कच्छ के भीमक साहेब

July 1996

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आँखों के आँसू पोछते-पोछते वह मुस्करा उठे। यूँ अपमान, तिरस्कार उनके लिए कोई नई बात न थी। बचपन से इसे सहते-सहते अब वे इसके अभ्यस्त हो चुके थे। वह नीची जाति के माने जाते थे। उनका स्पर्श न हो जाए, इस भय से स्वयं को सवर्ण कहलाने वाले उनसे दूर-दूर रहते थे। इसका उन्होंने कभी पुरा नहीं माना। उनका हृदय तो जैसे पर्वत से उतरने झरने के नीम के समान निर्मल था।

लेकिन आज शाम को जब उन्हें भजन गाते देख एक कुलीन वंश के व्यक्ति ने उन पर व्यंग्य किया, तो वे दुःखी हो उठे थे। समाज और संसार भले उन्हें अछूत मानता रहे, पर प्रभु तो रतित-पावन है। भले संसार उन्हें उच्च पद और सम्मान न दे लेकिन भगवान की गोद के तो वे अधिकारी हैं। अपने वंश और कुल के दम्भ में उक्त व्यक्ति ने उनकी इसी मान्यता पर व्यंग्य किया था और वह बिलख पड़े थे। इकतारे पर गाये जाने वाले भजन में यही वेदना उमड़ पड़ी थी। उनका कण्ठ स्वर जब हृदय की करुण पुकार से एकात्म होता, तो ऐसे समाँ बँधता कि चट्टान रो पड़े। आज कुछ ऐसा की हुआ था।

वैसे भी वह देर रात्रि तक भगवान की आराधना करके ही विश्राम करते थे। भोर होते ही प्रभु नाम की प्रतिभायाँ गाकर फिर वह कामकाज में लग जाते । गर्मी हो अथवा बरसात या फिर चाहे ठिठुरती ठण्ड हो, वह पूरा साल अपने कृषि कार्य में निमग्न रहते और बीच में जब समय मिलता तो ‘गजी’ बुन लेते।

उनके खेत से थोड़ी ही दूर पर कागनोरा पर्वत की धार में एक बड़ी गुफा थी, जिसमें ‘रामनगर’ नाम एक सिद्धयोगी रहते थे। यही उनका स्थायी निवास था। उनके दर्शनों के लिए आस-पास के कई गाँवों के लोग आते रहते थे। योगिराज रामनगर के निर्वाह का साधन इन्हीं दर्शनार्थियों द्वारा लाए गए फल-फूल थे। वे तो दिन-रात आत्मचिन्तन, ध्यान, तप में संलग्न रहते थे। भोजन मिल जाए तो भी ठीक और न मिले तो भी ठीक, उन्हें तो जैसे देह का भान ही नहीं रह गया था। कई बार तो हफ्तों महीनों उन्हें निराहार भी रहना पड़ जाता। परन्तु वे अपना हाथ फैलाने के लिए अपनी गुफा छोड़कर कहीं भी नहीं तो थे।

वह भी नित्य इन योगिराज के दर्शन करके स्वयं को कृतार्थ मानता। उसकी इच्छा तो होती कि मैं भी महात्मा जी की सेवा करूं, लेकिन यह चाहत मन में उत्पन्न होकर, मन में ही विलीन हो जाती। उसे मालुम था कि वह जाति से अछूत है और योगिराज उच्च कुल के हैं। मेरी सेवा भला वे क्यों स्वीकार करेंगे ? अतः वह दूर से ही उन पवित्रात्मा के दर्शन करके स्वयं को धन्य मान लेता। इस बार वह दो-तीन दिन से उनके दर्शन नहीं कर पाया था। मन में दर्शनों के लिए बड़ी आकुलता थी। जब वह दोपहर के समय खेत में हल चला रहा था। तब अचानक वे योगी अपनी गुफा में से बहार आए और अभी वे मुश्किल से तीन-चार कदम ही चले होंगे कि उनके दाएँ पैर में काँटा चुभ गया। उनके मुख से एक हलकी सी कराह निकल पड़ी। उन्होंने नीचे झुककर वह काँटा निकाल लिया। और फिर आगे बढ़ गए।

वह यह दृश्य से दूर से देख रहा था। उसे ऐसे लगा जैसे काँटा महात्मा जी के पाँव में न लगकर उसके हृदय में बिंध गया हो। महात्मा जी ने वह काँटा अपने पैर में से निकाल कर एक ओर फेंक दिया था, लेकिन उसके हृदय से वह काँटा नहीं निकल रहा था। उसने तुरन्त गुफा के आस-पास की झाड़ियाँ साफ कर दीं। थोड़ी ही देर में गुफा के आस-पास की जमीन साफ हो गयी। उस दिन से गुफा से आस-पास की जमीन साफ करना, उसमें पानी छिड़कना उसका निज का काम हो गया।

