सूर्य ध्यान में निरत था। उन्होंने प्रवास काल में कईयो से कई प्रकार की निन्दा सुनी। एक बोला- “अभागे को कभी छुट्टी नहीं मिलती।” दूसरे ने कही-”बेचारा, रोज जनरुता और रोज भरता है।” तीसरे ने कहा-”निर्जीव होते हुए भी आग उगलता है।” चौथे ने कहा-”किसी बड़े अपराध का दण्ड भुगत रहा है।”
सूर्य को इस कुसध्नता पर क्रोध आया और दूसरे दिन उगने से इनकार कर दिया।
सविता की पत्नी ने रूठने का कारण जाना, तो हँस पड़ी। ढेले की चोट से घड़े फूटते हैं, किन्तु समुद्र में गिरकर गर्त में विलीन हो जाते हैं। आप घड़े नहीं, समुद्र हैं, फिर ढेले की आदत और परिणति क्योँ नहीं समझते ?
अपनी भूल स्वीकार करते हुए, सूर्यनारायण ने यथाक्रम अपना रथ आगे बढ़ा दिया। सत्पुरुष न अशिष्टता बरतते हैं और न अशिष्टों के व्यवहार को महत्व देते हैं। तभी लक्ष्य पर बढ़ पाते हैं।