विवेक पर टिका है सफल दाम्पत्य

July 1996

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विवाह के पावन सूत्र दो आत्माओं को परस्पर एकाकार कर देते हैं। उनका यह मिलन सदैव सुखदायक बना रहे। प्रेम का यह पादप निरन्तर पल्लवित-पुष्पित होता रहे, दाम्पत्य सुख की सरिता अपना आकार विस्तृत करती रहे यह असम्भव नहीं है। विवेकशीलता से काम लिया जाय तो यह सुख-सौभाग्य सहज पाया जा सकता है। यह सौभाग्य जिसने पा लिया वह पारिवारिक तथा सामाजिक दायित्वों का भार सहज ही वहन कर सकता है।

पति-पत्नी का प्रेम बरसाती नाले के समान अल्पकालीन नहीं, सदा बहने वाली नदी की तरह स्थायी होता है। नदी जब पर्वतों से निकलती है तो क्षीणकाय तथा तीव्रगामिनी होती है। मार्ग की चट्टानों से टकराती हुई, शोर करती हुई आती है। उसमें जल कम और प्रवाह अधिक होता है। वाह के आरम्भिक दिनों में पति-पत्नी के प्रेम की यही स्थिति होता है। उसमें भावुकता का प्रवाह अधिक तथा विवेकशीलता का जल कम होता है। जो पति-पत्नी केवल भावुकता का प्रवाह भर होते हैं, वे बरसती नाले की तरह शीघ्र ही सूख जाते हैं। जहाँ विवेक का जल होता है वे निरन्तर आगे बढ़ते हुए अपने कलेवर को बढ़ाते चलते हैं।

रूप, यौवन का आकर्षण अधिक दिनों तक पति-पत्नी को बाँधकर नहीं रख सकता। रूप की अपनी कोई मर्यादा नहीं है। यह मनुष्य के मन की उपज मात्र है। एक अफ्रीकी हब्शी के लिए काला रंग, मोटे होठ तथा चपटी नाक सुन्दरता की निशानी ।एक अमेरिका निवासी गोरे व्यक्ति के लिये यह सब कुरूपता का मानदण्ड हो जाता है। चीन में छोटे पाँव अशुभ माने जाते हैं। हमारे देश में काले कमर तक लहराते बाल सुन्दर माने जाते तो इंग्लैण्ड में भूरे छोटे-छोटे गर्दन तक लम्बे।

रूप स्थायी भी तो नहीं होता आयु के साथ ढल जाता है। अस्वस्थ होने पर बिगड़ जाता है। जो रूप को देखते हैं वे उसके समाप्त होने पर कैसे अपने जीवन साथी को प्यार कर सकेंगे ?

रूप देखना ही हैं तो मानसिक सौंदर्य में देखना चाहिए। सच्चा परिचय तो मानसिक ही होना चाहिए। यही प्रेम का आधार होता है, इसे बढ़ाया जा सकता है - सद्विचारों से, सद्गुणों से तथा सत्कर्मों से मानसिक सौंदर्य को बढ़ाते रहने से व्यक्तित्व में निखार आता है। यह निखार परस्पर प्रीति बढ़ाने में पर्याप्त होता है।

यौनसक्ति भी दाम्पत्य प्रेम का आधार नहीं हो सकती। स्त्री-पुरुष का शारीरिक अन्तर मात्र आकर्षण का केन्द्र नहीं होता। शरीर के पीछे मन भी लगा होता है। पुरुष कठोर, परिश्रमी, बुद्धि प्रधान होता है। स्त्री कोमल, सहनशील तथा भावना प्रधान होतीं हैं। यही अन्तर स्थूल रूप से शरीर की आकृति में भी स्पष्ट होता है।

आजकल यह भ्रान्ति बुरी तरह फैल रही है कि पति-पत्नी के प्रेम को स्थायी रखने के लिये शारीरिक समानता का रूप-रंग-गठन आदि का समान होता आवश्यक है। यह नितान्त भ्रामक है। मिलन तो उनके गुणों का होना चाहिए। पति अपनी पत्नी से सहनशीलता तथा भावनाओं का अनुदान प्राप्त करता है। पत्नी अपने पति के शारीरिक श्रम तथा बुद्धिवादिता का लाभ उठाती है। परस्पर एक-दूसरे के पूरक बनकर पूर्णत्व की प्राप्ति करना ही इस विभिन्नता का परिणाम है।

