जरा जानें, क्या कहती है वेदवाणी?

July 1996

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शान्तिकुँज द्वारा परमपूज्य गुरुदेव द्वारा रचित समग्र आर्ष वाङ्मय (1959-60) को पुनः वैज्ञानिक प्रतिपादनों के साथ परम वंदनीया माताजी के प्रत्यक्ष व परोक्ष मार्गदर्शन में संपादित कर 1992-95 में सर्वप्रथम चार वेदों की आठ जिल्दों के रूप में जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया गया। उपनिषदों का संपादन गीता विश्वकोश के साथ-साथ चल रहा है। इस लेख में प्रस्तुत है वेदवाणी एवं यज्ञ का माहात्म्य।

वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। भारतीय धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता का भव्य प्रासाद जिस दृढ़ आधारशिला पर प्रतिष्ठित है, उसे वेद के नाम से जाना जाता है। भारतीय आचार-विचार, रहन-सहन तथा धर्म-कर्म का मूल तथा यथार्थ कर्तव्य की जिज्ञासा वाले लोगों के लिए ‘वेद’ सर्वश्रेष्ठ प्रमाण हैं।

‘वेदो डखिलो धर्ममूलम्’ ‘धर्मं जिज्ञासमानानाँ प्रमाणं परमं श्रुतिः’ (मनु0 2.6, 13) जैसे शास्त्रवचन इसी रहस्य का उद्घाटन करते हैं। वस्तुतः ‘वेद’ शाश्वत-यथार्थ ज्ञान राशि के समुच्चय हैं, जिसे साक्षात-कृतधर्मा ऋषियों ने अपने प्रातिभ चक्षु से देखा है- अनुभव किया है।

ऋषियों ने अपने मन या बुद्धि से कोई कल्पना न करके एक शाश्वत अपौरुषेय सत्य की, अपनी चेतना के उच्चतम स्तर पर अनुभूति की और उसे मंत्रों का रूप दिया । वे चेतना क्षेत्र की रहस्यमयी गुत्थियों को अपनी आत्मसत्ता रूपी प्रयोगशाला में सुलझाकर सत्य का अनुशीलन करके उसे शक्तिशाली काव्य के रूप में अभिव्यक्त करते रहे हैं। वेद स्वयं इनके बारे में कहता हैं- “सत्यश्रुतः कवयो” (ऋ॰ 5.57.8) अर्थात् “दिव्य शाश्वत सत्य का श्रवण करने वाले द्रष्टा महापुरुष।”

इसी आधार पर वेदों को ‘श्रुति’ कहकर पुकारा गया। यदि श्रुति का भावात्मक अर्थ लिया जाय, तो वह है स्वयं साक्षात्कार किये गये ज्ञान का भाण्डागार। इस तरह समस्त धर्मों के मूल के रूप में माना जाने वाले, देव संस्कृति के रत्न-वेद हमारे समक्ष ज्ञान के एक पवित्र कोष के रूप में आते हैं। ईश्वरीय प्रेरणा से अन्तःस्फुरणा (इलहाम) के रूप में ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की भावना से सराबोर ऋषियों द्वारा उनका अवतरण सृष्टि के आदिकाल में हुआ।

वेदों की ऋचाओं में निहित ज्ञान अनन्त है तथा उनकी शिक्षाओं में मानव-मात्र ही नहीं, वरन् समस्त सृष्टि के जीवधारियों, घटकों के कल्याण एवं सुख की भावना निहित है। उसी का वे उपदेश करते हैं। इस प्रकार वे किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष को दृष्टिगत रख अपनी बात नहीं कहते। उनकी शिक्षा में छिपे मूल तत्व अपरिवर्तनीय हैं, हर काल-समय-परिस्थिति में वे लागू होते हैं तथा आज की परिस्थितियों में भी पूर्णतः व्यावहारिक एवं विशुद्ध विज्ञानसम्मत है।

भारतीय परम्परा ‘वेद’ के सर्व ज्ञानमय होने की घोषणा करती है- “भूतं भव्यं भविष्यश्च सर्व वेदात् प्रसिध्यति।” (मनु0 12.17) अर्थात् भूत, वर्तमान और भविष्यत् सम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञान का आधार वेद है।

वेद मंत्रों में पराचेतना के गूढ़ अनुशासनों का समावेश है। शब्दार्थ और व्याकरण आदि तो उसके कलेवर मात्र हैं। वे मंत्रों के भाव समझने में सहायक तो होते हैं, किन्तु केवल उन्हीं के सहारे गूढ़ तत्वों को समझा जाना संभव नहीं । स्वयं वेद में इस तथ्य को प्रकट किया गया है। जैसे- ऋग्वेद 1.164.39 में कहा गया है- “ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यास्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।” अर्थात् ऋचाएँ परम व्योम में रहती हैं, जिसका देवत्व अपरिवर्तनीय है। आगे कहा गया है- “वस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति” जो उस अपरिवर्तनीय सत्य को नहीं समझता, उसके लिए मात्र ऋचा क्या करेगी ? यह कथन उसी तरह सत्य है, जिस प्रकार यह कथन कि ‘जो संगीत का ज्ञात नहीं, उसके लिए मात्र बाँसुरी क्या करेगी ?’ इसी प्रकार भाषा की सीमा बतलाते हुए ऋ॰ 10.71.1 में कहा गया है- बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधानाः। यदेषाँ श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत

