़ी को समझा है, पैसे को समझा है, दुकान को समझा है, मुहल्ले वालो को समझा है, संतान को समझा है, फिर आपने आपको क्यों नहीं समझा? अगर आप जीवन को और अपने आपको समझ सकते हो तो इसका मान ‘ज्ञान योग’ होगा। अगर आपने आपने फर्ज और कर्त्तव्यों को समझ रखा हो तब? फर्ज का ज्ञान नहीं, कर्तव्य का ज्ञान नहीं, कोल्हू के बैल के तरीके से सारे दिन मरते रहते हैं, दूसरों की देखा-देखी वासनाओं के दबाव में। मेहनत कम नहीं करते। बहुत मेहनत करते है पर कर्त्तव्यपालन? कर्त्तव्यपालन अलग चीज है। हमारे फर्ज और हमारी ड्युटियाँ कहाँ है? ड्युटियाँ और हमारे फर्ज जहाँ कहीं भी हमको बुलाते हैं, वहाँ हमको जाना चाहिए। इसका नाम कर्मयोग है और भक्ति भावना? भक्ति-भावना मुहब्बत को कहते हैं, प्यार भगवान को किया जाता है। उपासना भगवान की की जाती है। प्रेम भगवान को किया जाता है पर भगवान तक सीमित नहीं रखा जाता। अखाड़े में कसरत करते तो है पर अखाड़े तक, उसकी कसरत की जो शक्ति-संचय है, उसको खर्च थोड़े ही कर देते हैं वह तो बाजार में करना पड़ता है, कही और करना पड़ता है भगवान की भक्ति का अभ्यास करते हैं, भगवान से हम प्रेम करते हैं, उपासना करते हैं। अगर उपासना के बाद में हमारी भक्ति का विकास हुआ हो, तब प्राणियों में इसका उपयोग करना पड़ेगा, मनुष्यों में उपयोग करना पड़ेगा, सबमें उपयोग करना पड़ेगा। प्यार से अपने आप को हरेक को सराबोर कर देना पड़ेगा। प्यार अपने शरीर से कीजिए, ताकि इसको अच्छे तरीके से सुरक्षित रख सकें। प्यार अपनी अंतरात्मा से कीजिए। ताकि इसका कल्याण करने में आप समर्थ हो सके। प्यार अपने मस्तिष्क के चिंतन की मशीन से कीजिए, ताकि प्यार द्वार सही विचार करे और अपने आप को तहस-नहस न होने दें। प्यार अपनी बीबी को कीजिए, ताकि उसका व्यक्तित्व आप निखार सके। प्यार आप बच्चों से कीजिए, ताकि उनको संस्कारवान बना सके। प्यार अपने मुल्क को कीजिए, देश को कीजिए, धर्म और संस्कृति को कीजिए, ताकि उनको इस लायक बना सके कि वह सम्मानास्पद हो, उनका मजाक नहीं उड़ाया जाए। हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति के बारे में लोग तरह-तरह के लांछन न लगा सकें, ऐसा कीजिए न! भक्ति का अर्थ प्यार होता है। प्यार का अर्थ सेवा होता है। सेवा कीजिए, सेवा। अगर भक्ति को समझ सकते हो, तब फिर यह क्या हो जाएगा? फिर यह भक्तियोग हो जाएगा। आपने जीवन की वास्तविकता को समझ सके, तो ये ज्ञानयोग हो जाएगा। जब अपने फर्ज और ड्यूटी को सब कुछ मान ले, इस बात पर ध्यान नहीं दें कि दूसरा आदमी क्या कहता है और क्या सलाह देता है, तब इसको कर्मयोग कहेंगे। इन तीनों बातों का ध्यान रखेंगे, तब आपका व्यक्तित्व निखरता हुआ चला जाएगा। जीवन की साधना के लिए इन बातों पर ध्यान रखना बहुत जरूरी है।

हमारा जीवन पारस है, हमारा जीवन कल्पवृक्ष है, हमारा जीवन अमृत है , हमारा जीवन कामधेनु है। आप जो भी चाहे इस जीवन को बना सकते हैं, लेकिन बनाना तो आपको ही पड़ेगा। आप ही बनाएँगे, तभी बनेगा। अपनी साधना आप कीजिए। अपने आपके विरुद्ध बगावत खड़ी कर दीजिए। अपने जन्म-जन्मान्तर को तोड़-मरोड़कर फेंक दीजिए और जो अच्छाई आपके भीतर नहीं है, जो विशेषताएं अभी तक पैदा नहीं कर सके है, उन गुणों, कर्म और स्वभाव के बारे में आप अभी तक अभावग्रस्त है, कृपा करके वे ठीक कीजिए, उनको सुधारिए। यह पुरुषार्थ कीजिए। बुराइयों को छोड़ने का पुरुषार्थ, अच्छाइयों को बढ़ाने का पुरुषार्थ। पराक्रम अगर आप करेंगे, तो किस तरीके से? आगे बढ़ने के लिए दो कदम बढ़ाने पड़ते हैं। एक कदम के बाद दूसरे के बाद फिर पहला। ऐसे ही आपको अपनी कमजोरियों और बुराइयों को दूर करने की जद्दोजहद करनी पड़ेगी और अपनी अच्छाइयों को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ेगा। यह दो काम करते हुए चले जाएँगे तो आपकी जीवन साधना पूर्ण को जाएगी। जीवन साधना जिस हिसाब से आपकी पूर्ण होगी आप देखेंगे सारा समाज आपका सहयोग करता है, अंतरात्मा आपका सहयोग करता है, भगवान आपका सहयोग करते हैं, पात्रता जैसे ही विकसित होती चलेगी। इसलिए मैंने कल कहा था- आपके भीतर फूल जैसे ही खिलना शुरू हो जाएगा, वैसे ही आपके ऊपर भौंरे अपने शुरू हो जाएँगे, तितलियां आनी शुरू हो जाएगी बच्चे आपको ललचाई आंखों से देखने लगेंगे। भगवान अपेक्षा करेंगे कि ये फूल हमारे गले में है, सिर पर होते तो कैसा अच्छा होता? कृपा करके कीजिए, साधना कीजिए साधना के चमत्कार देखिए। साधना से सिद्धि मिलती है- इस सिद्धाँत को आपको जीवन में प्रयोग करके दिखाना है, तभी फायदा उठा सकेंगे, जिसके लिए कल्पसाधना में आप आए है। हमारी बात समाप्त।


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