“वरं त्रूहि!” उस दिन उस नीरव रात्रि में पता नहीं क्यों उसकी निद्रा टूट गयी। वैसे वह इतनी प्रगाढ़ निद्रा में सोता है कि सिर पर ढोल बजे तो भी शायद उसकी नींद न टूटे। पूरा कमरा प्रकाशित है और एक देवता उसके समीप खड़े थे। देवता इसलिए कि प्रकाश उनके शरीर से ही निकल रहा था- जैसे किसी धुएँ के समान प्रकाशित पदार्थ द्वारा उनकी देह का निर्माण हो। साथ ही वे उसे वरदान माँगने को कह रहे थे- वरदान माँगने को या तो कोई देवता कहेगा या फिर ऋषि। वे ऋषि हो नहीं सकते, क्योंकि ऋषियों के जटा-जूट होते हैं और वे इतने रत्न-आभूषण क्यों धारण करने लगे ?
‘धन्यवाद’ वह भी अद्भुत अक्खड़ है- ऐसा कि आपको ऐसे अक्खड़ जीवन में कम ही मिले होंगे। बिस्तर पर उठकर बैठ गया था वह, किन्तु उसने उठकर खड़े होने , देवता की वन्दना - अभ्यर्थना करने का उपक्रम नहीं किया। भय भला क्या लगना था- जो वरदान माँगने को कह रहा था, उससे भय की तो कोई बात नहीं। वैसे भी उसे भय लगता होता तो सर्वथा एकाकी निर्जन स्थान पर अन्य ग्रहों से दूर यहाँ आवास स्वीकार नहीं करता।
मैंने तो आपको बुलाया नहीं था। आपसे कोई प्रार्थना कभी मैंने भूल से भी नहीं की होगी। देवता खड़े थे और अपने शयन के आसन पर बैठे-बैठे ही वह उनसे कहे जा रहा था। साथ ही ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर तक देवता को देख रहा था बार-बार। उसने जो पढ़ा-सुना, उसमें से कोई लक्षण मिल जाए तो देवता को पहचान ले। देवता के चरण-भूमि का स्पर्श नहीं कर रहे थे- इसके अतिरिक्त और कोई लक्षण उसे ऐसा नहीं मिला, जिससे वह उनका नाम जान सकता। अतः बोला “आपको स्वीकार हो तो आसन ग्रहण कर लें और मैं जल पिला सकता हूँ”।
परिचय उसने पूछा नहीं। नाभ-थाम-श्रम वह किसी से भी मिले, पूछना उसके स्वभाव में नहीं है। लोग उससे पूछते हैं तो उसे झल्लाहट होती है। किन्तु देवता-देवता का परिचय जानना भी उसे आवश्यक नहीं लगा। अपने तख्ते पर एक ओर थोड़ा खिसक गया, जैसे देवता को बैठना हो तो उसी के बराबर बैठ जाय। ऐसे कहीं देवता को आसन दिया जाता है ? देवता क्या प्यासा आया होगा उसके यहाँ पानी पीने ? किन्तु यह बात भी सच है कि उसके पास देवता को भेट करने के लिए उस समय कुछ नहीं था। रात्रि में पुष्प का तो प्रश्न ही नहीं उठता। कोई कह सकता है- “उसे उठकर खड़े हो जाना था। जल हाथ में लेकर निवेदन करना था।” यह सब उसने नहीं किया। उसे यह आवश्यक नहीं जान पड़ा।
“वरं ब्रूहि !” देवता ने भी जैसे दूसरा वाक्य सीखा ही न हो। उन्होंने आसन नहीं ग्रहण किया। जल की उन्हें आवश्यकता नहीं थी। वैसे देवता को सदा मनुष्य के दान की आवश्यकता होती है। मानव का श्रद्धा-दान हव्य, कव्य न मिले तो स्वर्ग और पितृलोक में दुर्भिक्ष पड़ जाय। इसलिए देवता को मनुष्य से अपेक्षा नहीं है। यह नहीं कहा जा सकता।
