एक सामयिक पुनर्प्रकाशित लेख - इन दिनों शासन तंत्र से हमें क्या अपेक्षाएँ रखती चाहिए

July 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

समाज संगठन का सशक्त स्वरूप अब सरकार का ही माना जाना चाहिए। कोई समय था, जब अनुभवी, ईमानदार और प्रतिष्ठित व्यक्तियों को पंच बना दिया जाता था और वे सद्व्यवहार की सत्परम्पराएँ चलाते रहने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। ऐसे अवसर कम ही आते थे जिनमें सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया गया हो और अपराधियों को प्रताड़ना, भर्त्सना एवं क्षतिपूर्ति के लिए बाधित होना पड़ा हो। इस प्रक्रिया में निश्चयों को कार्यान्वित करने में विलम्ब भी नहीं लगता था। वदी-प्रतिवादियों के सिर पर न्याय-व्यवस्था का कोई खर्च भी नहीं पड़ता था। गवाहों की खानापूरी करने की अपेक्षा पंच लोग ही झंझटों की तह तक वस्तुस्थिति का पता लगा लेते थे। साक्षी मात्र प्रतिष्ठितों की, न्यायप्रिय लोगों की ही उपयुक्त मानी जाती थी। भाड़े के अप्रामाणिक व्यक्तियों की भीड़ लगाने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। दूर न्यायालयों में जाने का खर्च भी नहीं पड़ता था और समय भी व्यर्थ नहीं जाता था। पंचायतें सत्प्रवृत्तियों के संचालन और दुष्प्रवृत्तियों के दमन का कार्य स्वयं ही कर लेती थीं। उनके पीछे लोकमत होता था। इसलिए निर्देशनों के उल्लंघन की हिम्मत भी किसी की नहीं पड़ती थी। केन्द्रीय सरकार को हस्तक्षेप तब करना पड़ता था, जब पंचायतों के निर्णय से अधिक का कोई झंझट सामने आता था। देशों की सीमा-सुरक्षा की जिम्मेदारी भी वे सरकारें ही उठाती थीं। उनके खर्च के लिए लोग अपने उपार्जन का छठा अंश राज्य-कोष में पहुँचा देते थे।

अब वह समय नहीं रहा। पंचायतें कालान्तर में दुर्बल होती चली गयीं। यद्यपि पिछले दिनों इस दिशा में कुछ प्रयास अवश्य हुए हैं। उनका कार्य सरकार को करना पड़ रहा है। शिक्षा, चिकित्सा, संचार, परिवहन आदि के लोकोपकारी कार्य भी उसी के जिम्मे हैं और अपराधियों से भी वही निपटती है। बाह्य आक्रमणों एवं आन्तरिक विग्रहों को दबाना भी उसी का काम है। अपने देश में प्रजातन्त्र है। प्रजा द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही सरकार के छोटे-बड़े संस्थानों को चलाते हैं। अफसर और कर्मचारी निर्धारित कार्यों की पूर्ति के लिए अपना पूरा समय लगाते हैं।

शासन का स्वरूप जनता द्वारा , जनता के लिए राज्य करना है। इसकी प्राथमिक और सर्वोपरि सत्ता मतदाता के हाथ में है। इसलिए सुशासन के लिए आवश्यक है कि मतदाता दूरदर्शी और विवेकवान हों। ऐसे व्यक्तियों को मत दें, जो सच्चरित्र और सुव्यवस्था की कसौटी पर खरे सिद्ध हो सकें। अपना परिचय और मन्तव्य संक्षेप में मतदाताओं को बता दें। यह प्रचार कार्य इतना महँगा नहीं होना चाहिए कि प्रत्याशी को अपने बर्तन बेचने पड़े। न मतदाता उनसे किसी प्रत्यक्ष, परोक्ष रिश्वत की आशा करें। अच्छा हो, प्रबुद्ध मतदाता ही चुनाव की प्रक्रिया अपने कंधों पर उठायें और प्रत्याशी को चापलूसी या धन-बर्बादी के लिए बाधित न होना पड़े। जिस प्रकार प्रतिनिधि चुनने का जनता को अधिकार है, उसी प्रकार उसे यह भी अधिकार रहे कि अयोग्य या अपराधी सिद्ध होने पर उसे उसी मतदान द्वारा वापिस बुला सके।

