उस दिन सिंगापुर के फरेरा पार्क में प्रवासी भारतीयों ने एक विराट् सभा का आयोजन किया था । यह सभा भारतमाता के बहादुर सपूत, देशभक्तों के सिरमौर, आजादी के दीवाने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के स्वागत में आयोजित की गई थी । नेताजी उन दिनों दक्षिण पूर्व एशिया का तूफानी दौरा कर रहे थे और कर रहे थे और देशभक्ति भारतीयजनों का ज्यादा-से-ज्यादा धनदान करने के लिए प्रेरणा दे रहे थे ।
आज नेताजी के लिए एक ऊँचा मंच सजाया गया था । वे उस मंच पर अपने मंत्रियों और आजाद हिंद फौज के अफसरों से घिरे खड़े होकर भाषण दे रहे थे । उपस्थित जनसमुदाय मंत्रमुग्ध होकर उनका भाषण सुन रहा था । हर किसी में स्वदेश की सेवा के लिए अपार उत्साह और जबरदस्त जोश दिखाई पड़ रहा था । तालियों की गड़गड़ाहट और नेताजी अमर रहें, इंकलाब जिंदाबाद, आजाद हिंद फौज जिंदाबाद आदि नारों से सारा आकाश गूँज रहा था ।
इन आकाशभेदी नारों के बीच नेताजी के पवित्र उद्गार अग्नि की भाँति प्रखर शब्दों में प्रकट हुए-मेरे प्यारे भारत माँ के सपूतों ! अपने देश की आजादी अब ज्यादा दूर नहीं है । लेकिन उस तक पहुँचने के लिए आपको अपना सर्वस्व लुटाना होगा । पूरी फकीरी के बिना आजादी मिल नहीं सकती । अतः मैं चाहता हूँ कि आप लोग अपने सर्वस्व का उत्सर्ग करें । भारतमाता ने आपको-अपनी लाड़ली संतानों को पुकारा है । क्या उनकी कराह आपके कानों में प्रवेश नहीं करती ? क्या उनका रुदन आपके दिलों को नहीं बेधता ? अपनी आहुति दिए बिना, कष्ट-बलिदान के बिना देश की स्वाधीनता महज एक सपना बनकर रह जाएगी । मुझे आप लोग अपना धन और खून दीजिए, मैं आप सबको आजादी दूँगा ।
नेताजी के मुख से शब्दों के रूप में धधकते अग्नि-पिंड अभी भी झर रहे थे-यह आजादी ऐसी होगी, जिसमें हमारी संस्कृति और हमारी मान-मर्यादा सुरक्षित होगी। ऐसी आजादी, जिसमें लोगों को रहने के लिए आवास, शरीर ढकने के लिए आवश्यक कपड़े और खाने के लिए पर्याप्त भोजन की सहूलियत होगी । सारे देशवासी अपने पर्याप्त भोजन की सहूलियत होगी । सारे देशवासी अपने जातीय विद्वेष एवं मजहबी अलगाव को भूलकर देशप्रेम एवं इनसानियत के प्रबल प्रवाह में बह जाएंगे । मित्रो ! देश की स्वाधीनता का मार्ग फूलों की सेज नहीं है । इस पथ पर चुभने वाले ढेरों काँटे बिछे है । किन्तु इन सभी के अंत के आजादी का पूर्ण विकसित फूल है, जो अपनी ओर आने वाले थके यात्री की प्रतीक्षा कर रहा है । अतः मैं आप सबका, भारतमाता के पुत्र और पुत्रियों का आह्वान करता हूँ कि आजादी के इस पावन संघर्ष में आप अपना सर्वस्व न्यौछावर करें । जयहिंद !
आजादी के महानायक सुभाषचंद्र बोस अपना भाषण समाप्त करके एक ऊँची-सी कुरसी पर बैठ गए । उनकी वाणी में पता नहीं कैसा जादू था कि देखते-ही-देखते आजाद हिंद फौज के लिए धनदान करने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी । सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की संख्या में लोग आकर रुपये, गहने दान में देने लगे । अपरिमित उत्साह के बावजूद सभी अनुशासनबद्ध थे । वे सबके सब करताबद्ध होकर नेताजी के पास बारी-बारी से आ रहे थे और उन्हें यथाशक्ति दान देकर प्रसन्न मन से लौटे रहे थे ।
अजीब समा था । देश की स्वाधीनता के लिए अद्भुत आत्मत्याग का मानो महासिंधु उमड़ चला था । लाखों-लाख रुपये दान में मिल रहे थे । नारियाँ भी इस क्रम में पीछे नहीं थी । धन देने के साथ वे अपने बेशकीमती आभूषण उतारकर दे रही थी । दाताओं की कतार लगातार बढ़ती ही जा रही थी । जो जहाँ था, नेताजी का आवाहन सुनते ही अपना सब कुछ लिए उन्हें सौंपने के लिए भागा बड़ा उत्साह, सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए इतना उल्लास, विश्व के इतिहास में शायद खोजने पर भी न मिले ।
महान् सेनानी सुभाषचंद्रबोस प्रवासी भारतवासियों की इस अपूर्व देशभक्ति से विमुग्ध थे, अभिभूत थे । तभी अचानक उन्होंने भीड़ को चीरकर मंच पर चढ़ने का प्रयास करती हुई एक स्त्री को देखा । वह बिलकुल फटेहाल थी । उसके कपड़े प्रायः तार-तार हो रहे थे । उसकी काया भी अति दुर्बल थी । किन्तु उसी आँखों में एक चमक थी । वे गंभीर हो गए । उनके चेहरे पर भावों की अनेक लकीरें बनने-मिटने लगीं । उपस्थित जनसमुदाय भी अपनी साँसें रोके उस गरीब नारी को देखे जा रहा था । नेताजी के साथ आजाद हिंद फौज के अधिकारी भी अचरज में थे । सभी के मनों में यही कुतूहल था कि देखें, यह स्त्री क्या कहती है । क्या देती है !!