मनुष्य देवताओं को तृप्त करे हवन, पूजनादि से और देवता यथावत् वृष्टि , वायु, महामारी आदि का नियन्त्रण करके मनुष्य को सुखी, समृद्ध बनाते रहे- व्यवस्था यही है। केवल परमात्मा पूर्णकाम, नित्य, निरपेक्ष है। उसे मनुष्य जो कुछ देना चाहता है-देने का उद्योग करता है वह अनन्त गुणित होकर लौट आता है उसी के समीप, किन्तु देवता तो ऐसे नहीं है। अतः उसका भाव था- तुम वरदान देने आये, मुझे वरदान चाहिए कि नहीं यह भिन्न प्रश्न है, किन्तु मैं तुम्हें जल पिला सकता हूँ, यदि तुम पीना चाहो।
“वरं ब्रूद्धि।” देवता को पता नहीं क्यों वरदान देने की धुन चढ़ी थी और वह चाहता था कि वरदान लेना था, उसे कोई शीघ्रता या तत्परता उसमें नहीं जान पड़ती थी।
वह कौन है? आप अवश्य जानना चाहते होंगे, किन्तु नाम, धाम, पता, ठिकाना कोई पूछे तो उसे झल्लाहट होती है। कहता है व्यक्ति का क्या परिचय ? कल उत्पन्न हुआ, परसों मर जाएगा। मिट्टी के ढेले को एक आकार मिल गया- इस खिलौने का भी कोई परिचय हुआ करता है ?
‘तुमने साधु वेष क्यों ग्रहण नहीं किया ? एक महात्मा ने उससे एक बार पूछा था ? पूछना उचित था, क्योंकि जिसके कुल, परिवार में कोई नहीं, जिसकी कहीं कोई झोंपड़ी तक नहीं, वह क्यों अपने को गृहस्थ कहता है। वह धोती, कमीज में क्यों रहता है ? समाज की वर्तमान परिपाटी को देखते हुए उसे ऐसे ढंग से क्यों रहना चाहिए ?
‘मैं क्यों साधु वेष ग्रहण करता ? क्या प्रयोजन था इसका ? उसने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न कर दिया था। कहने लगा- सहज प्राप्य क्यों है ? यह प्रश्न अनुचित है।’ उसमें परिवर्तन क्यों किया जाय? यह प्रश्न ठीक है।
दूसरे साधु वेष किसी प्रयोजन से ग्रहण करते हैं? महात्मा ने पूछा।
दूसरों की बात मैं कैसे कह सकता हूँ। वह बोला वैसे साधु वेष ग्रहण करने के चार प्रयोजन मेरी समझ में आते हैं। उत्तम प्रयोजन-संसार से वैराग्य हो गया हो और कुटुम्ब परिवार का बन्धन अंतर्मुखी होने में बाधा दे रहा हो। मध्यम प्रयोजन-आसक्ति कहीं हो नहीं और साधन, भजन करने में पूरा समय लगाना हो। शरीर निर्वाह के लिए बिना माँगे भिक्षा मिल जाया करे। निकृष्ट प्रयोजन-सम्मान, संपत्ति, भोग, भरपूर चाहिए, किन्तु कुछ उद्योग करने की इच्छाशक्ति न हो।
जिसके कुटुम्ब-परिवार घर-द्वार कोई है ही नहीं, उसके लिए इस बन्धन से छुटकारे का प्रश्न ही नहीं उठता था। शरीर निर्वाह के लिए उसे जितना कम श्रम करना पड़ता है। जितनी स्वच्छन्दता उसके श्रम में है, उतना तो भिक्षाजीवी को भी करना ही पड़ता है। सम्मान उसे सहज प्राप्त है और संग्रह की सनक उसे है नहीं। यह कहता है- मैं प्रायः अस्थिर रहता हूँ। एक तौलिया भी अधिक रख लूँ तो उसे ढोते फिरना होगा। बात त्याग की नहीं, समझदारी की है। जितने से ठीक एक जीवन निर्वाह हो जाता है- सुख से, सुविधा से, सामाजिक शिष्टता को रखते हो जाता है, उतना रखता हूँ। अधिक को ढोते फिरने की मूर्खता नहीं कर सकता। फिर भाई मेरे! ज्ञान या भगवद् दर्शन मनुष्य को होता है, ऐसा न तो कोई शास्त्र कहता है और न किसी संत ने कभी कहा है।
