रोगों की जड़ें तन में नहीं, मन में

July 1996

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बहुत समय पहले शारीरिक रोगों का कारण बात, पित्त, कफ, अपच, मलावरोध, ऋतु प्रभाव, विषाणुओं का आक्रमण आदि माना जाता रहा है, किन्तु नवीनतम शोधें शरीर पर पूरी तरह मनः’सत्ता का अधिकार मानती हैं और बताती हैं कि बाह्य कारणों से उत्पन्न हुए रोग तो शरीर की जीवनीशक्ति स्वयं ही अच्छे कर लेती है अथवा मामूली से उपचार से वे अच्छे हो सकते हैं, किन्तु जटिल रोग आमतौर से मनोविकारों के ही परिणाम होते हैं। उनका निराकरण दवा-दारु से नहीं, मानसिक परिशोधन से ही संभव हो सकता है।

शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों का भी यह प्रधान कारण है। दुष्कर्म अथवा दुर्बुद्धिग्रस्त व्यक्ति शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों से भी ग्रसित रहते हैं। उन्माद विस्फोट की स्थिति न आये तो भी असंतुलन से ग्रस्त व्यक्ति अर्द्ध-विक्षिप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। अकारण दुःख पाते और अकारण दुःख देते हैं। इनकी मनःस्थिति कितनी दयनीय होती है यह देखने भर से बड़ा कष्ट होता है। शारीरिक व्यथाओं से पीड़ितों की अपेक्षा मनोरोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या ही नहीं, पीड़ा भी अधिक पायी जाती है। इन व्यथाओं से छुटकारे का उपाय अस्पतालों में नहीं, मानसिक संशोधन की साधनाओं पर ही अवलंबित है। वे उपाय, उपचार अन्य प्रकार भी हो सकते हैं, पर अध्यात्म विज्ञान के आधार पर उसे मनोमयकोश की साधना से अधिक सुविधापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है।

काय-विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए ज्ञान तन्तु सारे शरीर में फैले हैँ। उन्हीं के माध्यम से इस जटिल यन्त्र का संचालन होता है। इन्द्रियों की क्रिया शक्ति, अनुभूतियाँ, सरसताएँ मस्तिष्क में ही जाकर खुलती हैं। इन्द्रिय गोलक तो मात्र सूचनाएँ संग्रह करने और उन्हें मस्तिष्कीय केन्द्रों तक पहुँचाने भर का काम करते हैं। कोई मानसिक कष्ट होने पर सारा शरीर शिथिल हो जाता है और क्रिया शक्ति में स्पष्टतः अस्त-व्यस्तता दीखने लगती है। भय, चिन्ता, शोक, निराशा जैसे प्रसंगों पर किसी भी मनुष्य का चेहरा उदास और सारा शरीर शिथिल देखा जा सकता है। क्रोध, अपमान, द्वेष, प्रतिशोध की स्थिति में किस प्रकार अंग-प्रत्यंगों में उत्तेजना दीख जाती है, इसे किसी आवेशग्रस्त पर छाये पर भावोन्माद को देखकर सहज ही देखा - समझा जा सकता है। प्रसन्न और निश्चित रहने वाले स्वस्थ रहते और दीर्घजीवी बनते हैं। इसके विपरीत क्षुब्ध रहने वाले अकारण दुर्बल होते जाते हैं और अकाल मृत्यु से असमय मरते हैं। यह तथ्य स्पष्ट करते हैं कि शरीर संस्थान पर आहार−विहार का, जलवायु का जितना प्रभाव पड़ता है उससे कहीं अधिक भाव संस्थान का होता है।

शरीर में स्नायुमण्डल द्वारा तथा नलिकाविहीन अंत-स्रावी ग्रन्थियों द्वारा भावनाएँ क्रियाशील होती हैं।

हमारे सम्पूर्ण शरीर में स्नायुओं का जाल बिछा हुआ है। सामान्यतः स्नायु उज्ज्वल वर्णी होते हैं और तार की तरह ठोस होते हैं। हमारी सभी पेशियाँ स्नायुओं के ही आधार पर चलती हैं। प्रत्येक पेशी में पहुँचने वाला मुख्य स्नायु सुतली की तरह मोटा होता है। फिर उसकी शाखा-प्रशाखाएँ अधिकाधिक पतली होती चली जाती है। कई प्रशाखाएँ तो बारीक सूत जैसी पतली होती है।

तंत्रिका विज्ञानियों के अनुसार सम्पूर्ण स्नायुमण्डल के दो भाग हैं - (1) ऐच्छिक (2) अनैच्छिक चलने-फिरने, झुकने-मुड़ने, वस्तुएँ उठाने, रखने आदि की क्रियाओं में हम अपने हाथ-पैर आदि को इच्छानुसार हिलाते हैं। यह ऐच्छिक स्नायुओं के ही कारण है। अनैच्छिक स्नायुओं पर हमारा ऐसा अधिकार नहीं होता। वे शरीर की आन्तरिक क्रियाएँ संपादित करते हैं, जैसे हृदय की धड़कने, साँसों का आना-जाना आदि।

