गूँज रहा है अभी नहीं तो कभी नहीं का स्वर

March 2000

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“जर्जर मकान आए दिन गिरते रहते हैं पर भवन कितने ही विशालकाय हो, यदि आधारस्तंभ सुदृढ़ हो,तो वे भयंकर भूचालों में भी अविचलित खड़े रहते हैं। तूफान हो, झंझावात हो समुद्र गहरा हो तो भी कुशल माँझी नाव किनारे पहुँचा ही देते हैं। युद्ध कितना ही भीषण हो, अनेक मोरचों पर लड़ा जा रहा हो, तो भी साहसी और सूझबूझ वाले सेनापति विजयी होते हैं, यश प्राप्त करते हैं। कुल चौदह किंतु मूर्द्धन्य व्यक्तियों से अपनी निहत्थी कांग्रेस ने ब्रिटिश हुकूमत से सत्ता छीन ली थी। अपने शांतिकुंज को इन दिनों एक सौ वैसे ही सुदृढ़ आधार स्तंभों की, कुशल नाविकों की, साहसी सेनापतियों और मूर्द्धन्यों की आवश्यकता है। जाग्रत आत्माएँ इस पुकार को सुनो समझे और युगधर्म निर्वाह के लिए आगे आएँ। माँ की कोख कलंकित करने वाली कायरता यों न दिखाएँ।”

“जिनके मन में राष्ट्रीय हित-सेवाभावना और जातीय स्वाभिमान हो, शिथिल हो, किंतु जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व बहुत बड़े न हों, वे शांतिकुंज से पत्रव्यवहार करें, वहीं निवास की बात सोचें। लिप्साएँ तो न रावण की पूरी हुई, न सिकंदर की, पर औसत भारतीय नागरिक की ब्राह्मणोचित आजीविका में कोई दिक्कत किसी को नहीं आने पाएगी, इसे हमारा आश्वासन माने।”

उपयुक्त भावभरा आह्वान शक्तिस्वरूपा परमवंदनीया माता जी द्वारा देवसंस्कृति दिग्विजय के पुरुषार्थ की पूर्व वेला में राष्ट्र के जाग्रत जीवंतों से किया गया था एवं इसे आज भी उन्हीं की हस्तलिपि में उनके कक्ष में यथावत् रखा देखा जा सकता है। समय तब से आगे बढ़ा है-और विषम हुआ है-परिस्थितियाँ तेजी से बिगड़ी है और अब हम युगपरिवर्तन की घड़ियों की उलटी गिनती की वेला में आ पहुंचे है। प्रतिभाओं की सिद्धी के महायज्ञ की इस महापूर्णाहुति में यदि यह वेदना भरी गुहार प्रतिभाओं को न जगा सकी, उन्हें युगसृजन हेतु नियोजन को प्रेरित न कर सकी, तो संभवतः इसे भी आसुरी चिंतन से विषाक्त परोक्ष जगत् से उपजी हम सबकी नियति ही मानी जाएगी। पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। प्रतिभाओं का-जाग्रत जीवंतों का निताँत अकाल पड़ जाए, राष्ट्र के जागरण हेतु निस्वार्थ भाव से अपनी यथायोग्य शक्ति-समय भावभरा पुरुषार्थ व साधन देने वाले व्यक्ति चुक जाएँ, ऐसा समय न कभी आया है, न कभी आएगा। मात्र यह गूँज उन तक पहुँच नहीं पा रही है। यह पत्रिका परमवंदनीया माता जी की टीस को-परमपूज्य गुरुदेव की अंतर्वेदना से भरे इन शब्दों को दिग्दिगंत तक गुंजायमान करने हेतु ही सतत् पुरुषार्थ कर रही है। इस वर्ष वे स्वयं और भी हृदयस्पर्शी नवचेतना को झकझोरने जैसे हो गए है। लगता है इस एक-डेढ़ वर्ष के भीतर यह पुकार कि ‘या तो अभी या कभी नहीं’ ‘डू और डाई’- ‘करो या मरो’- के रूप में जन-जन को सुनाई पड़ेगी, पुरुषार्थ उभरकर आएगा एवं युग-परिवर्तन जैसा असंभव सा दिखने वाला कार्य पूरा होकर रहेगा।

वस्तुतः व्यक्तित्व का परिष्कार ही प्रतिभा परिष्कार है। सबसे बड़ा सुयोग इन दिनों यह है कि नवसृजन के लिए इसी समय प्रचंड वातावरण बन रहा है। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में नियंता का सारा ध्यान और प्रयास नियोजित है। जो भी उस दैवी सत्ता का सहभागी इन दिनों बनेगा वह अन्य सत्परिणामों के साथ ही प्रतिभा परिष्कार का लाभ भी हाथोंहाथ नकदधर्म की तरह प्राप्त कर सकेगा। जिन्हें वस्तुतः दूरदर्शिता का सौभाग्य भरा अनुदान प्राप्त है, वे यह अहसास कर सकते हैं। कि यह पारस से सटने का समय है, कल्पवृक्ष की छाया में बैठ सकने का अवसर है, प्रभातपर्व है एवं ऐसे में जागरुकता का परिचय देना ही सबसे बड़ी समझदारी है।

आड़े समय में उच्चस्तरीय प्रतिभाओं की ही आवश्यकता होती हैं ऐसा ही कुछ समय आज भी है। तब परमवंदनीया माता जी ने सौ प्राणवानों की पंजप्यारों की तरह गुहार की थी, आज वही आह्वान ऋषियुग्म की प्राणसत्ता का दो लाख अग्रदूतों-पूरे क्षेत्र के लिए है, जो 2 करोड़ प्राणवानों को युगपरिवर्तन में नियोजित कर सके। महापूर्णाहुति वर्ष के महासमर में से निकलकर युगसृजन का दायित्व 2001 से 2011-12 तक की अवधि में सँभालेंगे। प्राणवान प्रतिभासंपन्नों ने ही इतिहास रचे हैं चाहे वे शिक्षा क्षेत्र के हो या चिकित्सा विज्ञान जगत् के, युवाछात्र हो या नाराशक्ति, सीमा पर लड़ रहे सैनिक हो या किसान, राष्ट्र कोस समर्पित अधिकारी वर्ग के हो-पत्रकार हो अथवा व्यापारी; हर वर्ग को इन दिनों झकझोरा जा रहा है। युगसंधि की इस वेला में आकुल-व्याकुल होकर पेट-प्रजनन से परे युगपरिवर्तन जैसे सृजन और ध्वंस के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्राणवानों को ही खोजा जा रहा है। प्रस्तुत वसंत पर्व से आरंभ हुआ समग्र राष्ट्र एवं विश्व का गहन मंथन इसी उद्देश्य के लिए नियोजित है एवं जून 2001 का समय आते-आते यह अपना प्रतिभाओं की महासिद्धि का मूल उद्देश्य पूरा करके रहेगा। ऐसे समय में ये स्वर ‘अभी नहीं तो कभी नहीं, निश्चित ही सब जाग्रतों को सुनाई पड़’ रहे है। जरूरत मात्र संकल्पित होने की है।


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