इस तरह कांटों-झाड़ियों, कंकड़ों से घिरी हुई गुफा अब देवमन्दिर की तरह आकर्षित लगने लगी थी। योगिराज ने जब गुफा के आस-पास जब यह आश्चर्यचकित कर देने वाली स्वच्छता देखी तो वह भी हतप्रभ रह गए। लेकिन उन्हें अब तक यह नहीं मालुम हो सका था कि यह सफाई कौन करता है ? क्योंकि करने वाले के हाथ ये सारा काम रात्रि के तीसरे, चौथे प्रहर में ही कर डालते थे।

उसे सिर्फ करके ही सन्तोष न मिलता। उसका अंतःकरण उन महात्माजी के प्रति आकर्षित हो चला था। वह गुफा के दरवाजे पर धूनी के लिए समिधा भी जुटा देता। इस क्रम में सालों गुजर गए।

एक दिन भोर के धुँधलके में वह गुफा के दरवाजे के समीप झाडू लगाकर पानी का छिड़काव कर रहा था। उसी समय अचानक योगिराज रामनगर गुफा से बाहर निकल आए। उनके शरीर पर केवल एक लँगोटी बँधी हुई थी। समूची देह पर विभूति चमक रही थी। सिर पर जटाएँ मुकुट की तरह शोभायमान थी। आज उसने पहली बार उन्हें इतनी नजदीक से देखा था। उससे रहा नहीं गया। हाथ में पकड़े पानी के घड़े को एक ओर रखकर वह उनके चरणों में गिर गया।

योगिराज ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-भीकम भारत मैं तुम्हारी निष्काम सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो मेरे बच्चे, तुम्हें कुछ कहना हैं।

उसने हाथ जोड़कर आँसुओं से भरी आँखें, उनकी ओर उठाते हुए कहा - बापू मुझे शिष्य बना लीजिए।

भीकम भगत की भावना ने उन्हें विभोर कर दिया। परन्तु वे किसी को अपना शिष्य नहीं बनाते थे। एक पल विचार करके वह बोले-बच्चे मैं तो किसी को अपना शिष्य नहीं बनाता हूँ। परन्तु तू रापर में खीम साहब के पास जा। वे तुझे गुरुमन्त्र देकर तेरा कल्याण करेंगे।

लेकिन बापू मैं तो अछूत हूँ, ढेड़ हूँ। कहते-कहते उसके चेहरे पर उदासी घनी हो गयी।

तो चिन्ता क्यों करता है, योगिराज ने उसे अपने सीने से चिपटाते हुए कहा - तेरी आत्मा ढेड़ नहीं है। परमात्मा जाति, वंश को नहीं, निश्छल अंतःकरण को प्यार करता है। तू तो महान सन्त बनेगा। जा अभी चला जा, खीम साहब से कहना कि मैंने तुझे भेजा है।

महात्मा जी के शब्द सुनकर भीकम की खुशी का ठिकाना न रहा वह खेत का काम वहीं छोड़कर रापर की ओर दौड़ पड़ा। रापर पहुंचकर उसने देखा सन्त श्री खीम साहेब नित्यकर्म से निवृत्त होकर उस समय रापर के समुद्री स्थान पर अपने आसन पर बैठे हुए हैं।

उनका उपदेश सुनने के लिए सैकड़ों भक्तजनों की भीड़ लगी हुई थी। इस भीड़ की चीरता हुआ वह आगे तक चला गया और खीम साहेब के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसकी देह पसीने से तरबतर हो रही थी, वह काँपते हुए उनके पैरों पर गिर पड़ा। वहाँ एकत्रित जनों ने उसे पहचान लिया कि वह तो अछूत है। वे सब भी उत्तेजित हो उठे। एक ने चिल्लाकर कहा - इसकी हिम्मत कैसे हुई इस समुद्री स्थान को अपवित्र करने की ? एक ने तो अपने होशोहवास खोकर गाँव में से अपनी खड़ाऊँ उतारकर उनके माथे पर दे मारी। भीकम भगत के माथे से खून बह चला। समुद्री स्थान की जमीन एक अछूत के खून से भीगते देखकर भक्तजन भड़क उठे थे। खीम साहेब ने तुरन्त सबको रोका।

भीकम के सिर में लगी चोट ने खीम साहेब के कोमल अंतःकरण को वेदना से आकुल कर दिया। उनके नेत्र भर आये। सारा वातावरण करुणार्द्र हो उठा। खीम साहेब ने अपनी धोती फाड़कर भीकम के माथे पर पट्टी बाँधते हुए आने का कारण पूछा।