अनैच्छिक स्नायुमण्डल का केन्द्र मस्तिष्क का एक लघु अंश ‘हाइपौथैलेमस’ होता है। यही ‘हाइपोथैलेमस’ नारी व पौरुष ग्रन्थियों को भी नियन्त्रित करता है। साथ ही ‘मोनोएमीन आक्सीडेज’ नामक किण्वज (एन्जामइम) भी सम्पूर्ण शरीर में संव्याप्त होते हुए भी केन्द्रीय सनायिवक प्रणाली में विशेष रूप से जमा रहता है। “हाइपोथैलेमस’ द्वारा पिट्यूटरी ग्रन्थि भी उत्तेजित होती है और उससे विभिन्न हार्मोन्स निकलते हैं जो भावनाओं का कारण भी किसी नयी परिस्थिति के उपस्थित होने पर अंत-स्रावी नलिकाविहीन ग्रन्थियों पर दबाव पड़ता है और वे विभिन्न हारमोनों को स्रवित करती है। इन हारमोनों की शरीर की प्रतिक्रिया होती है और वह प्रतिक्रिया उसी के अनुरूप भावना समूहों को जन्म देती है। जैसे किसी रोग के जीवाणुओं के संक्रमण के दबाव से पिट्यूटरी ग्रन्थि ने कोई हार्मोन छोड़ा, इससे शरीर में तेज हलचल मच गयी, व्यक्ति को अस्वस्थता महसूस होने लगी और वह खाट पर पड़ गया। अब बीमारी की दशा में तरह-तरह की भावनाएँ जो अचेतन में दबी थीं, उभरने लगीं। उनके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार ही शारीरिक प्रतिक्रियाएं भी पैदा होने लगती है।

वियना के सुप्रसिद्ध मनों चिकित्सक डॉ0 फ्रेंकल का मत है कि मानसिक धरातल ही शारीरिक स्वास्थ्य का आधार है। शारीरिक स्वास्थ्य का आधार है। मानसिक असन्तुलन का कारण जीवन की सार्थकता को न समझना है। इसीलिए उन्होंने “लौगोथेरेपी, या ‘अर्थबोध चिकित्सा’ नाम की चिकित्सा पद्धति विकसित की है। डॉ0 फ्रेंकल की मान्यता है कि जिस व्यक्ति को अपने जीवन और कार्य की सार्थकता का बोध नहीं हो वह स्वस्थ नहीं रह सकता। मनुष्य जीवन के आदर्शतम लक्ष्य और उनकी सिद्धि ही आनन्द का आधार है। डॉ0 फ्रेंकल की चिकित्सा पद्धति में रोगी से प्रिय अप्रिय सभी विषयों पर चर्चा कर उसे जीवन की सार्थकता की तलाश की प्रेरणा दी जाती है। व्यक्ति को जैसे ही जीवन में सार्थकता की अनुभूति हो उठती हैं, वह अपने भीतर निहित शक्तियों का स्मरण कर आत्म-विश्वास से भी उठता है और धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगता है। मनःक्षेत्र की स्वास्थ्यता उसके स्थूल शरीर को भी स्वस्थ बना देती हैं।

सूक्ष्म शरीर की हलचलों का स्थूल शरीर पर स्पष्ट एवं निश्चित परिणाम होता है। तन्त्रकीय रोगों का कारण दबे हुए गन्दे विचार ही होते हैं। शरीरशास्त्रियों का भी मत है कि मात्र मानसिक चित्रों के आधार पर ही अनेक शारीरिक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती है। ‘इन्फ्लुएन्स ऑफ द माइण्ड अपाँन द बाँडी, नामक पुस्तक के लेखक डॉ0 टुके ने लिखा है - “विक्षिप्तता, मूढ़ता, अंगों का निकम्मा हो जाना, पित्त, पाण्डुरोग, के शपतन, रक्ताल्पता, घबराहट, मूत्राशय के रोग, गर्भाशय में पड़े बच्चे का अंग-भंग हो जाना चर्म रोग, फुन्सियाँ, फोड़े, एक्जिमा आदि अनेक स्वास्थ्यनाशक रोग कई बार मानसिक विक्षोभ तथा भावनात्मक उद्वेलन के परिणामस्वरूप होते पाये गये हैं।” मानसिक विक्षोभ, भावनात्मक उद्वेलन, निषेधात्मक चिन्तन, सूक्ष्म, शरीर की विकृतियाँ हैं, जिनका स्थूल शरीर पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार परिष्कृत दृष्टिकोण स्वस्थ-उदात्त चिन्तन, आदर्शवादी विचार-धारा सूक्ष्मशरीर को तेजस्वी और प्रखर बनाती हैं एवं उसका सही प्रखरतावर्धक प्रभाव स्थूल शरीर पर भी स्पष्ट देखा जा सकता है।

