गुरुपूर्णिमा पर विशेष - प्रज्ञावतार की सत्ता एवं प्रज्ञा परिजनों की भूमिका

July 1996

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पिछले दिनों अनेकानेक नये परिजन गायत्री परिवार के- अखण्ड ज्योति परिवार के अंग- अवयव बने हैं। प्रज्ञा अभियान- युग निर्माण योजना - गायत्री परिवार तीनों एक ही मिशन को प्रतिध्वनित करने वाले नाम हैं, जो समय-समय पर इस संस्थान के लिए प्रयुक्त होते रहे हैं। परमपूज्य गुरुदेव- परम वंदनीया माताजी एवं विशिष्ट उद्देश्यों को लेकर चला यह मिशन परस्पर गुँथे हुए हैं। प्रस्तुत परिचय इसी संदर्भ में है। यद्यपि इसे युग ऋषि के वाङ्मय के प्रत्येक खण्ड में दिया गया है तथापि जन-जन तक यह जानकारी विस्तार से पहुँच पाये, इस उद्देश्य के साथ इसे गुरुपूर्णिमा के परिप्रेक्ष्य में अपने श्रद्धासुमनों के साथ पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है-

इतिहास में कभी-कभी ऐसा होता है कि अवतारी सत्ता एक साथ बहुआयामी रूपों में प्रकट होती है एवं करोड़ों की नहीं, पूरी वसुधा के उद्धार- चेतनात्मक धरातल पर सबके मनों का नये सिरे से निर्माण करने आती है। परमपूज्य गुरुदेव पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य को एक ऐसी ही सत्ता के रूप में देखा जा सकता है, जो युगों-युगों में गुरु एवं अवतारी सत्ता दोनों ही रूपों में हम सबके बीच प्रकट हुई, अस्सी वर्ष का जीवन जीकर, एक विराट ज्योति प्रज्ज्वलित कर उस सूक्ष्म ऋषि चेतना के साथ एकाकार हो गयी, जो आज युग परिवर्तन को सन्निकट लाने को प्रतिबद्ध है। परम वंदनीया माताजी शक्ति का रूप थीं जो कभी महाकाली कभी माँ जानकी, कभी माँ शारदा एवं कभी माँ भगवती के रूप में शिव की कल्याणकारी सत्ता का साथ देने आती रही हैं। उनने भी सूक्ष्म में विलीन हो स्वयं को अपने आराध्य के साथ एकाकार कर ज्योति पुरुष का एक अंग स्वयं को बना लिया। आज दोनों सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु नूतन सृष्टि कैसे ढाली गयी, कैसे मानव को गढ़ने का साँचा बनाया गया ? इसे शाँतिकुँज, ब्रह्मवर्चस, गायत्री तपोभूमि, अखण्ड ज्योति संस्थान एवं युगतीर्थ आँवलखेड़ा जैसी स्थापनाओं तथा संकल्पित सृजन सेनानी जनों के वीरभद्रों की करोड़ों से अधिक की संख्या के रूप में देखा जा सकता है।

