अनुयाज पुनर्गठन-1 विशेष लेखमाला-6 - स्वाध्याय-मनन-चिन्तन का व्यावहारिक स्वरूप

July 1996

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विगत अप्रैल माह से अनुयाज - पुनर्गठन के अंतर्गत लिये गए चौदह कार्यक्रमों के अंतर्गत “स्वाध्याय-मनन-चिन्तन” के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक प्रतिपादन को प्रस्तुत किया जा रहा है। मनोविज्ञान कहता है कि मन को नये ढाँचे में ढालने के लिए अभ्यस्त स्थिति से उबार कर नये सिरे से प्रशिक्षित करना पड़ता है। इसी तकनीक को विस्तृत विवेचन द्वारा विगत चार माह से समझाया जा रहा है। एक बार आत्मसात् कर लेने पर यह कितना सरल व चित्त को सुसंस्कारिता से ओत-प्रोत कर लेने वाला बन सकेगा, यह पाठक स्वयं देखेंगे।

हाड़-माँस का बना मनुष्य वस्तुतः विचारों एवं विश्वासों का बना होता है, शरीर तो सभी के प्रायः एक जैसे होते हैं , किन्तु व्यक्तियों में आकाश-पाताल का अन्तर होता है। यह अन्तर मानसिक एवं भावनात्मक स्थितियों की भिन्नता के कारण अर्थात् व दृष्टिकोण की, श्रद्धा व विश्वास की भिन्नता के कारण आता है। अतः श्रेष्ठ व्यक्तियों का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हमारी आस्था और मान्यता, हमारे मन का रुझान और आकाँक्षा परिष्कृत हो। इसके लिये हमें दो उपाय करने होंगे। (1) हीन श्रेणी के विचारों को हटाकर मनोभूमि को साफ करना होगा तथा (2) उन्नत श्रेणी के विचारों से तालमेल रखने वाली आकाँक्षा और रुचि को जगाकर मनोभूमि को उत्कृष्ट बनाना होगा। स्वाध्याय-मनन-चिन्तन इन कार्यों को भली प्रकार कर सकते हैं, इस दृष्टि से व अब हमारी जीवनचर्या का अनिवार्य अंश बन जाने चाहिए।

स्वाध्याय के अनेक प्रकारों की चर्चा पहले की जा चुकी है। इनमें से सत्साहित्य द्वारा स्वाध्याय अधिक सरल व सुलभ है। यह सदैव ध्यान देने योग्य बात है कि स्वाध्याय-त्रिवेणी के लिए उपयुक्त सत्साहित्य वही है। जो विज्ञानसम्मत ढंग से हमारी जिज्ञासाओं का समाधान कर सके तथा जीवन जीने की कला सिखा सके। ऐसे सत्साहित्य के माध्यम से स्वाध्याय-मनन-चिन्तन करने से ही श्रेष्ठ जीवन जीने की आकाँक्षा जागती है। आस्था और मान्यता में सुधार होता है, तो उस दिशा में में प्रयास भी होने लगते हैं। अतः इन तीन प्रक्रियाओं को एक बार फिर समझ लेना चाहिए।

स्वाध्याय

आदर्श स्थिति से अपने वर्तमान जीवन व्यवहारों की तुलना करना सिखाता है और अपनी श्रेष्ठताओं व दोषों को खोजने की विद्या में प्रवीण बनता है।

मनन

इन जीवन-व्यवहारों का कारण अन्तस् में बैठी मनोवृत्तियाँ और भावनाएँ। हैं, कामनाएँ और आकाँक्षाएँ हैं। मनन इन्हें खोजता है। अपने जीवन पर इनके कौन-कौन से अच्छे बुरे प्रभाव पड़ रहे हैं, इस पर व्यावहारिक रूप से विचार करता है।

चिन्तन

मनन ने जो श्रेष्ठताएं खोजी हैं, उन्हें कैसे बढ़ाया जा सकता है, जो विकारग्रस्त मनोवृत्तियाँ व कुसंस्कार खोजे हैं, उन्हें हटाने के लिए ऐसे कौन से उपाय करने चाहिए जो अपनी क्षमता में हैं- यह ‘चिन्तन’ है। कुल मिलाकर वर्तमान जीवन व्यवहारों को अधिक अच्छा बनाने के लिए चिन्तन लगातार व्यवहारिक योजनाएँ बनाता रहता है।