“बापू, मैं मन्त्र दीक्षा लेने के लिए आया हूँ। मुझे कागनोरा वाले योगिराज ने आपके पास भेजा हैं।” भीकम ने हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया।

ऐसा ही होगा, कहकर खीम साहेब ने अपने दोनों हाथ उसके सिर पर रख दिए।

यह देखकर उपस्थित लोगों की आँखें फटी की फटी रह गयीं।

परन्तु, बापू, यह तो ढेड़ है, अछूत है। कई आवाजें एक साथ उठीं।

खीम साहेब हँस पड़ें, हाँ तुम्हारे समाज ने दम्भ में आकर इनसान को ऊँच-नीच, छूत-अछूत में बांटने का दम्भ जरूर किया है। लेकिन भगवान के यहाँ ऐसा कोई बँटवारा नहीं है। फिर इसकी आत्मा तो तुम सब लोगों की अपेक्षा अधिक पवित्र हैद्व अधिक निर्मल हैं।

अगले दिन खीम साहेब ने भीकम को दीक्षित करने की इच्छा माण साहेब के सामने व्यक्त की। माण साहेब संसारी रिश्ते से खीम साहेब के पिता थे। वे उच्चकोटि के अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न समर्थ महापुरुष थे। उन्होंने एक पल में भीकम की आन्तरिक स्थिति पहचान ली और उन्हें दीक्षा देने की अपनी सहमति दी दी।

विधिपूर्वक मन्त्र दीक्षा हो गयी। भीकम भगत अब भकीम साहेब हो गए। यह चर्चा सम्पूर्ण कच्छ-बागड़ में फैल गयी। कोई खुश हुआ, कोई नाराज। लेकिन माण साहेब एवं खीम साहेब के लिए गुजरात, काठियावाड़, तथा कच्छ की जनता के मन में बहुत आदर था। उनकी अवहेलना करने की कोई सोच भी नहीं सकता था। धीरे-धीरे विरोध शान्त हो गया। उनकी प्रसिद्धि एक सन्त के रूप में हो गयी।

एक दिन उन्होंने अपने दोनों गुरुओं के सामने हाथ जोड़कर चित्तौड़ धाम में अपना असान जमाने की स्वीकृति माँगी ताकि वे वहाँ की जनता में सद्ज्ञान एवं सद्भावनाओं का प्रसार कर सकें। गुरु उनकी सामर्थ्य से अवगत थे, सहज स्वीकृति मिल गयी।

भीकम साहेब ने चित्तौड़ में एक विशाल मढ़ी का निर्माण कराया और वहाँ वे सद्चिन्तन एवं सद्भावों की तरंगों को फैलाने लगे। दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन-सत्प्रवृत्ति सम्वर्द्धन का क्रम चल पड़ा। इसी बीच माण साहेब और खीम साहेब मोक्षधाम सिधार गये। भीकम साहेब की देह भी जरा- जीर्ण हो चली थी। उन्होंने ने अपने अनुयायियों से कहाँ था कि मेरे मृत शरीर को समुद्र स्थान में माण साहेब एवं खीम साहेब की समाधियों के बीच दफना दिया जाए।

और एक दिन उनकी आत्मा भी देह छोड़कर प्रभु के पास पहुँच गयी। जब रापर गाँव के लोगों को यह खबर मिली कि भीकम भगत की देह समुद्र स्थान में गाड़ी जाएगी, वह भी माण साहेब एवं खीम साहेब की समाधियों के बीच , तो एक प्रतिगामी समुद्र उत्तेजित हो उठा।

इतने में झंझ और शंख की ध्वनि सुनायी दी। भजनों की गूँज के साथ भीकम साहेब की पालकी चली आ रही थी। पालकी में भीकम साहेब ऐसे लग रहे थे, जैसे वे माला फिरा रहे हों। पालकी गाँव में प्रवेश करते ही लोग पत्थरों और लाठियों का प्रहार करने लगे। लेकिन आश्चर्य ! उछाले गए पत्थर फूलों में परिवर्तित हो रहे थे। इस दैवी चमत्कार ने सभी को नतमस्तक कर दिया। उन्हें मानने के लिए विवश होना पड़ा कि भेद-भाव मनुष्य निर्मित है। प्रभु का अनुशासन तो ‘जाति-वंश सब एक समान’ को ही स्वीकार करता है और सभी ने आदर के साथ भीकम साहेब की देह को माण साहेब और खीम साहेब की समाधियों के पास समाधि दे दी और यह स्थान मनुष्यता के लिए भेद-भाव दूर करने वाला तीर्थ हो गया। आज भी कच्छ के रापर गाँव में चैत्र शुक्ल द्वितीया को इसी रूप में मनाया जाता है।


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