बड़े काम के मोह में छोटे की अवहेलना न हो

March 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वह अत्यंत वृद्ध थी । फिर भी इस वृद्धावस्था में भी उसे बोझा ढोने का काम करना पड़ता था । पेंट पालने के लिए शायद उसके पास और कोई रास्ता भी न था । इस समय वह सड़क के किनारे इस आशा में खड़ी थी कि कोई उसके भारी गट्ठर को उठाने में उसकी सहायता कर दे । तभी एक व्यक्ति उसी सड़क से उसके पास से होकर गुजरा । वृद्धा मजदूरनी ने उससे सहायता की याचना की । उस व्यक्ति के चेहरे पर कुछ अजीब से भाव उभरे और उसने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा- “अभी मुझे समय नहीं है, मुझे बड़ा काम करना है, बड़ा बनना है ।” और वह आगे बढ़ गया ।

थोड़ी दूर आगे एक वृद्ध गाड़ीवान् ने उसके हृष्ट-पुष्ट शरीर को देखते हुए कीचड़ में फँसी अपनी गाड़ी का पहिया निकलवाने के लिए उससे अनुनय की । वह झल्लाकर बोला-”वाह जी वाह ! बड़े बेवकूफ हो तुम ! मैं भला अपने कपड़ों को क्यों खराब करूं ? मुझे बड़ा काम करना है, बड़ा आदमी बनना है ।”

थोड़ा आगे बढ़ने पर उसे एक अंधी बुढ़िया दीख पड़ी । उसकी आहट पाकर उसने उस व्यक्ति से बड़े ही दयनीय भाव से कहा-”अरे भाई क्या तुम मुझे बायीं ओर वाली झोंपड़ी तक पहुँचाने में मेरी मदद करोगे ? तुम्हारा बड़ा अहसान होगा ।” वह व्यक्ति तिलमिलाकर बोला-”तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या ? तुझे नहीं मालूम मुझे बड़ा काम करने जाना है, बड़ा आदमी बनना है । मुझे जरा जल्दी है ।”

इस तरह चलते-चलते वह महर्षि रमण के आश्रम में पहुँच गया । महर्षि अपनी ध्यान−साधना में निमग्न होने ही जा रहे थे कि वह शीघ्रता से उनके सम्मुख जा पहुँचा । उनको अभिवादन कर वह वहीं उनके पास बैठ गया और बोला-”मैं आ गया हूँ महर्षि, आप बताएँ, मेरे लिए क्या सेवा है ? मैं आपके लिए क्या करूं ?” उसके इन स्वरों में उसका अहं ध्वनित हो रहा था ।

महर्षि ने उसी ओर देखा और हलके-से मुस्कराए । महर्षि की इस मुस्कान में उनके रहस्यमय अंतर्ज्ञान की झलक थी । इस मुस्कान के साथ ही उन्होंने पूछा-”हाँ तो तुम ही वह व्यक्ति हो, जिसने कल के सत्संग में बड़ा काम करने के मेरे आह्वान पर अपनी स्वीकृति प्रकट की थी ।”

“जी हाँ भगवान् !” उसने कहा ।

“अच्छी बात है, थोड़ी देर बैठो । मुझे एक व्यक्ति की और प्रतीक्षा है । उसने भी सत्संग के विसर्जन के बाद मुझसे ऐसा ही कहा था । लेकिन अब तक तो उसे आ जाना चाहिए ! यही तो समय दिया था उसने !” महर्षि के चेहरे पर प्रतीक्षा का भाव झलक उठा ।

वह व्यक्ति जोर से हँस पड़ा-”जो व्यक्ति समय का भी ध्यान न रखे, उससे भला क्या अपेक्षा की जा सकती है ?”

महर्षि रमण उसकी बातों में छुपी व्यंग्य की तीक्ष्णता समझकर बोले-”फिर भी हमें उसकी कुछ देर प्रतीक्षा करनी चाहिए ।”

महर्षि ही पहले बोले-”कहो वत्स, शायद तुम्हें कुछ विलंब हो गया है । यह हालत कैसे हुई ?”

दूसरे व्यक्ति के स्वर में विनयभाव फूटा-

“भगवान् ! वैसे तो मैं समय पर पहुँच ही जाता, किन्तु रास्ते में एक बोझ उठाने वाली वृद्ध महिला की सहायता करने में, एक वृद्ध गाड़ीवान् की गाड़ी का पहिया कीचड़ से निकालने में और एक अंधी वृद्धा को उसकी झोंपड़ी तक पहुँचाने में विलंब के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ।”

अब महर्षि ने मुस्कराते हुए पहले आने वाले व्यक्ति की ओर देखा और निर्णयात्मक स्वर में बोले-

“वत्स ! निश्चित ही तुम्हारी राह भी वही थी, जिससे यह आया है । तुम्हें सेवा के अवसर मिले, पर तुमने उनकी अवहेलना की । बड़े काम के मोह में तुमने यह न जाना कि छोटे-छोटे कामों का समायोग ही तो बड़ा काम है । बड़ा बनने के लिए कभी भी छोटों का तिरस्कार नहीं किया जाता । जो दूसरे का भार हलका करने में सहायक हो, जो किसी को कठिनाइयों से निकलने में सहायता दे और जो किसी को कठिनाइयों से निकलने में सहायक हो, जो किसी को लक्ष्य पर पहुँचने में सहयोग दे, वही बड़ा आदमी है । तुम अपना निर्णय स्वयं ही दो वत्स, क्या तुम सेवाकार्य में मेरे सहायक बन सकते हो?”

खिसियाया हुआ पहला व्यक्ति मौन था । वह निरुत्तर था, उसके पास कोई जवाब नहीं था।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118