‘भोगे रोग भयं’ - अधिक जिह्वा लोलुप बनोगे तो पेट खराब हो जाएगा और सामान्य रसास्वाद के सुख से भी वंचित कर दिए जाओगे। अधिक काम बढ़ेगा, तो वह शक्ति प्रकृति छीन लेगी। स्नायु दौर्बल्य, हृदय दौर्बल्य एवं पता नहीं कितने कष्ट-साध्य , असाध्य रोगों की भीड़ खड़ी है कि तुम इस ओर बढ़ो और वे बलात् तुम्हारी देह को अपना आवास बनालें।
‘भोग जीवन के लिए है, जीवन या देह भोग के लिए नहीं है। यह या ऐसी बातें हम आप सबने पढ़ी-सुनी हैं। इसको जीवन में किसने कितना अपनाया है, यह भिन्न बात है। किन्तु यह सत्य तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जिसने जितना अधिक इन्हें अपनाया है उतना स्वस्थ एवं सुखी है वह। जिसने जितनी इनकी उपेक्षा की है, वह उतना रोगी, दुखी है।
इसका अपना ढंग है। कहता है अनावश्यक संग्रह करके उसकी चिन्ता करते रहना और उसे ढोते फिरना मूर्खता है। मैं अपने आपको एवयं मूर्ख नहीं बना सकता। इससे भी बड़ी मूर्खता है किसी इन्द्रिय के पीछे इतना पड़ना कि उसकी शक्ति, उसकी उपयोगिता ही नष्ट हो जाय। एक समय जीभ के बहकावे में जो आया- दूसरे समय के उपवास से ही उसका छुटकारा हो जाय तो बहुत कुशल हुई। अन्यथा पेट-दर्द, सिरदर्द आदि पता नहीं क्या-क्या उपहार सिर पड़ने वाले हों।
‘इन्द्रियों के बहकावे में जो आया- उसके लिए रोगों का नरक तैयार।’ यह उसका अपना विवेचन है। इन्द्रियों की तृप्ति तो कभी होने की नहीं, यह वे भी कहते हैं, जो इनका स्वभाव बिगाड़ देते हैं। अन्यथा इन्द्रियों का काम तो इनको अपने विषय को व्यक्त करना मात्र है। जीवन के लिए जितना उपयोगी है उतना रस पदार्थ भोग सेवन समझदारी है।
अब ऐसे व्यक्ति को वरदान देने देवता आ गए। क्यों आ गए हैं, यह बात तो वे ही जानते होंगे। देवताओं को भी सम्भव है, कि ऐसा कुछ व्यसन होता हो।
“आप क्या दे सकते हैं ?” उसने देवता की ओर ऐसे ढंग से देखा कि उस दृष्टि में जिज्ञासा का भाव तो सर्वथा नहीं था।
‘धन, रत्न, बल, यश, पद, प्रभुत्व, सिद्धियाँ।’ देवता के स्वर में गम्भीरता के स्थान पर उल्लास अधिक था। जैसे वरदान उसे न मिलकर स्वयं देवता को मिलने वाले हो-”एवं स्वर्ग से सम्बन्धित गन्धार्वादि लोकों में जो प्राप्य है वह भी।”
“अच्छा तो तुम मुझे मूर्ख बनाने आए हो? वह खुलकर हँसा। अच्छा हुआ, क्योंकि सम्भावना इसी की थी कि वह क्रुद्ध हो जाता और देवता को झिड़क देता, किन्तु देवता को आप के स्थान पर तुम तो वह कहने ही लगा था।
ऐसा तो नहीं है। देवता भी चौका। उस बेचारे देवता को भी ऐसा व्यक्ति अभी मिला नहीं होगा। उसने बड़े गम्भीर भाव से कहा- “प्रतिभा, कला, विद्या का वरदान भी चाहो तो माँग सकते हो।