वह स्त्री धीरे-धीरे चलते हुए नेताजी के पास आई ओर उसने फटेहाल धोती के आँचल से एक के बाद एक कई गाँठो को खोलकर तीन रुपये निकाले और भावविह्वल होते हुए उसने ये रुपये नेताजी के पाँवों के पास रख दिए । नेताजी भावविमुग्ध, विस्मय−विमुग्ध से उस परमदरिद्र नारी के महान् त्याग एवं परम उज्ज्वल देशप्रेम से चकित और अभिभूत हो, उसे देखते रह गए । एक पल-दो पल तीन पल इसी तरह न जाने कितने पल-क्षण बीत गए । वह चित्रलिखित से खड़े उसे अपलक निहारते रहे । तभी उस भावप्रवण नारी के साथ जोड़कर उनसे कहा-नेताजी, इसे आप स्वीकार कर लीजिए । आपने राष्ट्रदेवता के लिए सर्वस्व दान करने के लिए कहा है । मेरा यही सर्वस्व है, इसके अलावा मेरे पास और कुछ भी नहीं । मैंने जिस किसी तरह पेट काटकर इन्हें बचाया है । मैं आपको अपनी जीवन भर की कमाई सौंपने आई हूँ ।
सभा में उपस्थित जनसमुदाय स्तब्ध था । लगा जैसे समूचे वातावरण की हवा तक थम गई है । कुछ यूँ लग रहा था जैसे वह फटेहाल महिला अनवरत प्रकाशित रहने वाले ज्योतिपुंज में बदल गई है । और आयोजन का हर कोना उसी से आलोकित हो रहा है ।
फिर भी महानायक सुभाष मौन रहे । उन्हें इस स्थिति में देखकर उस नारी की आँखें भर आई । वह कुछ निराश होते हुए बोली-”क्या आप मुझे गरीब के इस तुच्छ से दान को स्वीकार करेंगे ? क्या भारत माँ की सेवा करने का गरीबों को अधिकार नहीं है ?” इतना कहते हुए वह नेताजी के पाँवों में लिपट गई ।
नेताजी के धैर्य की दीवार रेत की मानिंद ढह गई । उनकी आंखों से आँसू झरने लगे । उन्होंने बिना कुछ कहे अपना दाहिना हाथ बढ़ाकर रुपये उठा लिए । उस स्त्री की खुशी का ठिकाना न रहा । उसकी आँखें चमक उठीं, गर्व से छाती फूल उठी और वह उन्हें प्रणाम करके चली गई ।
उसके जाने के बाद नेताजी की विचित्र मनःस्थिति और उनके अंतर्द्वंद्व को पास खड़े एक अधिकारी ने भाँप लिया । उसने जानना चाहा-नेताजी ! उस गरीब और विपन्न महिला से तीन रुपये लेते हुए आपकी आँखों से आँसू क्यों झरने लगे थे ?
नेताजी विह्वल स्वर में कहने लगे-”मैं सचमुच बहुत असमंजस में पड़ गया था । उसे देखते ही मैं जान गया था कि यह अत्यंत दीन महिला है । इन तीन रुपयों के अलावा उसके पास कुछ भी नहीं होगा । सचमुच यही इसका सर्वस्व होना चाहिए । यदि मैं इन्हें भी ले लूँ तो इसका सब कुछ छिन जाएगा । फिर कैसे यह अपना जीवन काटेगी और यदि नहीं लूँ तो इसकी भावनाएँ आहत होंगी । देश की स्वाधीनता के लिए यह अपना सब कुछ देने आई है । इसे इनकार करने पर पता नहीं वह क्या-क्या सोचती ? हो सकता है, वह यही सोचने लगती कि मैं केवल अमीरों के ही धन को स्वीकार करता हूँ । यही सब सोच-विचार करके मैंने यह दान-महादान स्वीकार कर लिया । उसका यह दान अब तक के समस्त दानों से कई गुना बढ़-चढ़कर है ।”
आयोजन समाप्त हो गया । परंतु नेताजी का हृदय भावनाओं में भीगा था । वह सोच रहे थे कि अपने देशवासियों में बहुसंख्यक जन यदि इस महिला के हृदय में उठने वाली भावनाओं का स्पर्श पा सकें, तो भारतमाता फिर से अपना खोया गौरव वापस पा जाए ।