स्वस्थ रहना हो तो मन को साधिए

March 2000

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अध्यात्मशास्त्रों में मन को ही बंधन और मोक्ष का कारण बताया गया है। मनोवेत्ता भी इस तथ्य से परिचित हैं कि मन में अभूतपूर्व गति, दिव्यशक्ति, तेजस्विता एवं नियंत्रणशक्ति है। इसकी सहायता से ही सब कार्य होते हैं, मन के बिना कोई कर्म नहीं हो सकता। भूत, भविष्य और वर्तमान सब मन में ही रहते हैं। ज्ञान, चिंतन, मनन, धैर्य आदि इसके कारण ही बन पड़ते हैं। परिष्कृत मन जहाँ अनेक दिव्य क्षमताओं का भाँडागार है, वहीं विकृत मनःस्थिति रोग-शोक एवं आधि-व्याधि का कारण बनती है। आध्यात्मिक साधनाएँ, योग-तप आदि मन को साधने एवं परिष्कृत करने के विविध उपाय-उपचार हैं।

महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। अनियंत्रित, अस्त−व्यस्त और भ्रांतियों में भटकने वाली मनःस्थिति को मानवी क्षमताओं के अपव्यय एवं भक्षण के लिए उत्तरदायी बताया है और इसे दिशाविशेष में नियोजित रखने का परामर्श भी दिया है। गीताकार ने भी मन को ही मनुष्य का मित्र एवं शत्रु ठहराया है और इसे भटकाव से उबारकर अपना भविष्य बनाने का परामर्श दिया है। इस संदर्भ में महर्षि वशिष्ठ का कहना है कि जिसने मन को जीत लिया उसे त्रैलोक्य विजेता कहना चाहिए। इन प्रतिपादनों से एक ही संकेत मिलता है कि मनोदशा की गरिमा शारीरिक स्वस्थता से भी बढ़कर मानी जाए और समझ जाए कि अनेकानेक समस्याओं के उद्भव समाधान का आधार इसी क्षेत्र की सुव्यवस्था पर निर्भर है।

इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी हेक ड्यूक ने अपनी खोजपूर्ण पुस्तक -माइंड एण्ड हेल्थ’ में शरीर पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव का सुविस्तृत पर्यवेक्षण प्रस्तुत किया है। उनका निष्कर्ष है कि शरीर पर आहार के व्यक्तिक्रम का प्रभाव तो पड़ता ही है, अभाव व पोषक तत्त्वों की कमी भी अपनी प्रतिक्रिया छोड़ती हैं। काया पर सर्वाधिक प्रभाव व्यक्ति की अपनी मनःस्थिति का पड़ता है। यह प्रभाव-प्रतिक्रिया नाड़ी मंडल पर 36 प्रतिशत, अंतःस्रावी हार्मोन ग्रंथियों पर 46 प्रतिशत एवं माँसपेशियों पर 8 प्रतिशत पाया गया है। अनुसंधानकर्त्ता चिकित्साविज्ञानियों ने अनेक रोगियों का पर्यवेक्षण करने के पश्चात् निष्कर्ष निकाला है कि कोई ऐसा स्थूल कारण नहीं ढूंढ़ा जा सका, जिसके कारण उन्हें गंभीर रोगों का शिकार बनना पड़े, फिर भी वे अनिद्रा, अपच, उच्च रक्तचाप, हिस्टीरिया, कैंसर, कोलाइटिस, हृदयरोग जैसी घातक बीमारियों से ग्रस्त पाए गए। सबसे खास बात यह देखी गई कि किसी भी औषधि-उपचार से उन्हें कोई राहत नहीं मिली। देखा गया कि जब मनोवैज्ञानिक तरीके से उनका चिंतनप्रवाह मोड़ा गया तो सकारात्मक परिणाम सामने आए। बिना औषधि-उपचार से ही वे बहुत कुछ स्वस्थ हो गए।

