ईश्वरः सर्वभूतानाँ हृदि देशे अर्जुन तिष्ठति

March 2000

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काया का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हृदय संस्थान है। रक्तसंचरण एवं प्राण-प्रवाह का तो यह केंद्र है ही, अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार इसी क्षेत्रविशेष को भाव-संस्थान, अंत करण, कारणशरीर आदि विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। भावना, आस्था, प्रेरणा, साहस, आत्मीयता, आदर्श जैसे तत्त्व इसी क्षेत्र में उभरते हैं। किसी को महामानव स्तर तक विकसित करने की अलौकिकता इसी क्षेत्र में प्रस्फुटित होती है। इसके विपरीत यदि इस क्षेत्र पर अनैतिक अवाँछनीयताएँ आधिपत्य जमा लें, तो व्यक्ति को आततायी असुरों जैसे स्तर का बनते देर नहीं लगती।

भाव-संवेदनाएँ अंतराल से ही विकसित होती और बीज से वटवृक्ष बनकर आत्मीयों को नहीं, समस्त प्राणिसमुदाय को अपनी चपेट में लेती हुई उन्हें तद्नुरूप सोचने-समझने और कुछ करने के लिए विवश करती हैं। जिस किसी का यह क्षेत्र जाग जाता है, हृदय ग्रंथि खुल जाती है, उसे आत्मसाक्षात्कार का-ईश्वरदर्शन का परम लाभ प्राप्त करने और दिव्य विभूतियों से सराबोर होने का अवसर भी उपलब्ध हो जाता है।

योगशास्त्रों में हृदयस्थान को अनाहतचक्र कहा गया है। नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः चलने पर मूलाधार, स्वाधिष्ठान एवं मणिपुर चक्रों के बाद इसी का नंबर आता है। तप-साधना द्वारा चक्रों के उन्नयन से प्राण-ऊर्जा का ऊर्ध्वीकरण होता और साधक पशु-प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर पेट-प्रजनन से आगे की बात सोचता एवं प्रगति की दिशा में अग्रगमन करता है, परन्तु आत्मोन्नति का मार्ग इतने से ही प्रशस्त नहीं हो जाता। इससे आगे का मुख्य सोपान है- गुण-कर्म-स्वभाव को परिष्कृत करना एवं हृदय की अंतः मलिनता को धोना, उसकी जटिल गाँठों को खोलना। हृदयग्रंथि यदि परिष्कृत हो जाए, तो फिर मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जाता, वह देवमानव- महामानव बन जाता है। बुद्धत्व और नारायणत्व की ओर बढ़ने का राजमार्ग यही है। जब तक अंतर में वासनाओं का दुर्भावनाओं का घटाटोप छाया रहता है, मनुष्य क्षुद्र स्थिति से ऊपर नहीं उठ सकता, पुण्यपरमार्थ की- उदार सहकार की बातें नहीं सोच सकता, किंतु जब हृदय में ईश्वरप्रेम की, उच्चादर्शों एवं सिद्धाँतों की स्थापना कर ली जाती है और उसके परिपालन की ओर मानवी मन उन्मुख हो जाता है, तो यहीं से उसके ग्रंथियों की गांठें खुलनी प्रारंभ हो जाती हैं, हृदयचक्र की ओर बढ़ने और हृदय गुफा में निवास करने का मार्ग खुल जाता है। अष्टावक्र गीता के अष्टादश प्रकरण के 88वें श्लोक में इसी तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुए अष्टावक्र ने राजा जनक को संबोधित करते हुए कहा है कि जिसकी हृदयग्रंथि टूट जाती है। अर्थात् अहंभाव परमात्मभाव में विलीन हो जाता है, वर रज-तम गुणों से मुक्त होकर आत्मा में ही रमण करने लगता है। श्रीमद्भागवत् गीता में भगवान् ने अर्जुन से कहा है कि मैं हृदयक्षेत्र में निवास करता हूँ।

प्रख्यात दार्शनिक एवं ज्योतिर्विद् एग्रीपा ने जीवात्मा के केन्द्र- हृदय की तुलना सृष्टि के केन्द्र से की है, जिसमें सौरमंडल के समस्त ग्रह अपने सूर्य के तथा विश्वब्रह्माँड के सूर्य महासूर्य की परिक्रमा की परिक्रमा करते हैं। उसकी अनुकृति होने के फलस्वरूप ही संकल्प स्थल हृदय में विविध प्रकार की विश्व-ब्रह्मांडीय घटनाचक्र, अविज्ञात प्राकृतिक रहस्य एवं भूत-भविष्य की जानकारियाँ उद्भूत होती रहती हैं। उनके अनुसार जिस प्रकार मनुष्य विश्व-ब्रह्माँड के केंद्र में स्थित है, उसी तरह सारी सृष्टि सूक्ष्म रूप में उसके हृदय में अवस्थित है, अतः ईश्वर और मनुष्य दोनों में समानता है। दोनों की अनुरूपता एवं मिलन का स्थान उसका हृदय ही हो सकता है। यही जगत् का केन्द्र भी है। परमात्मा एवं जीवात्मक की अभिन्नता, समरूपता एवं मूलभूत एकता होने के कारण ही सभी धर्मों एवं तत्त्वदर्शनों में हृदय की पवित्रता-शुचित पर बहुत जोर दिया गया है। हृदयगुहा में प्रवेश करके ही व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचा उठकर श्रेष्ठतम सोपानों तक पहुँच सकता है। यह अध्यात्म साधना का लक्ष्य भी है।


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