अलौकिक सामर्थ्य से भरी दो विधाएं : योग एवं तन्त्र

July 1996

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यदि किसी जिज्ञासु को हृदय, रक्तवाही संस्थान की क्रिया पद्धति एवं उससे सम्बन्धित रोगों के कारण सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करनी हैं, इस विद्या में निष्णात होना है तो उसे यह विकल्प नहीं सौंपा जा सकता कि वह मात्र उस संस्थान सम्बन्धी एनाटॉमी पढ़कर, क्रिया प्रणाली के सिद्धान्त समझकर उसका विशेषज्ञ बनने का प्रयास करें। शरीर का हर अंग-अवयव एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। हरेक की कार्य पद्धति का परस्पर एक-दूसरे से तालमेल है तभी तो शरीर - व्यापार चल पाता है। किसी भी विद्या का शाखा में रुचि रखने वाले को उस समूचे विज्ञान के हर पहलू को भली-भाँति समझना होगा। तन्त्र शास्त्र पर भी यही बात लागू होती है। भ्रान्तिवश सामान्यजन इसे आत्मिकी से इतर एक अलग विद्या मान लेते हैं और जानकारी प्राप्ति के लिये तरह-तरह के उपाय अपनाते हैं। इस भटकाव भरी यात्रा में पल्ले कुछ पड़ता नहीं, उलटे अपना अहित और कर बैठते हैं।

तत्वज्ञानी ब्रह्मवेत्ताओं का अभिमत है कि सारी सृष्टि जड़ व चेतन का युग्म है। दोनों के सम्मिश्रण से ही इसकी संरचना हुई है। पदार्थ विज्ञान जड़ वस्तुओं की रचना, आकृति-प्रकृति एवं प्रयोग के विधि-विधानों से सम्बन्धित एक विधा है। चेतन जगत अपने आप में पूरा एक अलग ही संसार है, जिसमें गति है, जिसकी अपनी सत्ता है एवं जिसमें असीम संभावना निहित हैं। इसे हम अध्यात्म-विज्ञान नाम से जानते हैं। ये दोनोँ ही शाखाएँ अपनी भूमिका अलग-अलग रूपों में निभाती रहती हैं पर हैं परस्पर गुँथी हुई।

पदार्थ विज्ञान के प्रयोग अनुसंधान की अनेकों रूपों में आज प्रयोगशालाओं में क्रियाशील नजर आते हैं। एप्लाइड फिजिक्स, के मिस्ट्री, न्यूक्लियर साइंस जैसी अनेकानेक शाखाओं में बँटी भौतिकी यन्त्र-उपकरणों की मदद से इस सदी के प्रारम्भ से अब तक मानव समुदाय को अनेकों उपलब्धियों से लाभान्वित करा चुकी। इसके लिये उसकी जितनी सराहना की जाय कम है। अध्यात्म विज्ञान के प्रयोग अनुसन्धान एक ही यन्त्र के माध्यम से सम्पन्न होते हैं। यह यन्त्र है - जड़-चेतन के सम्मिश्रण से बनी मानवी काया। स्थूल शरीर जो दिखाई पड़ता है, वहीं सब कुछ नहीं है। गहराई से देखने पर इस काया की दो अदृश्य परतें और दृष्टिगोचर होती हैं, जिन्हें ‘सूक्ष्म शरीर’ एवं ‘कारण शरीर’ नाम से पुकारा जाता है। दृश्यमान काया का तो मात्र उदरपूर्ति, मल विसर्जन, प्रजनन आकाँक्षा एवं दैनिक जीवन व्यापार भर से नाता रहता है। लेकिन अन्य दो परतों का सम्बन्ध उस अदृश्य लोक है, जिससे सम्बन्ध स्थापित कर चेतना सत्ता समष्टि का एवं अंग बन जाती है एवं वे कार्य सम्पादित करने लगती है, जिन्हें अद्भुत-अलौकिक माना जाता है, जबकि होते वे भी सुगम एवं प्रकृति अनुशासन की मर्यादा में ही हैं।

यह अदृश्य जगत कैसा है, कहाँ है, इसकी खोजबीन भौतिकी के चश्मे से नहीं की जा सकती। इसके लिये योग एवं तन्त्र विज्ञान की धाराओं को-उनके रहस्यों को मनीषी स्तर के चिन्तन के माध्यम से समझना होगा। मानवी काया, जिसे इस अदृश्य लोक का यन्त्र उपकरण बताया गया है, का सूक्ष्म कलेवर इस दृष्टि से दो भागों में विभक्त माना जा सकता है। एक मस्तिष्क के ऊर्ध्व भाग में स्थित ब्रह्मरन्ध्र, सहस्रार रूपी विद्युत, स्फुल्लिंगों के निर्झर एवं आज्ञाचक्र का समुच्चय। दूसरा निचले छोर पर स्थित प्राणाग्नि का सघन पुँज जिसे मूलाधार,