परमपूज्य गुरुदेव का वास्तविक मूल्याँकन तो कुछ वर्षों बाद इतिहासविद् मिथक लिखने वाले करेंगे, किन्तु यदि उनको आज भी साक्षात् कोई देखना या उनसे साक्षात्कार करना चाहता हो तो उन्हें उनके द्वारा अपने हाथ से लिखे गए इस विराट् परिमाण में साहित्य के रूप में- युग संजीवनी के रूप में देख सकता है। जो वे अपने वजन से अधिक भार के बराबर लिख गए। इस साहित्य में संवेदना का स्पर्श इस बारीकी से हुआ है कि लगता है कि लेखनी को उसी की स्याही में डुबाकर लिखा गया हो। हर शब्द ऐसा जो हृदय को छूता , मन को, विचारों बदलता चला जाता है। लाखों-करोड़ों के मनों को, अंतस्तल को छूकर इसने उनका कायाकल्प कर दिया। रूसो की प्रजातंत्र की व कार्लमार्क्स की साम्यवाद की क्रान्ति भी इसके समक्ष बौनी पड़ जाती है। उनके मात्र इस युग व्यास वाले स्वरूप को लिखने तक में लगता है कि एक विश्वकोष तैयार हो सकता है, फिर उस बहुआयामी रूप को जिसमें वे संगठनकर्त्ता, साधक, करोड़ों के अभिभावक, गायत्री महा विज्ञान के उद्धारक, संस्कार परम्परा का पुनर्जीवन करने वाले, ममत्व लुटाने वाले एक पिता नारी जाति के प्रति अनन्य करुणा बिखेरकर उनके ही उद्धार के लिए धरातल पर चलने वाले नारी जागरण अभियान चलाते देखे जाते हैं। अपनी वाणी से , उद्बोधन से एक विराट गायत्री परिवार एकाकी अपने बलबूते खड़े करते दिखाई देते हैं तो समझ में नहीं आता क्या-क्या लिखा जाय, कैसे छन्दबद्ध, लिपिबद्ध किया जाय, उस महापुरुष के जीवन चरित्र को!

आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1968, बीस सितम्बर 1911 को स्थूल शरीर से आँवलखेड़ा ग्राम में जनपद आगरा जो जलेसर मार्ग पर आगरा से पन्द्रह मील की दूरी पर स्थित है में जन्मे श्रीराम शर्मा जी का बाल्यकाल-कैशोर्यकाला ग्रामीण परिसर में ही बीता। वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिता श्री पं0 रूपकिशोर जी शर्मा आसपास की कोसों दूर के राजघरानों के राजपुरोहित , उद्भट विद्वान, भागवत कथाकार थे, किन्तु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत् विगलित रहता था। साधना के प्रति उनका सम्मान बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे। छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उन्होंने संबंधियों को बताया कि हिमालय की उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे। किसे मालुम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आयी यह सत्ता वस्तुतः अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी। जाति-पाँति का कोई भेद नहीं। जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में एक अछूत वृद्ध महिला की, जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवा कर उन्होंने घरवालों का विरोध तो मोल ले लिया पर अपना व्रत नहीं छोड़ा। उस महिला ने स्वस्थ होने पर उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिए। एक अछूत कहलाने वाली जाति का व्यक्ति जो उनके आलीशान घर में घोड़ों की मालिश करने आता था, एक बार कह उठा कि मेरे घर कथा कौन कराने आएगा ? मेरा ऐसा सौभाग्य कहाँ ? नवनीत जैसे हृदय वाले पूज्यवर उसके घर जा पहुँचे एवं कथा पूरे विधान से कर पूजा की, उसको स्वच्छता का पाठ सिखाया, जबकि सारा गाँव उनके विरोध में बोल रहा था।

किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ उनने चलाना आरम्भ कर दी थीं। औपचारिक शिक्षा पाँचवीं तक ही पायी थी, किन्तु उन्हें उसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि जो जन्मजात प्रतिभासम्पन्न हो वही स्कूली पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रह सकता है ? हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी बनें ? इसके छोटे- छोटे पैम्फलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी। वे चाहते थे जनमानस आत्मावलम्बी बने- राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका जागे, इसीलिए गाँव में जन्मे इस लाल ने नारी-शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व उसके द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाय, अपने पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाय ? वह सिखाया।