प्रेणा तदेषाँ निहितं गुहाविः॥ हे बृहस्पते! सर्वप्रथम पदार्थों के नाम आदि का भाषा ज्ञान प्राप्त होता है। यह वाणी का प्रथम सोपान है। ज्ञान का जो दोष रहित- श्रेष्ठ-शुद्ध स्वरूप है, वह गुफा में छिपा है, जो दिव्य प्रेरणा से प्रकट होता है।

भाषा ज्ञान वाणी का प्रथम सोपान है। उससे प्रेरित होकर पदार्थों को देखा-पहचाना जा सकता है, किन्तु विचारों और भावनाओं की गहराई (गुफा) तक पहुँचने के लिए तो विशेष अन्तःस्फुरणा आवश्यक होती है। यदि किसी प्रभावशाली राग की सरगम (स्वरलिपि) लिख दी जाय, तो उससे राग को समझने में सहायता तो मिलेगी, किन्तु संगीत- निपुण व्यक्ति के निर्देशन में साधना करके ही उसे पाया जा सकता है।

वेदवाणी के संदर्भ में भी ऋषियों का यही मत है- यज्ञेन वाचः पदवीयमायन् तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्। तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा ताँ सप्त रेभा अभि सं नवन्ते (ऋ॰ 10.71.3) ज्ञानी लोग श्रेष्ठ वाणी को यज्ञ से ही प्राप्त करते हैं। उन्होंने तत्वज्ञानी ऋषियों के अन्तःकरण में प्रविष्ट वाणी को प्राप्त करके उस ज्ञान को संपूर्ण विश्व में प्रसारित किया। इसी वाणी (दिव्य ज्ञान) को सात छन्दों में, स्तुति रूप में प्रस्तुत किया। “वेद वाणी को यज्ञ के माध्यम से पाया गया।” यह वाक्य गूढ़ार्थक है।

यज्ञ-यजन का अर्थ है- देव-पूजन, संगतिकरण, दान...........। विद्या के विशेषज्ञ, दाता, देवता का पूजन श्रद्धायुक्त अनुगमन पहली शर्त है। उसके निर्देशानुसार स्वयं साधना-अभ्यास रूप में संगतिकरण करके ही व्यक्ति विद्याविद् बनता है। इससे कम में किसी विशेषज्ञ के अन्तःकरण में संचित अनुभवजन्य विद्या को प्राप्त करना संभव नहीं है। इतना करके ही कोई व्यक्ति दान रूप में विद्या का विस्तार करके उसे सार्थक बना सकता है।

वेद एवं यज्ञ का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। यज्ञ का कर्मकाण्ड पक्ष ही लें, तो भी देव पूजन के क्रम में ऋग्वेद के मन्त्रों से स्तुतियाँ करने, यजुर्वेद के मंत्रों से यजन प्रयोग करने, सामगान द्वारा यज्ञीय उल्लास को संवर्धित और प्रसारित करने तथा अथर्ववेद से स्थूल-सूक्ष्म परिष्कार की वैज्ञानिक प्रक्रिया चलाने की मान्यता सर्वविदित है। यदि यज्ञ का विराट् यज्ञ द्वारा ही सृष्टि का निर्माण हुआ तथा उसी से उसके पोषण का चक्र चल रहा है। उसी विराट् यज्ञीय प्रक्रिया के अंतर्गत सृष्टि के संचालन एवं पोषण के लिए उत्कृष्ट ज्ञान-वेद का प्रकटीकरण हुआ। यथा- ततो विरालजायत विराजो अधिपूरुषः। सजातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथों पुरः (ऋ॰ 10.90.5) अर्थात्- उस विराट् पुरुष से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। उसी से समस्त जीव प्रकट हुए। देहधारियों के रूप में वही श्रेष्ठ पुरुष स्थित है। उसने पहले पृथ्वी और फिर प्राणियों को उत्पन्न किया। तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतडऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दाँसि जज्ञिरे तसमाद्यजुस्तमादजायत (ऋ॰ 1.90.9) उस विराट् यज्ञ पुरुष से ऋग् एवं साम का प्रकटीकरण हुआ। उसी से छन्दों की और यजुः एवं अथर्व की उत्पत्ति हुई।