जनप्रतिनिधि कानून एवं संविधान बनाते या नीति निर्धारित करते हैं। निर्णयों को कार्यान्वित करने का दायित्व, अफसरों या कर्मचारियों का होता है। इसलिए उन्हें नियुक्त करते समय मात्र उनकी शिक्षा ही नहीं, पिछले जीवन की नीतिमत्ता एवं सेवा भावना भी परखी जानी चाहिए। इन दिनों यह नियुक्तियाँ 21 से 25 वर्ष तक ही आयु वालों की होती हैं। इसमें परिवर्तन होना चाहिए। अनुभव 30 वर्ष से कम आयु में किन्हीं बिरलों में देखा गया है। अनुभवहीनों को मात्र शिक्षा के आधार पर महत्वपूर्ण पद देना गलत है। जिनका सरकार पर प्रभाव है, राजनीति में दखल है, वे बड़ी आयु के अफसरों की नियुक्ति पर जोर दें। वे आलसी , प्रमादी न हों, रिश्वतखोरी न करें-इनकी जाँच-पड़ताल करते रहना, सरकार का अपना काम है। इन दिनों जनता में रिश्वत देने वाले और अफसरों में लेने वालों की संख्या बढ़ गई है। फलतः अनुचित कार्य होते रहते हैं और उचित मार्ग अपनाने वालों की हैरानी का सामना करना पड़ता है। यह प्रक्रिया रोकी न जा सकी, तो न्याय और नीति के पैर उखड़ जायेंगे और अनौचित्य की तूती बोलेगी।

न्यायपालिका एवं कार्य-पालिका की विधि ऐसी हो कि कम से कम समय में प्रतिवेदनों का निपटारा हो जाया करे। इन दिनों निर्णयों में बहुत समय लगता है और तारीखें बार-बार आगे बढ़ाई जाती रहती हैं। इसे ‘लालफीताशाही’ कहते हैं। इस कारण सरकार से जो आशा की जाती है, वह बहुत महँगी पड़ती है, फलतः संबद्ध व्यक्ति बुरी तरह खीजते हैं और विश्वास उठ जाने से कानून अपने हाथ में लेने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रक्रिया के कारण नये किस्म के नये उपद्रव खड़े होते हैं, मूल बात पीछे रह जाती है।

शासन तन्त्र बहुत महँगा हो गया है इसलिए हर क्षेत्र में टैक्सों की बढ़ोत्तरी निरन्तर होती जाती है। शासन इतना खर्चीला न हो। आवश्यकता से अधिक लोग न रखे जायँ, वेतन इतना हो जितने में देश का मध्यवर्ती समाज गुजारा करता है। इन दो बातों पर ध्यान दिया जाय और कर्मचारियों की चुस्ती-फुर्ती एवं ईमान की विश्वस्त जाँच-पड़ताल होती रहे, तो जनता और अफसरों के बीच जो खाई चौड़ी होती जाती है, वह न हो। इन दोनों के कारण सरकार की लोकप्रियता घटती है और जनसाधारण की देशभक्ति भावना में कमी आती है। लोग सरकारी निर्देशनों, सुझावों, योजनाओं पर ध्यान भी नहीं देते हैं। यह स्थिति सरकार और जनता दोनों के लिए ही अशोभनीय है।

अपराधियों को दण्ड मिलने की प्रक्रिया इतनी झंझट भरी तथा हलकी है कि उसका दबाव अपराधियों पर नगण्य जितना पड़ता है। उनमें से अधिकाँश कानूनी पेचीदगियों के कारण तथा गवाह न मिलने के कारण छूट जाते हैं, जमानत पर छूट आने से वे फिर आतंक पैदा करते हैं और गवाहों को धमकाते हैं। यदि सचमुच ही अपराधों में, अपराधियों में कमी करनी है तो दंड व्यवस्था कड़ी होनी चाहिए और पीड़ित पक्ष को गवाहियां जुटाने के दायित्व से मुक्त करना चाहिए। वस्तुस्थिति का पता लगाना, सरकार और पंचायत तन्त्र की किसी समन्वित समिति के हाथ सौंपा जाय, अन्यथा अपराधियों को दंड मिलना सम्भव न रहेगा।

कर चोरी और काले धन की वृद्धि में जहाँ व्यापारी दोषी है, वहाँ कर लगाने व वसूल करने की वर्तमान पद्धति भी कम दोषी नहीं है। उत्पादन कर एक जगह लगा दिया जाय और हर साल का लेखा-जोखा लेने में आमदनी बढ़े, उस पर टैक्स ले लिया जाय। ऐसे ही दूसरे तरीके भी हो सकते हैं, जिनके कारण कर चोरी और काले धन की अभिवृद्धि निरन्तर होती जाती है। यदि यह दबाया हुआ पैसा खोजा जा सके, तो उससे उद्योगों की वृद्धि हो सकती है और बेरोजगारी घट सकती है। देहाती उपयोग की वस्तुएँ कुटीर उद्योग के अंतर्गत गाँवों में ही बनें। बड़े मिलों को उनकी प्रतिद्वन्द्विता न करने दी जाय। सरकारी तन्त्र के अंतर्गत कच्चा माल देने, बना माल खरीदने की व्यवस्था रहे, तो-लाखों बेरोजगारों के कारण , जो अनेकों प्रकार के विग्रह पनप रहे हैं, उनमें रोकथाम हो सकती है।