शारीरिक संसर्ग की अपनी मर्यादाएँ हैं। इन मर्यादाओं को तोड़ने पर स्वास्थ्य हानि तथा मानसिक दुर्बलता का शिकार होना पड़ता है। प्रकृति ने स्त्री-पुरुष के संसर्ग में जो अनूठा स्पर्श सुख का सृजन किया है। उसके पीछे एक ही कारण है कि इससे आकर्षित होकर व्यक्ति सृष्टि क्रम को चालू रखे - संतानोत्पादन करे। इस सुख की अनुभूति भी मर्यादित रहने में ही होती है। इस रहस्य पर आवरण पड़ा करता है। तभी तक सुख है। शारीरिक संसर्ग से जितना बचा जाय तथा मानसिक अनुदान जितना अधिक ग्रहण किया जाय उतना ही पारस्परिक प्रेम बढ़ता है।

स्त्री - पुरुष का भेद प्रकृति ने जितना नहीं बनाया है। उतना मनुष्यों ने उसे बना दिया है। जिस प्रकार दो पुरुष परस्पर सहयोगी, भाई, मित्र, परिजन आदि होते हैं उनमें परस्पर प्रेम होता है। यह प्रेम उच्च कोटि का भी हो सकता है। भाई-भाई के लिये सब कुछ त्याग सकता है। मित्र अपने मित्र के लिये प्राण विसर्जन करने से भी नहीं हिचकिचाता। ऐसे उदाहरण भी देखने को मिलते हैं। महिलाओं में भी अपने आपस में ऐसा ही प्रेम देखा जा सकता है।

लिंगभेद की यह धारणा मिटा दी जाय तथा पति-पत्नी एक-दूसरे को अपना, साथी, सहयोगी के रूप में स्वीकार करके आपस में वैसा ही प्रेम करें, तो यह प्रेम की बेल जीवन भर बढ़ता रह सकती है। शारीरिक भेद को भुलाकर किया गया यह प्रेम ही सच्चा दाम्पत्य प्रेम होता है।

सदियों से मन-मस्तिष्क में बैठी यह भावना नहीं मिट सके तो भी पत्नी को ‘रमणी’ स्वरूप में देखना हितकर नहीं होता। सम्बन्धों में जितना शारीरिक लगाव कम होता है प्रेम उतना ही प्रगाढ़ होता है। माता-पुत्र, पिता-पुत्री, भाई-बहिन आदि का प्रेम शारीरिक लगावों से रहित होने के कारण पवित्र कहलाता है यथा चिरस्थायी होता है।

पत्नी भी दिन भर माता, भगिनी की तरह ही सेवा करती है, प्रेम करती है। पति भी दिन भर पिता की तरह जी तोड़ कर श्रम करता है, अच्छी-अच्छी वस्तुएँ जुटाता है। यह पवित्रता जितनी अधिक बनी रहेगी उतना ही दाम्पत्य चिरस्थायी तथा आह्लादकारी बना रहेगा। ‘कामिनी’ के रूप में पत्नी महत्व देना पाशविक ही कहा जा सकता है। पाशविक प्रेम में स्थायित्व की आशा व्यर्थ होती है।

जीवनसाथी का चुनाव स्वयं ने किया हो अथवा अभिभावकों ने उससे कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। दाम्पत्य जीवन की सफलता तथा परस्पर प्रेम का विकास करने का दायित्व दोनों पर होता है।

विवाह के पश्चात् दोनों के सुख-दुःख एक हो जाते हैं हमारे देश में पुरुषों का काम उपार्जन तथा स्त्री का काम गृह-संचालन माना जाता है। यह कार्य विभाजन शारीरिक - मानसिक क्षमताओं को दृष्टिगत रख कर किया गया है। यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक दम्पत्ति इसका पालन करें। एक - दूसरे की सुख-सुविधा को ध्यान में रखते हुए इसमें परिवर्तन भी किया जा सकता है। इसमें एक दूसरे का सहयोग भी रहना चाहिएं। इस प्रकार का सहयोग प्रेम में वृद्धि करता है। पति - पत्नी के घर के कामों में हाथ बँटा दें तो उसे परम सुख मिलता है। इसी प्रकार पत्नी, पति के व्यापारादि कर्मों में सहयोग, परामर्श दे सकती है।

पति-पत्नी को एक-दूसरे का यथार्थ रूप लेकर चला आवश्यक है। मनुष्य में गुण - दोष होने स्वाभाविक हैं। गुणों में एकदम वृद्धि तथा दोषोँ में एकदम मिटाना सम्भव नहीं। जैसा भी यथार्थ स्वरूप एक-दूसरे का है उसी के अनुरूप एक-नारी की आदर्श प्रतिमा को अपने मन-मस्तिष्क में बिठाये रखे व अपनी पत्नी से वैसा ही व्यवहार चाहे। पत्नी भी पति के ऐसे ही आदर्श स्वरूप को लेकर चले और पति को उस कसौटी पर कसे तो दोनों के हाथ निराशा ही लगती है। प्रेम के स्थान पर कटुता का आरम्भ होने लगता है। यथार्थ स्वरूप को सामने रखकर चलने से वे एक-दूसरे की आशा से अधिक ही स्नेह-सहयोग देते हैं तथा परस्पर प्रेम बढ़ता है।