यद्यपि भली प्रकार समझने की दृष्टि से इन तीनों की अलग-अलग एवं विस्तारपूर्वक विवेचनाएँ पूर्व में की गई हैं, तथापि यह तीन प्रक्रियाएँ आपस में इतनी घुली-मिली है कि उनके बीच विभाजन की स्पष्ट रेखाएँ नहीं खींची जा सकतीं। इसकी आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि कोई भी एक प्रक्रिया अन्य दो के बिना अर्थहीन ही है। अतः स्वाध्याय-मनन-चिन्तन तीनों को एक साथ सम्पन्न किया जाना चाहिए। अपनी महत्ता के कारण स्वाध्याय-त्रिवेणी- भजन-उपासना के समकक्ष पुण्य फलदायक साधना मानी जाती है। यह विचारों के सामान्यतः निम्न प्रवाह को उत्कृष्टता की ओर मोड़ देती है। इस स्थिति में जप ध्यान भी श्रेष्ठ स्तर के बन पड़ते हैं। अतः आश्वमेधिक अनुयाज में इसे जप से पहले सम्पन्न करने की अनुशंसा की गई है। प्रतिदिन आधा से एक घण्टा इन श्रेष्ठ प्रक्रियाओं में लगाना चाहिए, किन्तु ज पके पूर्व दस मिनट का समय ही पर्याप्त है। दिन में कभी भी अपनी सुविधानुसार शेष स्वाध्याय-त्रिवेणी सम्पन्न की जा सकती है।

अगली पंक्तियों में स्वाध्याय- मनन- चिन्तन प्रक्रिया का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है। मूल बिन्दुओं को ध्यान में रखकर अपनी रुचि तथा पूर्व अभ्यास के अनुसार इसमें साधारण हेर-फेर किया जा सकता है।

(1) सत्साहित्य के प्रति धर्म ग्रन्थ के समान आदरभाव रखते हुए उसे उत्तम स्थान पर तथा स्वच्छ सुरक्षित रखा जाय। “ श्रेष्ठ जीवन जीना ही मेरी आकाँक्षा है, एकमात्र इच्छा है”, इस श्रद्धा भावना के साथ सत्साहित्य का अध्ययन किया जाय।

(2) अध्ययन- धीमी गति से एवं समझ कर पढ़ा जाय । जो समझ में न आए उसे बार-बार पढ़ा जाय। केवल दो मिनट की पढ़ा जाय। कम पढ़कर सत्साहित्य यथास्थान रखने का क्रम अवश्य बनाना चाहिए।

(3) जितना पढ़ा है उसका सार संक्षेप मन ही मन दुहरा लेना अध्ययन को स्थायित्व देती है।

(4) विचार विस्तार- जो पढ़ा है वह आदर्श स्थिति है। अतः शांतचित्त से उसका विचार करना एवं अपनी बुद्धि से उसका विस्तार करना यह प्रक्रिया की विचार विस्तार है। ऐसा करने से उसका महत्व समझ में आएगा। उदाहरणार्थ , “शरीर को” भगवान का मंदिर समझ कर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे। “ सत्संकल्प के इस आदर्श पर विचार एवं विस्तार का एक प्रकार यह हो सकता है कि “मेरे इस शरीर में परमात्मा के अंश आत्मा का साक्षात् निवास है। सूर्य व चन्द्र आँखों की , अग्निदेव उदर की तथा मरुत व वरुण देव सम्पूर्ण शरीर की दिन रात सेवा कर रहे हैं। दमकते हुए शक्ति बीज अपने-अपने स्थानों पर कर्तव्यरत है। ऐसा गरिमावान मेरा शरीर सचमुच परमात्मा का चेतन मंदिर है। मंदिर है तो इसे स्वच्छ व सुदृढ़ बनाये रखना चाहिए। सुदृढ़ रखना हो तो संयम बरतना चाहिए, जीवनचर्या में नियमितता को सर्वोपरि स्थान देना चाहिए। .................. इत्यादि, इत्यादि।”