अनावश्यक पदार्थ और पैसा जैसे भार है, वैसे ही विद्या, प्रतिभा भी भार ही है । उसने देवता की ओर ऐसे देखा जैसे किसी मित्र को समझा रहा हो। ‘तुम देख ही रहे हो जीवन के लिए जो पदार्थ, जो धन, जितनी विद्या, बुद्धि आवश्यक है मेरे पास वह है। मुझे इससे अधिक का लोभ नहीं है।
सिद्धियाँ.... देवता ने कहना चाहा।
बको मत! बेचारे देवता को डाँट दिया गया।’ मैं मनुष्य हूँ।’ पक्षी आकाश में उड़ते हैं और मछली जल में डूबी रहती है। चींटी नन्ही है और हाथी भारी। तुम्हारी ऐसी कौन-सी सिद्धि है, जो किसी पशु-पक्षी अथवा कृमि में सहज नहीं है? मनुष्य के मन में तुम प्रकारान्तर से पशु-पक्षी या कीट के गुण का लोभ उत्पन्न करना चाहते हो।
मनुष्य को भी पद-प्रतिष्ठा की स्पृहा होती है। देवता पता नहीं क्यों डाँट खाकर भी रुष्ट नहीं हुआ था। वह सम्भवतः असफल होकर जाने के लिए तैयार नहीं था। उसने कहा-”आपके समीप सामग्री थोड़ी है। शरीर सदा स्वस्थ रहे- इसका आश्वासन नहीं है। आपको इस ओर से मैं निश्चिन्त कर सकता हूँ।”
आश्चर्य की बात यह है कि डाँटे जाने के बाद देवता ने उसे तुम के स्थान पर आप कहना प्रारम्भ कर दिया था किन्तु इस ओर उसने ध्यान नहीं दिया। वह कह रहा था- “तुम देवता हो, मेरी शरीर की शक्ति, मेरी बुद्धि, मेरी विद्या कितनी अल्प है- यह तुमसे अज्ञात नहीं होना चाहिए। इतना होने पर भी मेरी निश्चिन्तता, मेरी सुव्यवस्था तुम देख सकते हो।
किन्तु यह सब तो इस समय है। देवता ने बड़े संकोच से कहा- भाग्य जब तक आप पर अनुकूल रहा है।
किसका भाग्य अनुकूल रहा है ? उसने व्यंगपूर्वक पूछा- “परिवार- परिच्छेद, पाथेय एवं अध्ययन का उच्छेद क्या अनुकूल भाग्य किया करता है ?”
देवता को भी नहीं सूझ रहा था कि वह इसका क्या उत्तर दे। वह मौन रह गया। दो क्षण रुककर उसने कहा- तुम देवता सही, तुम्हारी दिव्य दृष्टि की सीमा है। तुम उन आदि-शक्ति जगत्माता को नहीं देख पा रहे हो, यह तुम्हारा दोष नहीं है। तुम जानते हो जिन जगत्माता आदि शक्ति माँ गायत्री के कृपा-कटाक्ष से सृष्टि चक्र संचालित होता रहा है। उनके आश्रित बालक को तुम वरदान देने आए हो।
देव ! जैसे कोई बड़ी भूल हो गयी हो। देवता इस प्रकार केवल एक शब्द बोल सका और क्योंकि वह देवता था, उसे वहीं अदृश्य होने में कहीं क्षण लगना था।
उसके अदृश्य होते ही योगी अनिर्वाण मुस्करा पड़े। उन्हें अब नित्यकर्म से निवृत्त हो प्रातः उपासना में बैठना था। उनकी मुसकान कह रही थी- “समस्त भोग जीवन के लिए है”- मनुष्य को यह तथ्य समझ में आ जाए तो उसे न इन्द्रियाँ मूर्ख बना सकती हैं न देवता। मनुष्य जब इस सत्य को छोड़कर इन्द्रियों को व्यक्त करने के लोभ में पड़ता है, तो उसे मूर्ख ही नहीं, रोगी भी बनना पड़ता है और कष्टों की परम्परा में जकड़ा जाकर विवश होना पड़ता है। सिद्धियों की फिर ऐसे को आवश्यकता ही क्या हो सकती है।