पंद्रह वर्ष की आयु में बसंत पंचमी की बेला में सन् 1926 में उनके घर को पूजास्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आगार थी जबसे महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी, उनकी गुरुसत्ता का आगमन हुआ अदृश्य छायाधारी सूक्ष्म रूप में। उनने प्रज्ज्वलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में सम्पन्न क्रिया -कलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आए हैं एवं उनसे अनेकानेक ऐसे क्रिया-कलाप कराना चाहते हैं जो अवतारी स्तर की ऋषि सत्ताएँ उनसे अपेक्षा रखती हैं। चार बार कुछ दिन से लेकर एक साल तक ही अवधि तक हिमालय आकर रहने, कठोर तप करने का भी उनने संदेश दिया एवं उन्हें तीन संदेश दिए- (1) गायत्री महाशक्ति के चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण जिन्हें आहार के कठोर तय के साथ पूरा करना था। (2) अखण्ड घृतदीप की स्थापना एवं जन-जन तक उसका प्रकाश फैलाने के लिए समय आने पर ज्ञान यज्ञ अभियान चलाना, जो बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के 1938 के प्रथम प्रकाशन से लेकर विचार क्रान्ति अभियान के विश्वव्यापी होने के रूप में प्रकटा तथा (3) चौबीस महापुरश्चरण के दौरान युगधर्म का निर्वाह करते हुए राष्ट्र के निमित्त भी स्वयं को खपाना, हिमालय यात्रा भी करना तथा उनके संपर्क से आगे का मार्गदर्शन लेना।

यह कहा जा सकता है कि युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान, पूज्य गुरुदेव जो सभी एक दूसरे के पर्याय है की जीवनयात्रा का यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने भावी रीति-नीति का निर्धारण कर दिया। पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक ‘हमारी वसीयत और विरासत’ में लिखते हैं कि “प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पन्न हुआ। दो बातें गुरु-सत्ता द्वारा विशेष रूप से कही गयी “संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सामर्थ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी । बसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा”।

राष्ट्र के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हें उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आदेशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युग धर्म की महत्ता व समय की पुकार देख-सुन कर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकाण्ड में पानी में लेकर दौड़ पहने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था। 1927 से 1933 तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयंसेवक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों, सखाओं, मार्ग- दर्शकों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये। छह-छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई। जेल में भी वे बच्चों को शिक्षण देकर व स्वयं अंग्रेजी सीखकर लौटे। आसनसोल जेल में वे श्री जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मालवीय जी, देवीदासव गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड मंत्र आगे चलकर एक घण्टा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन का वेतन एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्मघट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया। जिसका आधार था प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश।

स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आए, जिनमें शहीद भगतसिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जन-आक्रोश के समय श्री अरविन्द के किशोर काल की क्राँतिकारी स्थिति की तरह उनने भी वे कार्य किये, जिनसे आक्रान्ता शासकों के प्रति असहयोग जाहिर होता था । नमक आँदोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, वे मारते रहे परन्तु समाधि-स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था पर आँदोलन से पीठ दिखाकर भागना नहीं। बाद में फिरंगी सिपाहियों के जाने पर लोग उठाकर घर लेकर आए। जरारा आँदोलन के दौरान उन्होंने झंडा नहीं छोड़ा, जबकि फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने के प्रयास करते रहे। उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गए, पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा दाँतों में भींचे गए, टुकड़े के रूप में जब निकाला गया तब सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्यचकित हो गए। उन्हें तबसे ही आजादी के मतवाले उन्मत्त ‘ श्रीराम मत ‘ नाम मिला। अभी भी आगरा में उनके साथ रहे या उनसे कुछ सीख लिये अगणित व्यक्ति उन्हें ‘मत जी’ नाम से ही जानते हैं। लगानबन्दी के आँकड़े एकत्र करने के लिए उन्होंने पूरे आगरा जिले का दौरा किया व उनके द्वार ! प्रस्तुत वे आँकड़े तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के मुख्यमंत्री श्री गोविन्द बल्लभ पंत द्वारा गाँधी जी के समक्ष पेश किये गए। बापू ने अपनी प्रशस्ति के साथ वे प्रामाणिक आँकड़े ब्रिटिश पार्लियामेंट भेजे , इसी आधार पर पूरे संयुक्त प्रान्त के लगान माफी के आदेश प्रसारित हुए। कभी जिनने अपनी इस लड़ाई के बदले कुछ न चाहा। उन्हें सरकार ने अपना प्रतिनिधि भेजकर पचास वर्ष बाद ताम्रपत्र देकर शाँतिकुँज में सम्मानित किया। उसी सम्मान व स्वाभिमान के साथ सारी सुविधाएँ व पेंशन उनने प्रधानमंत्री राहत फण्ड, हरिजन फण्ड के नाम समर्पित कर दीं। वैरागी जीवन का सच्चे राष्ट्र संत होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है ?