कुण्डलिनी एवं प्राण संस्थान कहा गया है। काया के निचले छोर पर स्थित मूलाधार केन्द्र की अलंकारिक दृष्टि से तुलना अधःलोक- पाताल लोक से की गयी है।पृथ्वी को शेषनाग पर विराजमान माना गया है। वह कल्पना आत्मिकी की भाषा में काया पर मूलाधार या कुण्डलिनी के रूप में अवस्थित सर्पिणी के माध्यम से समझायी जाती है। यह काय-कलेवर में प्रकृति के सारे क्रिया-कलाप गति एवं शक्ति पर आधारित हैं। काया का दक्षिणी ध्रुव नहीं दोना प्रयोजनों को पूरा करता है।

इन दोनों केन्द्रों-चेतन सत्ता एवं जड़ प्रकृति को परस्पर मिलाने-दोनोँ के मध्य आदान-प्रदान का प्रयोजन जिस उपकरण से पूरा होता है, उसे मेरुदण्ड रूपी देवयान मार्ग के रूप में समझा जा सकता है। अधोलोक के माध्यम से निर्वाह प्रयोजन-उदरपूर्ण एवं प्रजनन जैसी गतिविधियाँ सधती हैं। काया की नीरोगता दीर्घायुष्य जीवनी शक्ति इसी पर निर्भर है। अध्यात्म विज्ञानियों ने इस स्थूल पक्षों को जनसमुदाय के लिये स्पष्ट कर, चेतना विज्ञान के उन अदृश्य क्षेत्रों पर और अधिक प्रकाश डालने का प्रयास किया है, जो इन केन्द्रों व इन्हें जोड़ने वाली सुषुम्ना नाड़ी प्रवाह से सम्बन्धित हैं।

अनन्त सामर्थ्य सम्पन्न विश्व ब्रह्माण्ड की दैवी चेतना से संपर्क जोड़ने के लिए जहाँ ब्रह्मरंध्र एवं सहस्रार का योग विज्ञान के माध्यम से प्रयोग होता है, वह प्रकृति वैभव रूपी दैत्य शक्तियों के प्रचण्ड प्रवाह से लाभ उठाने के लिये यन्त्र विज्ञान का आश्रय लेना होता है। ऊर्ध्वलोक का नेतृत्व जहाँ पर ब्रह्म - सदाशिव करते हैं, वहाँ अधोलोक की अधिष्ठात्री हैं - महाकाली कुण्डलिनी। मध्यव्यापी देवयान मार्ग दोनों के बीच सघन संपर्क बनाये रखने की महती भूमिका निभाता है।

स्वर्गलोक-ऊर्ध्वलोक मस्तिष्क में अवस्थित सहस्रार को जगाने हेतु योग साधना के विभिन्न उपक्रम हैं, जबकि पाताललोक-अधोलोक मूलाधार में अवस्थित कुण्डलिनी में स्पन्दन पैदा करने के लिए तन्त्र स्पन्दन पैदा करने के लिए तन्त्र साधना के अनेकों उपक्रम शास्त्रों में वर्णित हैं। ये दोनोँ मिलकर आत्मिकी की विधा को पूर्ण बनाते हैं। एक शिव हैं एवं दूसरी शक्ति दोनों मिल कर सम्पूर्ण बनते हैं।

योगी ब्रह्म पारायण होते हैं, दिव्यलोक में विचरण करते हैं, भाव साधना के माध्यम से दैवी संपर्क स्थापित कर कुण्डलिनी केन्द्र को जगाने व प्रकृति करते हैं इस प्रकार शरीर की दोनों ही सूक्ष्म परतें अदृश्य शरीर की दोनों ही सूक्ष्म परतें अदृश्य रूप में ब्रह्म एवं प्रकृति से घनिष्ठता स्थापित कर वाँछित अनुदान अपने लिये प्राप्त करने, अन्तः को बलिष्ठ बनाकर अन्यान्यों को लाभान्वित करते देखा जा सकता है। योग एवं तन्त्र के समूचे विज्ञान को इस रूप में भली-भाँति समझकर ही साधना उपक्रमों को आरम्भ किया जाना चाहिए। तंत्र के टोने-टोटके वाले स्वरूप से बचकर उसके मर्म को समझा जाना चाहिए। गलती यही होती रही है कि उसका प्रदर्शन- परक दुरुपयोग अधिक हुआ है।

तंत्र के विषय में अनेकानेक घटनाओं की चर्चा होती है। इस सम्बन्ध में एक घटना है। तब भारत परतंत्र था। सीतापुर क्षेत्र में हृदय नारायण नामक एक सेठ रहते थे। विशाल बँगला था तथा उसमें पत्नी व नौकर-चाकर समेत वे रहते थे। एक दिन सेठजी के बंगले पर एक तान्त्रिक का पदार्पण हुआ। उसने सेठ जी से वाँछित मादक पेय की तन्त्र प्रयोग हेतु माँग की सेठजी ने जब इसको प्रस्तुत करने से इनकार कर दिया तब उस तान्त्रिक ने उन्हें सबक सिखलाने की घोषणा की।