शिक्षा का ऐसा क्रम बने कि जूनियर हाईस्कूल स्तर की शिक्षा को व्यापक बनाया जाय, उसको व्यक्तिगत आधार पर पनपने दिया जाय। जीवन में निरन्तर काम आने वाले शारीरिक , मानसिक, पारिवारिक , सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक विषयों का इससे अनिवार्य शिक्षा में समावेश हो। इतिहास, भूगोल, रेखागणित जैसे काम न आने वाले विषयों का परिचय मात्र एक पुस्तक में करा दिया जाय। इसी बीच गृह उद्योगों का व्यावहारिक शिक्षण भी चलता रहे। कालेज स्तर की शिक्षा को प्रोत्साहन न दिया जाय, जो विशेषज्ञ बनना चाहें, उन्हीं के लिए कॉलेजों के द्वार खुल रहें। नौकरी के लिए पढ़ाई का भ्रम विद्यार्थियों और अभिभावकों के मन में से निकाल दिया जाना चाहिए।

विविध विषयों की रात्रि पाठशालाओं की नई व्यवस्था चले, महिलाओं के लिए मध्याह्न पाठशालाओं की। इनमें साहित्यिक विषय कम और व्यावहारिक विषयों की बहुलता रहे।

वार्षिक परीक्षाओं की पद्धति दोषपूर्ण है, उसमें अयोग्य लड़कों को हथकंडों के आधार पर उत्तीर्ण होने की बहुत गुँजाइश है। मासिक या द्विमासिक परीक्षायें होने लगें। मात्र पुस्तकीय ज्ञान न आँका जाय, वरन् प्रतिभा, चरित्र एवं लोकसेवा जैसे विषयों में भाग लेने की जाँच-पड़ताल होती रहे! ठन मासिक परीक्षाओं के अंक जोड़कर ही वार्षिक परीक्षा मान ली जाय।

भारत में सामाजिक कुरीतियों की भरमार है। धर्म निरपेक्षता के नाम पर, इच्छा पर चलते रहने की छूट न मिलनी चाहिए। समाज सुधार के कुछ कानून हिन्दू सम्प्रदाय के लिए बने हैं, जबकि दूसरे सम्प्रदाय उनके मुक्त रखे गये हैं। बहुविवाह, पर्दाप्रथा-जैसी बुराइयाँ सभी वर्गों से हटनी चाहिए।

आरक्षण जाति विशेष को न दिया जाय, जिनकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति सचमुच गिरी हुई है, उन सभी को आरक्षण का लाभ मिले जबकि आजकल अनुसूचित जाति के नाम पर सुसम्पन्नों को भी वह लाभ मिलता है, जो वस्तुतः पिछड़ों को मिलना चाहिए। इन दिनों वनवासी, आदिवासी वर्ग सचमुच ही ऐसा है, जिनको जन-सामान्य के स्तर तक लाने की विशेष चेष्टा की जानी चाहिए।

प्रौढ़ शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 70 प्रतिशत प्रौढ़ की शिक्षा उपेक्षणीय नहीं है। पुरुषों के लिए रात्रि पाठशालायें और महिलाओं के लिए अपराह्न शालाएँ स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से चलाई जायँ। इसके लिए ऐसी संस्थाओं के संगठन और संचालन के लिए शासक समुदाय अपने प्रभाव का उपयोग करके लोकसेवी संस्थाओं के निमित्त आवश्यक उत्साह पैदा करें।

बाल-विवाह, बहुविवाह और बहुप्रजनन, बड़े प्रीतिभोज भिक्षा-व्यवसाय के विरुद्ध कड़े कानून लागू किये जायँ। ढीले-पोले कानूनों का रहना न रहना समान है। यदि इन सामाजिक बुराइयों को सचमुच ही रोकना है, तो लोगों की नाराजी का वोट कटने का ध्यान रखे बिना, इन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए और अपराधियों को ऐसे दंड देने चाहिए, जिससे दूसरों के कान खुलें।

कन्या शिक्षा के पाठ्यक्रमों में उन विषयों को जोड़ा जाय, जो उनके पारिवारिक जीवन के हर पक्ष पर प्रकाश डालते हों, साथ ही आपत्ति के समय कुछ कमा सकने जैसे ग्रह उद्योग भी आवश्यक रूप से बढ़ाये जायँ। इन विषयों को पढ़ाने के लिए उनको कम किया जा सकता है, जो स्कूल छोड़ते ही विस्मृत हो जाते हैं और कभी किसी काम नहीं आते।

छात्र संस्थाओं की मार्फत विद्यालयों में सादा जीवन उच्च विचार की विद्या कार्यान्वित की जाय। इन दिनों वहाँ के वातावरण में उच्छृंखलता के तत्व प्रवेश करते जा रहे हैं। इसे निरस्त करने के लिए अध्यापक और विद्यार्थी मिल-जुलकर काम करें।