1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ, जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव ऋषिवर रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने शान्तिनिकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम अहमदाबाद गए। सांस्कृतिक- आध्यात्मिक मोर्चे पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाय , यह निर्देश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उनने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। जब आगरा में ‘सैनिक’ समाचार-पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्रीकृष्ण दत्त पालीवालजी ने उन्हें अपना सहायक बनाया। बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए सतत् स्वाध्यायरत रहकर उनने अखण्ड ज्योति नामक पत्रिका का पहला अंक 1938 की बसंत पंचमी पर प्रकाशित किया। प्रयास पहला था, जानकारियाँ कम थी अतः पुनः सारी तैयारी के साथ विधिवत् 1940 की जनवरी से उनने परिजनों के नाम पाती के साथ अपने हाथ से बने काज पर, पैर से चलने वाली मशीन से छापकर ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका का शुभारंभ किया जो पहले तो दो सौ पच्चीस पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु क्रमशः उनके अध्यवसाय घर-घर पहुँचाने, मित्रों तक पहुँचाने वाले उनके हृदयस्पर्शी पत्रों द्वारा बढ़ती-बढ़ती नवयुग के मत्स्यावतार की तरह आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभिन्न भाषाओं में छपती व एक करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है।

पत्रिका के साथ-साथ ‘मैं क्या हूँ’? जैसी पुस्तकों का लेखन आरंभ हुआ, स्थान बदा, आगरा से मथुरा आ गए, दो तीन घर बदल कर घीयामंडी में जहाँ आज ‘अखण्ड-ज्योति संस्थान’ है आ बसे। पुस्तकों का प्रकाशन व कठोर तपश्चर्या, ममत्व विस्तार तथा पत्रों द्वारा जन-जन के अंतःस्थल को छूने की प्रक्रिया चालू रही। साथ देने आ गयीं परम वंदनीया माताजी भगवती देवी शर्मा, जिन्हें भविष्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका अपने आराध्य इष्ट गुरु के लिए निभानी थी। उनके मर्मस्पर्शी पत्रों ने, भाव भरे आद्विथ्य हर किसी को जो दुःखी था, पीड़ित था दिये गये ममत्व भरे परामर्श ने गायत्री परिवार का आधार खड़ा किया, इसमें कोई संदेह नहीं यदि विचार क्रान्ति में साहित्य ने मनोभूमि बनायी तो भावनात्मक क्रान्ति में ऋषि युगल के असीम स्नेह ने ब्राह्मणत्व भरे जीवन ने शेष बची भूमिका निभायी।

‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका लोगों के मनों को प्रभावित करती रही, इसमें प्रकाशित ‘गायत्री चर्चा’ स्तम्भ से लोगों को गायत्री व यज्ञमय जीवन जीने का संदेश मिलता रहा, साथ ही एक आना से लेकर छह आना सीरिज की अनेकानेक लोकोपयोगी पुस्तकें छपती चली गयीं। इस बीच हिमालय के बुलावे भी आए, अनुष्ठान भी चलता रहा जो पूरे विधिविधान के साथ 1953 में गायत्री तपोभूमि की स्थापना, 108 कुंडी यज्ञ व उनके द्वारा दी गयी प्रथम दीक्षा के साथ समाप्त हुआ। गायत्री तपोभूमि की स्थापना के निमित्त धन की आवश्यकता पड़ी तो परम वंदनीया माताजी ने जिन्होंने हर कदम पर अपने आराध्य का साथ निभाया, अपने सारे जेवर बेच दिए, पूज्यवर ने जमींदारी के बाँण्ड बेच दिए व जमीन लेकर अस्थायी स्थापना कर दी गयी। धीरे-धीरे उदारचेताओं के माध्यम से गायत्री तपोभूमि एक साधनापीठ बन गयी। 2400 तीर्थों के जल व रज की स्थापना वहाँ की गयी, 2400 करोड़ गायत्री मंत्र लेखन वहाँ स्थापित हुआ, अखण्ड अग्नि हिमालय के अति पवित्र स्थान से लाकर स्थापित की गयी जो अभी तक वहाँ यज्ञशाला में जल रही है। 1941 से 1971 तक समय परमपूज्य गुरुदेव का गायत्री तपोभूमि - अखण्ड ज्योति संस्थान में सक्रिय रहने का समय है। 1956 में नरमेध यज्ञ, 1958 में सहस्रकुंडी यज्ञ करके लाखों गायत्री साधकों को एकत्र कर उनने गायत्री परिवार का बीजारोपण कर दिया। कार्तिक पूर्णिमा 1958 में आयोजित इस कार्यक्रम में दस लाख व्यक्तियों ने भाग लिया, इन्हीं के माध्यम से देश भर में प्रगतिशील गायत्री परिवार की दस हजार से अधिक शाखाएँ स्थापित हो गयी। संगठन का अधिकाधिक कार्यभार पूज्यवर परम वंदनीया माताजी पर सौंपते चले गए एवं 1949 में पत्रिका का संपादन उन्हें देकर पौने दो वर्ष के लिए हिमालय चले गए, जहाँ उन्हें गुरुसत्ता से मार्गदर्शन लेना था, तपोवन, नंदनवन में ऋषियों से साक्षात्कार करना था तथा गंगोत्री में रहकर आर्ष ग्रन्थों का भाष्य करना था। तब तक वे गायत्री महाविद्या पर विश्वकोश स्तर की अपनी रचना गायत्री महाविज्ञान के तीन खण्ड लिख चुके थे, जिसके अब तक प्रायः पैंतीस संस्करण छप चुके हैं। हिमालय से लौटते ही उनने महत्वपूर्ण निधि के रूप में वेद, उपनिषद् स्मृति, आरण्यक, ब्राह्मण, योग वाशिष्ठ, मंत्र महाविज्ञान, तंत्र महाविज्ञान जैसे ग्रन्थों को प्रकाशित कर देव-संस्कृति की मूल थाती को पुनर्जीवन दिया। परम वंदनीया माताजी ने इन्हीं वेदों को पूज्यवर की इच्छानुसार 1991-92 में विज्ञान-सम्मत आधार देकर पुनर्मुद्रित कराया एवं आज वे घर-घर में स्थापित हैं।

युग निर्माण योजना व ‘युग निर्माण सत्संकल्प’ के रूप में मिशन का घोषणापत्र 1963 में प्रकाशित हुआ । तपोभूमि एक विश्वविद्यालय का रूप लेती चली गयी तथा अखण्ड ज्योति संस्थान एक तपःपूत की निवासस्थली बन गया। जहाँ रहकर उनने अपनी शेष तप साधना पूरी की थी, जहाँ से गायत्री परिवार का बीज डाला गया था। तपोभूमि में विभिन्न शिविरों का आयोजन किया जाता रहा, पूज्यवर स्वयं छोटे-बड़े सम्मेलनों युवा योजनाओं के द्वारा विचार-क्रान्ति की पृष्ठभूमि बनाते रहे पूरे देश में 1970-71 में पाँच 1008 कुण्डी यज्ञ आयोजित कर स्थायी रूप से विदाई लेते हुए एक विराट सम्मेलन (जून 1971) में परिजनों को विशेष कार्यभार सौंप परम वंदनीया माताजी को शांतिकुंज हरिद्वार में अखण्ड दीप के समक्ष तप हेतु छोड़कर स्वयं हिमालय चले गए। एक वर्ष बाद वे गुरुसत्ता का संदेश लेकर लौटे, परम्परा का बीजारोपण , प्राण प्रत्यावर्तन हेतु विशिष्ट सत्र, प्रवासी परिजनों के लिए विशिष्ट मार्गदर्शन जैसे कार्य उनने शांतिकुंज में संपन्न किए।

सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थापना अपनी हिमालय की इस यात्रा से लौटने के बाद ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना थी जहाँ विज्ञान और अध्यात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों पर शोध कर एक नया धर्म वैज्ञानिक धर्म के मूलभूत आधार रखे जाने थे। इस संबंध में पूज्यवर ने विराट परिमाण में साहित्य लिखा- अदृश्य जगत के अनुसंधान से लेकर मानव की प्रसुप्त क्षमता के जागरण तक साधना से सिद्धि एवं दर्शन- विज्ञान के तर्क, तथ्य, प्रमाण के आधार पर प्रस्तुतीकरण तक। इसके लिए एक विराट् ग्रन्थागार बना व एक सुसज्जित प्रयोगशाला, वनौषधि उद्यान भी लगाया गया तथा जड़ी - बूटी , यज्ञ विज्ञान तथा मंत्रशक्ति पर प्रयोग हेतु साधकों पर परीक्षण प्रचुर परिमाण में किये गए। निष्कर्षों ने प्रमाणित किया कि ध्यान साधना, मंत्र, चिकित्सा व यज्ञोपैथी एक विज्ञान सम्मत विधा है। गायत्री नगर क्रमशः ण्क तीर्थ , संजीवनी विद्या के प्रशिक्षण की एकेडेमी का रूप लेता चला गया एवं यहाँ 9-9 दिन के साधना प्रधान, एक-एक माह के कार्यकर्त्ता निमार्ण हेतु युग शिल्पी सत्र सम्पन्न होने लगे।

कार्यक्षेत्र में विस्तार हुआ। स्थान-स्थान पर शक्तिपीठें विनिर्मित हुई जिनके निर्धारित क्रियाकलाप थे- सुसंस्कारिता, आस्तिकता संवर्धन एवं जन-जाग्रति के केन्द्र बनना। ऐसे केन्द्र जो 1980 में बनना आरंभ हुए थे, प्रज्ञासंस्थान , शक्तिपीठ, प्रज्ञामण्डल, स्वाध्यायमण्डल के रूप में पूरे देश व विश्व में फैलते चले गए। 76 देशों में गायत्री परिवार की शाखाएँ फैल गयीं, 4600 से अधिक भारत में निज के भवन वाले संस्थान विनिर्मित हो गए, वातावरण गायत्रीमय होता चला गया।

परमपूज्य गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण में प्रवेश कर 1985 में ही पाँच वर्ष के अन्दर अपने सारे क्रियाकलापों को समेटने की घोषणा कर दी। इस बीच कठोर तप साधना कर मिलना- जुलना कम कर दिया तथा क्रमशः क्रियाकलाप परम वंदनीया माता जी को सौंप दिए। राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों व विराट दीप यज्ञों के रूप में नूतन विधा को जन-जन को सौंपकर राष्ट्र देवता की कुण्डलिनी जगाने हेतु उनने अपने स्थूल शरीर छोड़ने व सूक्ष्म में समाने, की विराट से विराटतम होने की घोषणा कर गायत्री जयंती, 2 जून 1990 को महाप्रमाण किया। सारी शक्ति वे परम वंदनीया माताजी को दे गए व अपने व माताजी के बाद संघ शक्ति की प्रतीक लाल मशाल को ही इष्ट आराध्य मानने का आदेश देकर ब्रह्मबीज से विकसित ब्रह्मकमल की सुवास को, देव संस्कृति दिग्विजय अभियान के रूप में आरंभ करने का माताजी की निर्देश दे गए।