आज की प्रचलित तमाम उपचार विधियाँ-पैथियों के बावजूद नानाप्रकार के रोगों हेक के अनुसार ऐसी परिस्थितियों में रोगनिवारण का सबसे सस्ता, सुनिश्चित और हानिरहित निर्धारण करना होगा। इसके लिए रोगोत्पत्ति के मूल कारण मनःस्थिति की गहन जाँच-पड़ताल करके तद्नुरूप उपाय-उपचार अपनाने पर ही रुग्णता पर विजय पाई जा सकती है। अब समय आ गया है, जब ‘होप’ अर्थात् आशा, ‘फेथ’ अर्थात् श्रद्धा, ‘कान्फीडेन्स’ अर्थात्, आत्मविश्वास, ‘विल’ अर्थात् इच्छाशक्ति एवं ‘सजेशन’ अर्थात् स्वसंकेत जैसे प्रयासों को स्वास्थ्यसंवर्द्धन के क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। मन की अलग गहराई में प्रवेश करके दूषित तत्त्वों की खोजबीन कर, उन्हें निकाल बाहर करने में यही तत्त्व समर्थ हो सकते हैं। अन्य कोई नहीं।

शारीरिक आधियों और मानसिक व्याधियों से छुटकारा पाने एवं अवाँछनीय आदतों के कारण उत्पन्न होती रहने वाली विषम परिस्थितियों से निपटने के लिए परिष्कृत मनोभूमि चाहिए। महामानवों में से प्रत्येक को अंतः चेतना की उत्कृष्टता को किसी न किसी प्रकार अर्जित करना ही पड़ा है। बलिष्ठता के लिए व्यायाम, विद्वता के लिए अध्ययन, उपार्जन के लिए पुरुषार्थ की जिस प्रकार आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार मनस्वी बनने के लिए योगाभ्यास परक तप−साधना का विचार परिष्कार का अभ्यास आवश्यक है।

काया के बाद आज के विज्ञजनों ने बुद्धि को अधिक महत्व दिया है। बुद्धि मनुष्य की प्रतिभा-प्रखरता को निखारने, योग्यता बढ़ाने के काम आती हैं। प्रत्येक क्षेत्र में इसी का बोलबाला या वर्चस्व है। अभी तक मानवी व्यक्तित्व की इन दोनों स्थूल परतों-शरीर और बुद्धि को ही सर्वत्र महत्व मिलता रहा है। मन इन दोनों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म है। प्रत्यक्ष रूप से उसकी भूमिका नहीं दिख पड़ने से अधिसंख्य व्यक्ति उसे महत्त्व भी नहीं देते, जबकि बुद्धि एवं शरीर न केवल मन के इशारे पर चलते हैं, वरन् उसकी भली-बुरी स्थिति से असामान्य रूप से प्रजावित भी होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि अव अनुसंधानकर्त्ता मनोवेत्ताओं ने भी की है कि बीमारियों की जड़ शरीर में नहीं, मन में छिपी होती है। उसके विकास एवं परिष्कार से ही स्वस्थता एवं मनस्विता प्राप्त की जा सकती है।

पोषण अथवा आहार-विहार के संतुलन के अभाव में काया रुग्ण बन जाती है और अपनी सामर्थ्य गँवा बैठती है। इस तरह वैच्रिक खुराक न मिले, तो बुद्धि की प्रखरता मारी जाती है। अधिक से अधिक वे जीवन शकट को किसी तरह खींचने जितना सहयोग ही दे पाते हैं। उपेक्षा की प्रताड़ना मन को सबसे अधिक मिली है। फलतः उसकी असीम संभावनाओं से भी मनुष्यजाति को वंचित रहना पड़ा है। निरुद्देश्य भटकती एवं मचलती हुई इच्छाओं-आकाँक्षाओं का एक नगण्य स्वरूप ही मन की क्षमता के रूप में सामने आ सका है। मनोबल, संकल्पबल इच्छाशक्ति की प्रचंड सामर्थ्य तो यत्किंचित् व्यक्तियों में ही दिखाई पड़ती है। अधिकाँश व्यक्तियों से मन की प्रचंड क्षमता को न तो उभारते बनता है और न ही लाभ उठाते। मन को सशक्त बनाना, उसमें सन्निहित क्षमताओं को सुविकसित करना तो दूर, उसे स्वस्थ एवं संतुलित रखना भी कठिन पड़ता है, फलतः रुग्णता की स्थिति में वह विकृत आकाँक्षाओं-इच्छाओं को ही जन्म देता है।