इस संदर्भ में विधेयात्मक विचारों की, ऊर्ध्वमुखी चिन्तन की आश्चर्यजनक महत्ता के प्रतिपादन में डॉ0 बेनेट ने स्वयं को ही प्रस्तुत किया है। 50 वर्ष की आयु तक वे निराशा और अवाँछनीय चिन्तन के कारण अपना स्वास्थ्य पूरी तरह गँवा बैठे। उन्हें जब ऊर्ध्वगामी चिंतन की इसी असीम उपादेयता का पता चला तो उन्होंने अपना जीवनक्रम ही बदल डाला। मन की जड़ता और विषय विचारों का जुआ उनने उतार फेंका, हृदय को श्रद्धा, आस्था से भरा, सदैव प्रसन्न-प्रफुल्ल रहने की आदत बना ली। 20 वर्षों के अपने इस जीवन को स्वार्गीय सुख से ओत-प्रोत बनाते हुए डॉ0 बैनेट से अपनी 50 वर्षीय फोटो तथा 60 वर्षीय फोटो भी इस पुस्तक में छापी है। पहली में उनका चेहरा झुर्रियों से, चिपके गाल, धंसी आँखों के कारण मनहूस दिखायी देता है। जबकि 70 वर्ष की आयु में वे स्वस्थ, सशक्त दिखायी देते हैं, झुर्रियाँ न जाने कहाँ चली गयीं, चेहरे में उद्दीप्ति हैं और युवकों जैसी सक्रियता।

अब तक किये गये, ऐसे ही विधि आधुनिक अनुसंधानों से प्रयोगों से यह स्पष्ट हो गया है कि मन का, मस्तिष्क का कष्ट प्रत्येक कोशिका को कष्ट में डाल देता है। घृणा, ईर्ष्या, क्रोध का अनिष्ट प्रभाव समस्त कोशाणुओं में तुरन्त दौड़ जाता है, झलक उठता है। मस्तिष्क में प्रसन्नता का भाव आते ही प्रत्येक कोशाणु प्रसन्न, पुलकित हो उठता है। ये सभी कोशाणु परस्पर गहन आत्मीयता और अभियन्ता का भाव रखते हैं।

प्रत्येक कोशाणु की दशा से सभी प्रभावित होते हैं - इनका सुख-दुःख मिला-जुला ही होता है। इनका पारस्परिक सौहार्द्र, सद्भावना अनूठा है। सच्ची मैत्री, प्रगाढ़, आत्मीयता, सहानुभूति के ये अनूठे उदाहरण हैं। कल्पना करें कि एक व्यक्ति को तेल भूख लगी है। सुस्वाद भोजन का थाल सामने है। उसी समय किसी प्रियजन की मृत्यु का तार मिलता है। उसे पढ़ते ही मस्तिष्क में उसकी संचित स्मृति सहसा जाग्रत हो उठती हैं। मन में आत्मीय संवेदना उमड़ पड़ती हैं। मस्तिष्क के कोषाणुओं में हलचल, उथल-पुथल मच जाती हैं। मस्तिष्क के कोशाणुओं की इस प्रतिक्रिया का तत्काल सम्पूर्ण शरीर के कोशाणुओं पर प्रभाव पड़ता है। जीभ सूखने लगती है। भूख बढ़ाने वाले कोशाणु जो उछल-कूद मचा रहे थे, भोजन माँग रहे थे, सहमकर शाँत, निष्क्रिय, दुबके से बैठ जाते हैं। हृदय और दूसरे अंग भी निष्प्राण से हो चलते हैं। दिल डूबने लगता है, आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। शरीर निढाल हो जाता है। समस्त अंगों पर यह प्रभाव पड़ता है। स्पष्ट है कि मस्तिष्कीय कोशाणुओं की भावदशा का तत्काल प्रभाव सम्पूर्ण शरीरस्थ कोशाणु-समूहों पर बड़े व्यापक रूप में पड़ता है।

मनोमयकोश की, श्रेष्ठ विचारों के चिन्तन-मनन की साधना वस्तुतः मस्तिष्कीय क्षेत्र में घुसे मनोविकारों को, दुष्प्रवृत्तियों को निरस्त करने के लिए लड़ा जाने वाला महाभारत है। जो इसमें सफल होते हैं वे ही सच्चे अर्थों में जीवन का आनन्द उठाते हुए आत्मोत्कर्ष का परम लाभ प्राप्त करते हैं।


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