कोई पक्ष यह नहीं चाहता कि वह अनुपयोगी सिद्ध होगा। पति के हाव-भाव, क्रिया-कलाप तथा कथन द्वारा इस बात की पुष्टि होती रहे कि पत्नी उसके लिये बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है। उसकी आवश्यकता जैसी विवाह के समय थी वैसी ही आज भी है तो पत्नी की दृष्टि में उसका सम्मान बढ़ जाता है। यहीं पत्नी के व्यवहार से भी झलके कि उसे अपने पति वैसे ही लगते हैं जैसे विवाह के समय लगते थे तो दाम्पत्य स्नेह के सूत्र और भी दृढ़ हो जाते हैं।

इस उपयोगिता को जताने के लिये प्रशंसा करना, प्रेम दर्शन करना आवश्यक है। यह क्रिया जितनी बार दोहराई जायेगी परस्पर नवीनता तथा आकर्षण बना रहेगा। प्रशंसा करने में इस बात का ध्यान रहे कि प्रशंसा कार्यों की तथा गुणों की हो। शरीर तथा सौंदर्य की प्रशंसा शारीरिक आकर्षण को जन्म देती है। सत्कार्यों तथा गुणों की प्रशंसा एक-दूसरे का सम्मान को बढ़ाती ही है साथ-ही- साथ उनकी और वृद्धि करने का उत्साह भी जगाती है।

मनुष्य से भूल होना अस्वाभाविक नहीं है। भूल पति से भी होती है, तथा पत्नी से भी। भूलों को सुधारना भी आवश्यक होता है। भूल सुधार का क्रम भी प्रशंसा की तरह ही चलता रहना आवश्यक है, किन्तु सुधार का यह क्रम इस प्रकार का न हो कि एक-दूसरे के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचे। भूल, सुधारने, स्वीकारने के लिये वही पक्ष सामने आये, जिसने भूल की हो तो सराहनीय ही कहा जायगा। इस साहस की प्रशंसा करे तो उसके मन पर इसका अच्छा प्रभाव तो पड़ेगा ही साथ ही अपने जीवन साथी पर उसे गर्व भी हो आयेगा। भूल या गलती करने वाला उसे स्वतः स्वीकार न करे तो दूसरे को सहन कर लेना ही ठीक रहता है। यदि सह सकने योग्य न हो तो उसे अपनी भूल विनम्र शब्दों में बता दे जिससे कि उसे बुरा न लगे।

पति-पत्नी के स्वभाव तथा रुचि में भिन्नता हो सकती है। विवाहोपरान्त यह भिन्नता पूरी तरह मिटाना आवश्यक नहीं होता। एक-दूसरे को समझ लेना एक-दूसरे की रुचि तथा स्वभाव का ध्यान रखना ही पर्याप्त होता है। एक-दूसरे की रुचि तथा स्वभाव का सम्मान करने से उनके हृदय में परस्पर सम्मान बढ़ जाता है।

जो दंपत्ति एक-दूसरे की भावनाओं को समझने में असमर्थ होते हैं, उनका परस्पर स्नेह घटता जाता है और एक दिन ऐसा आता है कि वे एक-दूसरे को चाहते हुए भी प्रेम नहीं दे पाते। ये बातें साधारण-सी होतीं हैं किन्तु महत्वपूर्ण होती हैं। एक-दूसरे के लिए कोई उपहार लाने, सेवा करने आदि में जो समर्पण की भावना जुड़ी होती है उसको समझा न जाय, उसे प्रशंसा के जल से सींचा न जाय तो यह प्रेम-बेल सूखने लगती है।

पति-पत्नी का प्रेम एक सुन्दर, सुसज्जित होना चाहिए। प्रेम के इस पथ में खण्डहरों में निराशा, दुःख शोक, क्लेश, उत्पीड़न आदि कीड़े - मकोड़े, उल्लू व चमगादड़ निवास करते हैं। जीवन भर साथ निभाने तथा पुलकते, हँसते-खेलते अपने पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों को निभाते रहने वालों का प्रेम ही सुरम्य प्रासाद कहा जा सकता है जिससे स्नेह, सौजन्य, आशा, उत्साह, दया, प्रसन्नता, श्री, मेधा आदि सत्पुरुष निवास करते हैं। ऐसे सुरम्य प्रासाद मिलकर ही समाज रूपी सुन्दर नगर का निर्माण करते हैं। यह तभी हो सकेगा जबकि पति-पत्नी ऐसा विवेक अपनायेंगे।


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