(5) स्वास्थ- स्वाध्याय के लिये, इस आदर्श स्थिति की तुलना में मैंने अपने बीते तथा वर्तमान जीवन व्यवहारों का निष्पक्ष अवलोकन किया। “मेरी जीवनचर्या में संयम की वृति एवं कार्यों में नियमितता है या नहीं ?” निष्कर्ष सामने आया है तो किन्तु कभी-कभी वे टूट भी जाते हैं। कभी ऐसा विचार उठा भी नहीं कि इन्हें टूटने नहीं देना चाहिए। फिर भी यह ईश्वरीय सत्ता की अनुकम्पा तथा गुरुसत्ता की प्रेरणा ही है कि भले ही वे थोड़ी मात्रा में हों, पर आज के इस उच्छृंखल वातावरण में भी यह श्रेष्ठ गुण मुझसे जुड़े हुए हैं। इनकी थोड़ी सी उपस्थिति से भी मेरा जीवन कितना संतोषजनक व सुव्यवस्थित बन गया है। इस अनुग्रह के लिए उनके प्रति मेरा कृतज्ञतापूर्वक नमन प्रस्तुत है।”

(6) मनन- स्वाध्याय ने संयम वृत्ति व नियमितता के कच्चेपन को भी स्पष्ट किया। मैंने अपनी यह दुर्बलता स्वीकार कर ली। इन्हें परिपक्व स्थिति में लाने के लिए मैंने मनन प्रारम्भ किया। मन को टटोला तो समझ में आया कि सुस्वादु भोजनों और आकर्षक किन्तु हेय मनोरंजनों का लोभ संयम वृत्ति को ढीला कर देता है, फलस्वरूप नियमितता का संकल्प भी टूट जाता है । अतः इस लोभ का शमन करना व संयम वृत्ति को स्थिर बनाना होगा। इसके लिए मैंने भाव क्षेत्र हृदय में झाँकने का प्रयास किया। संयम टूटने पर हृदय पर क्या प्रतिक्रिया होती है ? यह खोजने की चेष्टा की । मैंने पाया कि जब-जब संयम वृत्ति टूटती है तब हृदय अपनी प्रतिक्रिया को पश्चाताप और ग्लानि के रूप में अभिव्यक्त करता है। इसका अर्थ है कि हृदय में अभी भी श्रेष्ठ जीवन जीने की आकाँक्षा को तीव्र करना चाहिए। जैसे-जैसे यह आकाँक्षा प्रबल होती जाएगी, संयम वृत्ति भी उतनी ही बलवती होती जाएगी। फलस्वरूप जीवन में नियमितता भी स्वयमेव आने लगेगी। इस हृदयगत आकाँक्षा को तीव्र करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए ?

(7) चिन्तन- मनन, ‘चिन्तन’ में बदल गया। नियमितता से संबंधित अन्य श्रेष्ठ कार्य क्या हो सकते हैं ? संयम वृत्ति से संबंधित अन्य श्रेष्ठ विचारणाएं क्या हो सकती है, जो इस आकाँक्षा को तीव्र करने में सहायक सिद्ध हो सके ? इन व्यावहारिक उपायों को ऐसे प्रस्तुत किया जा सकता है-

(7.1) अपने भीतर थोड़ी-बहुत जितनी भी संयम वृत्ति है उसके लिए अपने इष्टदेव व गुरुदेव को नित्य नमन करना चाहिए। इससे संयम वृति को और विकसित करने का उत्साह बढ़ेगा।

(7.2) ऐसे पद, छन्द, श्लोक, दोहा, सूक्तियाँ आदि कंठस्थ करने चाहिए जो काम , क्रोध , लोभ आदि विकारों पर संयम बरतने की प्रेरणा दें। इन्हें यदा-कदा गुनगुनाते रहना भी श्रेयस्कर है। ऐसा करने से अर्धचेतन मन पहरेदार का कार्य कर परोक्ष रूप से सहायता करता रहेगा।

(7.3) महापुरुषों के जीवन व्रत का गहराई से नित्य अध्ययन करना चाहिए। इससे उच्च आकाँक्षाओं को बल मिलेगा।

(7.4) भोजन, शयन आदि पारिवारिक नियमों व मर्यादाओं का कड़ाई से पालन करना होगा, इससे हमारे जीवन में अनुशासन का समावेश होगा जो संयम वृत्ति को मजबूत करता है।