कुछ दिनों बाद ही घर में बिल्लियों का उपद्रव आरम्भ हुआ। घर-आँगन में हर तरफ बिल्लियों का शोर तथा चहलकदमी सुनने, देखने को मिलने लगी। बिल्लियों को पकड़कर कोसों दूर फेंक आया जाता, तब भी न जाने कहाँ से नई बिल्लियाँ आ जातीं तथा उपद्रव पूर्ववत् जारी रहता। उपचार रूप में झाड़-फूँक, पूजा-पाठ का कृत्य भी सम्पन्न किया गया, पर वह भी नाकामयाब रहा।

इसी बीच उस क्षेत्र में एक तलवारधारी साधु की ख्याति काफी फैली। उसने एक बार रेलगाड़ी को चलाने से रोक दिया था। तभी से लोग उसे अपने यहाँ कष्ट निवारणार्थ लिवा जाते। सेठ जी ने भी यही किया साधु ने उन्हें निर्दोष मानते हुए उनके घर आना स्वीकार कर लिया। वहाँ उन्होंने अपनी तलवार माँजना शुरू किया तथा यह कहते रहे। “देखता हूँ कौन अब बिल्लियों को भेजा है, कौन यहाँ तबाही मचाता है?” इसके बाद से वहाँ फिर कोई हलचल नहीं हुई। आज भी सेठजी के परिवार के अन्य लोग इस घटना के साक्षी हैं।

ये घटनाएँ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि तन्त्र-विज्ञान एक अलौकिक सामर्थ्यों का समुच्चय है। तान्त्रिक के पास शाप-वरदान एवं अशुभ को टालने, अहित को मिटाने, साथ ही किसी का अहित करने की भी क्षमता होती है। बहुधा ऐसा कम ही होता है कि अहित करने वाले तन्त्रवेत्ता को बदले में पुरस्कार मिला हो अथवा उसे कुछ लाभ हुआ हो। नियामक सत्ता की विधि -व्यवस्था के अंतर्गत उन्हें भी चलना होता है। जो इस विद्या का सदुपयोग करते हैं, वे अध्यात्म ऊर्जा सम्पन्न होते हैं, एवं दूसरोँ के अनिष्ट का निवारण भी करते हैं। तन्त्र-विज्ञान के इस पक्ष को जो उज्ज्वल है, प्रकाश में लाया जाना चाहिए ताकि इस विषय में संव्याप्त भ्रान्तियों का निवारण हो सके।

वस्तुतः तन्त्र विज्ञानी प्रकृति के परिकर में छिपी अनेकों ज्ञात-अविज्ञात में शक्तियों का अपने लिये उपभोग करते हैं। माध्यम उपकरण काय-कलेवर रूपी यऩ् ही बनाते हैं। ईश्वर द्वारा अनुदान रूप में मिली काया की इस प्रयोगशाला का लाभ बिना किसी लागत के उठाया जा सकता है, बशर्ते कि तप-तितीक्षा के अध्यात्म अनुशासनों को पूरी तरह निभाया गया हो एवं बदले में प्राप्त ऋद्धि-सिद्धि रूपी अनुदानों के दुरुपयोग न होने देने का समुचित आश्वासन उस दैवी सत्ता को दे दिया गया हो। आत्मशोधन की संयम साधना के बिना, कषाय-कल्मषों को हटाए बिना ये चमत्कारी विभूतियाँ हस्तगत होती नहीं। ये कुछ प्रारम्भिक शर्तें हैं, जिन्हें पूरी किए बिना न योग साधना सध पाती है, न तन्त्र साधना ही सम्भव हो पाती हैं। योगी अपने प्रचण्ड आत्मबल के सहारे इस दीवार को गिराकर देव अनुग्रह प्राप्त करने के अधिकारी बन पाते हैं इसी प्रकार तान्त्रिक भी अपनी कठोर तितीक्षा द्वारा उस श्रेय को प्राप्त करते हैं जो उन्हें अभीष्ट होता है।

दोनों ही क्षेत्रों की अपनी-अपनी मर्यादा है, लेकिन दोनों परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े भी हैं। योगी शिव का आदर्शवाद की समर्थक शक्तियों का उपासक होता है एवं तान्त्रिक भौतिक क्षेत्र की सामर्थ्यों का आराधक, जिनके माध्यम से प्रकृति सम्पदा के वैभव का लाभ वह साथ परिकर को दे सकने में समर्थ बनता है। दोनों ही समान महत्व के लेकिन तभी जब दोनों का मानव कल्याण हेतु उपयोग हो।


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