एक विराट श्रद्धाँजलि समारोह व शपथ समारोह जो हरिद्वार में संपन्न हुए, में लाखों व्यक्तियों ने अपना समय समाज के नवनिर्माण मनुष्य में देवत्व के उद्भव, धरती पर स्वर्ग लाने का गुरुसत्ता का नारा साकार करने के निमित्त देने की घोषणा की। परम वंदनीया माताजी द्वारा भारतीय संस्कृति को विश्वव्यापी बनाने, गायत्री रूपी संजीवनी घर-घर पहुँचाने के लिए पूज्यवर द्वारा आरंभ किये गये, युग संधि महापुरश्चरण की प्रथम व द्वितीय पूर्णाहुति तक विराट अश्वमेध महायज्ञों की घोषणा की गयी। वातावरण के परिशोधन सूक्ष्म जगत के नवनिर्माण एवं साँस्कृतिक व वैचारिक क्रान्ति के निमित्त सौर ऊर्जा के दोहन द्वारा विशिष्ट प्रयोगों के माध्यम से विशिष्ट मंत्राहुतियों द्वारा संपन्न किये गये, इन अश्वमेधों ने सारी विश्ववसुधा को गायत्री व यज्ञमय, बासंती उल्लास से भर दिया, स्वयं परम वंदनीया माता जी ने अपनी पूर्व घोषणानुसार चार वर्ष तक परिजनों का मार्गदर्शन कर सोलह यज्ञों का संचालन स्थूल शरीर से किया व फिर भाद्रपद पूर्णिमा, 19 सितम्बर 1994 महालय श्राद्धारंभ वाली पुण्य बेला में अपने आराध्य के साथ एकाकार हो गयीं। उनके महाप्रयाण के बाद दोनों ही सत्ताओं के सूक्ष्म में एकाकार होने के बाद मिशन की गतिविधियाँ कई गुनी बढ़ती चल गयीं। जयपुर के प्रथम अश्वमेध यज्ञ (नवम्बर 1992) से लेकर सत्ताइसवें विराट आश्वमेधिक प्रथम महापूर्णाहुति समारोह आंवलखेड़ा (नवम्बर 1995) तक प्रज्ञावतार के लीला संदोह का स्पष्ट स्वरूप सबको दिखाई देना लगा है।

युग संधि महापुरश्चरण अपनी तीव्रतम गति से सारे विश्वभर में सम्पन्न होता चला जा रहा है एवं देव संस्कृति अगले दिनों विश्व संस्कृति बनने जा रही है, यह स्पष्टतः देखा जा सकता है। अनेकानेक व्यक्ति अपने जीवनक्रम को बदलते युग दृष्टि की बतायी राह पर चलते अब देखे जा सकते हैं। “ हम बदलेंगे-युग बदलेगा” का उद्घोष दिग्दिगन्त तक फैल रहा है एवं “इक्कीसवीं सदी- उज्ज्वल भविष्य” सतयुग की वापसी का स्वप्न साकार होता चला जा रहा है, यह स्पष्ट देखा जा सकता है। अगली महापूर्णाहुति (सन् 2001 तक सभी कमर कसकर साथ चल सकें, गुरुसत्ता के सच्चे उत्तराधिकारी संगठित हो साथ चल सकें इसी के निमित्त 1996 का वर्ष पुनर्गठन वर्ष घोषित किया गया, किसी को तनिक भी संदेह नहीं करना चाहिए कि तमिस्रा का अंत अब होने जा रहा है, नवयुग का अरुणोदय सुनिश्चित है। एवं उसमें हम सबकी भागीदारी होनी ही है।


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