स्वयंसेवी संगठनों की मार्फत प्रौढ़ शिक्षा की ही तरह हर गाँव में व्यायामशाला की स्थापना कराई जाय, जिसमें हर स्तर के बाल-वृद्धों को उनकी स्थिति के अनुरूप व्यायाम करायें। इसके साथ ही स्वस्थ रहने से सम्बन्धित सभी विषयों का संक्षिप्त समावेश हो। फार्स्टएड, रोगी परिचर्या , धात्री कला, शिशु-पोषण जैसे विषय इन व्यायामशालाओं के साथ ही बौद्धिक शिक्षा के रूप में पढ़ाये जायँ।

प्रौढ़ शिक्षा और व्यायाम आन्दोलन के लिए ऐसी पाठ्य पुस्तकें रहें, जिनमें आज के व्यक्ति परिवार और समाज की सभी समस्याओं का स्वरूप और समाधान संक्षेप में किन्तु सारगर्भित रूप से मौजूद हो।

देहातों में ग्रामीणों के सामने उपस्थित सभी समस्याओं के कारण और निवारण बताने वाले सामूहिक वीडियो घर बनाये जायँ। उनके लिए सस्ते दामों पर दिखाने के लिए रचनात्मक एवं सुधारात्मक वीडियो फिल्में शांतिकुंज जैसी संस्था बनाती रहें और उसे व्यापक रूप से छोटे-छोटे गाँवों तक पहुँचाने का प्रबन्ध किया जाय। यह योजना सरकार हाथ में लेने के झंझट में न पड़ना चाहे, तो स्वयंसेवी संस्थाओं को यह काम सौंपा जा सकता है।

देश में डाक्टरों, प्रशिक्षित नर्सों एवं इंजीनियरों की अत्यधिक आवश्यकता है। इसके लिए पाँच वर्ष वाला कोर्स थोड़े से प्रतिभावान, एवं सम्पन्न लोग ही पूरा कर सकते हैं। सरकार इनके डिप्लोमा कोर्स दो-दो वर्ष के बनाये और उन्हें देहाती क्षेत्रों में काम करने के लिए भेज दे। ग्राम प्रधान देशों में से कइयों ने ऐसे डिप्लोमा कोर्स जारी किये हैं।

शहरों की बढ़ती आबादी और देहातों से भगदड़-यह दोनों ही हानिकारक हैं। इसका विकल्प कस्बों में उद्योग लगाये जायँ और आस-पास के गाँव के लिये सड़कें हों, माल लाने ले-जाने के लिए हलके पहियों वाली बैलगाड़ियां बनें, तो शहरों के विकेन्द्रीकरण का काम सरलतापूर्वक चल सकता है। आज की देहाती तथा शहरी कितनी ही समस्याओं का समाधान हो सकता है।

गाँवों का मल-मूत्र इर्द-गिर्द ही सड़ता रहता है, जिससे दुर्गन्ध तथा बीमारी तो फैलती है, साथ ही कीमती खाद का भारी नुकसान होता है। इसके लिए सस्ते, बिना साँकपिट वाले पाखाने, सामूहिक पाखाने, रोड़ी कंकड़ वाले पेशाबघर, जगह-जगह लगाये जाने चाहिए। कम लकड़ी से जलने वाला चूल्हा भी हर किसी को उपलब्ध हो सके, ऐसा प्रबन्ध किया जाना चाहिए। सम्भव हो, तो हैण्ड पम्प लगाने की योजना को भी सस्ता और सरकारी तन्त्र के साथ जुड़ा बनाया जाय। देहाती सस्ते मकानों के लिए खपरैल बनाने की व्यवस्था भी बड़े पैमाने पर जगह-जगह की जाय। सीमेन्ट के ढले हुए पाये भी बन सकें, तो बढ़ती आबादी के लिए घिच-पिच में सड़ने की अपेक्षा सस्ते मकानों की देशव्यापी योजना बन सकती है। इसमें लोहे के स्थान पर बाँस का उपयोग हो सकता है।

राष्ट्रीय एवं स्थानीय सरकारी तन्त्र के स्तर पर यह सभी सुझाव दिये जायं और जहाँ जो प्रबन्ध बन पड़ रहा हो, उसमें पूरा-पूरा सहयोग स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सरकार को दिया जाय। शासन तन्त्र के पास साधन हैं, व्यक्ति हैं, मात्र सुनियोजन का अभाव है। प्रजातन्त्र में यह प्रयोग सफल न हो सका तो अन्य देशों में क्रान्ति लाने की बात फिजूल है। हम अपने संगठन से प्रेरणा देते हुए इन प्रयोगों का शुभारम्भ करें। परिणति सुखद ही होगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118