(7.5) नियमित व्यायाम प्रारम्भ करना चाहिए। इससे ब्रह्मचर्य भावना का विकास होगा, फिर संयम वृत्ति को भी पर्याप्त पोषण मिलने लगेगा। नियमितता का अभ्यास भी होता जाएगा।

विचार क्रान्ति अभियान संबंधी सम्पूर्ण सत्साहित्य में ‘हमारा युग निर्माण सत्संकल्प’ श्रेष्ठतम है। जप के पूर्व इसका एक बार ध्यानपूर्वक पाठ करने के बाद एक सत्संकल्प पर विचार, विस्तार तथा स्वाध्याय -मनन-चिन्तन करना चाहिए। पहले षट्कर्म सम्पन्न करने के बाद संक्षिप्त स्वाध्याय आदि प्रक्रिया में दस मिनट समय लगाना उपयुक्त होगा। उसके बाद जप करने से विचारों की दिशा श्रेष्ठता की ओर मुड़ जाएगी तो जप-ध्यान आदि भी क्रमशः उच्च स्तर के होते जायेंगे।

चिन्तन प्रक्रिया में उपयोगी कुछ व्यावहारिक सुझाव इन बिन्दुओं से स्पष्ट होते हैं। इन्हें दुहरा लेना चाहिए।

(1) श्लोक-छन्द-चौपाई गीत आदि के ऐसे अंश कंठस्थ कर लेने चाहिए जो श्रेष्ठताओं की प्रेरणा देते हैं, स्वयं को भी अच्छे लगते हों।

(2) प्रभुसत्ता, गुरुसत्ता अथवा किसी अन्य व्यक्ति के प्रति अपनी श्रद्धा प्रीति का स्मरण करना चाहिए और ‘उन्हीं प्रसन्नता’ के लिए मुझे यह करना (अथवा नहीं करना ) चाहिए’ इस भाव को जाग्रत करना श्रेयस्कर है।

(3) पवित्र वस्तुओं जैसे यज्ञोपवीत, गंगाजल, धर्मग्रन्थ आदि का श्रद्धापूर्वक स्पर्श व नमन करते हुए अपने संकल्पों का स्मरण करना चाहिए।

(4) लोभ-स्वार्थ-संकीर्णता आदि को निर्मूल करने के लिये विनम्र भाव से अन्नदान, अर्थदान ज्ञानदान करना कराने चाहिए। उस समय ‘प्रभु इच्छा का पालन कर रहे हैं।’ इस भाव को अपने भीतर उभारना चाहिए।

(5) कोई भी सेवा कार्य करते समय विनम्रता, सहयोग भावना , सहानुभूति व करुणा जैसे श्रेष्ठ, सहायक गुण अपने अन्तःकरण में जाग्रत कर लेना चाहिए।

यह सभी उपाय दोषों को दूर करने तथा श्रेष्ठताओं को बढ़ाने के दोनों उद्देश्यों में समान रूप से उपयोगी हैं। अपने विवेक से अन्य अनेक उपाय स्वयं भी निर्मित किये जा सकते हैं। किस परिस्थिति में, किस मनःस्थिति में कौन सा उपाय अपने को प्रभावित कर सकेगा ? इस पर पहले ही विचार कर लेना चाहिए। प्रयोग के बाद यदि यह अनुभव हो कि इस उपाय का अपने पर प्रभाव नहीं पड़ा अथवा कम पड़ा तो अगली बार के लिए दूसरा अधिक उपयुक्त उपाय चुनकर तैयार रखना चाहिए। पुनः असफल हो जाएँ तो भी निराशा को पास फटकने नहीं दें क्योंकि अच्छाई-बुराई के इस देवासुर संग्राम में आवश्यक नहीं कि एक-दो बार के प्रयासों से दोष-दुर्गुण का असुर नष्ट हो जाय या भाग जाय। फिर हमारे सत्संकल्प का आश्वासन भी तो हमारे साथ है कि “ईश्वर मनुष्य का मूल्याँकन उसकी असफलताओं के आधार पर नहीं, उसके सद्भावों और सत्प्रयासों के आधार पर करता है।” अतः प्रसन्नता और उत्साह बनाए रखकर अपने सत्प्रयास जारी रखना चाहिए।


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