वेद यज्ञीय प्रक्रिया से प्रकट हुए हैं और यज्ञीय अनुशासन में जीवन को गतिशील बनाने के लिए हैं। वेद मंत्र परा-चेतन और प्रकृतिगत गूढ़ अनुशासनों, रहस्यों का बोध कराते हैं। उन्हें समझकर ही प्रकृतिगत चेतन प्रवाहों तथा स्थूल-पदार्थों का प्रगतिशील एवं कल्याणकारी प्रयोग किया जाना सम्भव है, जैसे अग्नि या विद्युत् के स्वाभाविक गुण-धर्मों को समझे बिना व्यक्ति उनका उपयोग भली प्रकार नहीं कर सकता। अग्नि को धारण करने के लिए प्रज्ज्वलन शील (नाँनइन्फ्लेमेबिल) पदार्थ ही चाहिए तथा उसे प्रज्ज्वलित रखने के लिए ज्वलनशील (इन्फ्लेमेबिल) पदार्थों की ही संगति बिठानी पड़ेगी। विद्युत् को इच्छित उपकरणों तक ले जाने के लिए विद्युत सुचालक (इलेक्ट्रिकल कंडर्क्टस) तथा फैलकर नष्ट हो जाने से बचाने के लिए विद्युत् कुचालक (इलेक्ट्रिकल इन्सुलेटर्स) का व्यवस्थित क्रम बिठाना अनिवार्य है। जो व्यक्ति विद्युत् एवं पदार्थों का गुणधर्म ही नहीं समझता, वह कैसे विद्युत् तंत्र (इलेक्ट्रिकल नेटवर्क) स्थापित कर सकता है ?

अस्तु, वेद ने प्रकृति के गूढ़ तत्वों को प्रकट करते हुए कहा है कि ये प्रवाह एवं पदार्थ यज्ञार्थ हैं, इन्हें यज्ञीय अनुशासनों में प्रयुक्त करने से सत्पुरुष, देवों के समान ही स्वर्गीय परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकते हैं। इसी यज्ञीय आचरण प्रणाली को उन्होंने यज्ञीय आचरण प्रणाली को उन्होंने यज्ञ कहा- यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याःसन्ति देवाः। (ऋ॰ 10.90.16) “देवों ने यज्ञ (प्रक्रिया) से या (विराट् पुरुष जिनका धर्मकृत्यों में प्रथम स्थान है) का यजन किया। (जो सत्पुरुष) इस पूर्व प्रयुक्त प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं, वे देवों के आवास स्वर्ग के अधिकारी बनते हैं।” उक्त संदर्भों से स्पष्ट होता है कि वेदोक्ति ‘यज्ञ’ मात्र अग्निहोत्र परक कर्मकाण्ड ही नहीं है, वह स्रष्टा के अनुशासन में भावना, विचारणा, पदार्थ एवं क्रिया के संयोग से उत्पन्न होने वाला एक अद्भुत पुरुषार्थ है। वेद में इसके अनेक रूप परिलक्षित होते हैं-

पहला यज्ञ, पराचेतन (विराट् पुरुष या ब्रह्म) के संकल्प से सृष्टि के उद्भव के रूप में दिखाई देता है।

दूसरा स्वरूप यज्ञ का वह है, जिसके अंतर्गत उत्पन्न स्थूल एवं सूक्ष्म तत्व, अनुशासन विशेष का अनुपालन करते हुए सृष्टि चक्र को सतत् प्रवाहमान बनाये हुए हैं।

यज्ञ का तीसरा स्वरूप यह है कि जिस क्रम में प्राणिजगत प्रकृति के प्रवाहों को आत्मसात् करते हुए उत्पन्न ऊर्जा से स्वधर्मरत रहता है और प्रकृतिगत यज्ञीय प्रवाहों को अस्त-व्यस्त नहीं होने देता ।

मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले कर्मकाण्ड युक्त देवयज्ञ उस वैज्ञानिक प्रक्रिया के अंग हैं, जिसके अंतर्गत मनुष्य प्रकृति के पोषक प्रवाहों को पुष्टि प्रदान करने का प्रयास करता है। यह यज्ञ का चौथा स्वरूप है।

वेदों द्वारा निर्दिष्ट यज्ञीय जीवन शैली अपनाकर मनुष्य परमपिता के प्रतिनिधि के रूप में अपनी स्थूल एवं सूक्ष्म सामर्थ्यों के यज्ञीय सुनियोजन से भूमण्डल पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सका है। वेदवाणी के मर्म को यदि हम समझ सकें तो आत्मिकी के उस वैभव को करतलगत कर सकते हैं, जिसे शास्त्रों में मनुष्य का परम पुरुषार्थ कहा गया है। वेदों की अपौरुषेय वाणी यज्ञ माहात्म्य की चर्चा जिस वैज्ञानिकता से करती है उससे हमें हमारे साँस्कृतिक अतीत के गौरवमय स्वरूप की जानकारी मिलती है। काश आज के तथाकथित बुद्धिजीवी इसे समझ पाते।


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