इच्छाएँ-आकाँक्षाएँ मानवी व्यक्तित्व की, स्वास्थ्य-संतुलन एवं विकास की प्रेरणास्रोत होती हैं। उनका स्तर निकृष्ट होने पर मनुष्य के चिंतन, चरित्र और व्यवहार में श्रेष्ठता की आशा भला कैसे की जा सकती है? रुग्ण मानस रुग्ण समाज को ही जन्म देगा। मन रोगी हो, तो काया भी अपना स्वास्थ्य अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रख सकती। वैज्ञानिक क्षेत्र के नए अनुसंधानों ने कितने ही सिद्धाँतों का खंडन किया है। कितनी ही नई प्रतिस्थापनाएँ हुई हैं तथा कितने ही सिद्धान्तों में उलट-फेर करने के लिए विवश होना पड़ा है। अब धीरे-धीरे स्थूल के ऊपर से विश्वास टूटता जा रहा है। पदार्थ ही नहीं, कायिक स्वास्थ्य के संबंध में भी प्रचलित धारणाओं में क्राँतिकारी परिवर्तन होने की संभावना नजर आने लगी है। अब वह दिन दूर नहीं, जब तन की अपेक्षा मन को सजाने-सँवारने और उसे उत्कृष्ट बनाने को महत्त्व दिया जाने लगेगा।

अनुसंधानकर्त्ता मूर्द्धन्य मनोविज्ञानियों ने मन की रहस्यमय परतों का विश्लेषण करते हुए, यह रहस्योद्घाटन किया है कि मनःसंस्थान में कितने ही शारीरिक रोगों की जड़ें विद्यमान् हैं। मन का उपचार यदि ठीक ढंग से किया जा सके, तो उन रोगों से थी मुक्ति मिल सकती है, जिन्हें असाध्य एवं शारीरिक मूल का कभी ठीक न होने वाला रोग माना जाता रहा है। भारतीय मनीषी इस तथ्य से प्राचीनकाल से ही परिचित रहे हैं। अब पाश्चात्यविज्ञानी भी इसकी पुष्टि करने लगे हैं। रायल मेडिकल सोसायटी के निष्णात चिकित्साविज्ञानी डॉक्टर ग्लौस्टन का इस संदर्भ में कहना है कि शारीरिक रोगों के उपजने-बढ़ने से लेकर अच्छे होने या कष्टसाध्य बनने में मानसिक स्थिति की बहुत बड़ी भूमिका होती है।

मन को सशक्त एवं विधेयात्मक बनाकर कठिन से कठिन रोगों पर विजय पाई जा सकती है और दीर्घजीवन का आनंद उठाया जा सकता है। विकृत मनः स्थिति मनुष्य को राक्षस या जिन्दा लाश बनाकर छोड़ती है। यह सब हमारी इच्छा-आकाँक्षा एवं विचारणा पर निर्भर करता है कि हम स्वस्थ-समुन्नत बनें अथवा रुग्ण एवं हेय।

रोगोत्पत्ति या रोगों के उतार-चढ़ाव में जितना गहरा संबंध शारीरिक कारणों अथवा परिस्थितियों का माना जाता है, उससे कहीं अधिक गहरा प्रभाव मनोदशा का पड़ता है, यदि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ हो, तो फिर रोगों की संभावना बहुत ही कम रह जाती है। आक्रमण करने पर भी रोग बहुत समय तक ठहर नहीं सकेंगे। इसलिए चिकित्सकीय औषधि-उपचार पर जितना ध्यान दिया जाता है, उससे कहीं अधिक यदि मनःस्थिति को सही बनाने, मानसिक परिष्कार करने, चिंतन-चरित्र व्यवहार को उच्चस्तरीय बनाने का प्रयत्न किया जा सके तो नीरोगी काया के साथ ही व्यक्तित्व परिष्कार का दुहरा लाभ उठाया जा सकता है। मन ही प्रगति या अवगति का, रुग्णता या नीरोगता का मूल है। इस तथ्य को जितना जल्दी समझा जा सके उतना ही बेहतर है।


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