प्रश्न तो हैं, अनुत्वरित। समस्याएँ हैं, पर समाधान का बोध नहीं । बोध के अभाव में पनपे अलगाव, आतंक अस्थिरता और अव्यवस्था से जर्जरित मानव सभ्यता न केवल त्रस्त है, बल्कि भयग्रस्त हो सहमी खड़ी है। उसे आशंका है कि पतन और विनाश कहीं उसे अपनी मृत्यु पाश में न बाँध ले। सामाजिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक , साँस्कृतिक सब ओर एक-सी स्थिति है, प्रश्न ही प्रश्न हैं, समाधान विहीन प्रश्न। जिनसे समाधान की आशा रखी गयी थी, वे विज्ञान और अन्तर्राष्ट्रीय विधान अपनी असमर्थता का अहसास कर विवश है।
इन व्यथापूर्ण क्षणों में व्याकुल मानवता के हृदय में फिर से विश्व- गुरु के लिए पुकार उठी है उन्हीं विश्वगुरु के लिए जिनकी वन्दना में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है- ‘वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रुपिणम्’ जो स्वयं बोध स्वरूप हैं, शाश्वत गुरु हैं, स्वयं सृष्टि के सूत्र संचालक महाकाल है। मानवीय असमर्थता, असहायता को उनके सिवा और दूर भी कौन कर सकता है ? उन्होंने ही तो ऐसे अवसर पर भटकी मनुष्यता को राह दिखाने के लिए ‘तदात्मानं सृजाम्यहम्’ का संकल्प लिया है।
पृथ्वी की सभ्यता का सदियों, सहस्राब्दियों, लाच्क्षाधिक वर्षों का इतिहास गवाह है, कि मानवी बुद्धि जब-जब भटकी है, भ्रमित हुई है, विश्वगुरु उसे चेताते रहे हैं। मानवी पुरुषार्थ जब-जब दिशाविहीन हुआ है, उसे मार्गदर्शन देते रहे हैं। उनके लिए जाति, धर्म, धरती के किसी भूखण्ड की सीमा अवरोध नहीं बनी, सृष्टि का कण-कण उनके प्रेमपूर्ण बोध से लाभान्वित होता रहा है। कृष्ण , ईसा , बुद्ध, जरथुस्त्र, मुहम्मद, महावीर, व्यास, बाल्मीकि के रूपों में वही शाश्वत गुरु भगवान महाकाल भटकी हुई मानवता को दिशाबोध कराते रहे हैं। इनके अनुदानों के प्रति सहज कृतज्ञ भारतीय जनमानस प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा को इनके प्रति अपनी भावाँज्जलि अर्पित करता है ।
अपने नाम-रूपों की भिन्नता के बावजूद देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप समाधान का बोध कराती हुई उन्हीं विश्वगुरु की एकमेव चेतना ही मुखरित होती रही। कौरवों के विनाशकारी आतंक से सिसकती, कराहती मनुष्यता को त्राण दिलाने वाले दिग्भ्रमित पाण्डवों को गीताज्ञान का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरु’ कहकर पूजित किए गए। दार्शनिक भ्रम जंजालों, तरह-तरह की मूढ़ मान्यताओं में उलझी-फंसी मनुष्यता को महर्षि व्यास ने समाधान के स्वर दिए। चार वेद-षड्दर्शन एवं अठारह पुराणों के विशालतम विचारकोष को पाकर मानवता ने उन्हें लोक गुरु के रूप में स्वीकारा। इतनी ही कृतज्ञता इस तरह मुखरित हुई कि गुरु पूर्णिमा व्यास पूर्णिमा का पर्याय बन गयी।
आज जब पुनः धर्म मूढ़ताओं से ग्रस्त है। चित्र-विचित्र मान्यताओं, कुरीतियों, कुप्रथाओं की मेघमालाओं ने इस सूर्य को आच्छादित कर लिया है। दर्शन जिसे आर्यावर्त के ऋषियों, सुकरात सदृश मनीषियों ने जीवन की राह के रूप में सृजा था, वह लुप्त प्रायः है। फिर से मनुष्यता में विश्वगुरु के सान्निध्य को पाने की छटपटाहट उठी और जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त है वे स्पष्टतया देख सकते हैं, पुकार व्यर्थ नहीं गयी। ‘तदात्मानं सृजाम्यहं’ का आश्वासन ‘आचार्य श्रीराम शर्मा’ के रूप में पूरा हुआ।
प्रश्नों से आकुल संसार में उनका व्यक्तित्व समाधान का पर्याय बनकर अवतरित हुआ था। वह उन विरल प्रज्ञ पुरुषों में थे, जिनमें ऋषित्व व मनीषा एकाकार हुई थी। जिन्होंने धर्म का आच्छादन तोड़ने , दर्शन को बुद्धिवाद के चक्रव्यूह से निकालने की हिम्मत जुटाई। धर्म, दर्शन और विज्ञान के कटु, तिक, कषाय हो चुके सम्बन्धों को अपनी अन्तर्प्रज्ञा की निर्झरिणी से पुनः मधुरता प्रदान की । अवतारी प्रवाह भदा एक ही लक्ष्य सामने लेकर आते रहे हैं, समय की दार्शनिक भ्रष्टता को दूर कर उसे उच्चस्तरीय चिन्तन स्तर तक घसीट ले जाना। श्रेष्ठता का आधार सनातन है, निकृष्टता की दिशाएँ भी गिनी चुनी है। उतार-चढ़ाव उसी झूले पर झूलते रहते हैं, पर पुरानी सुधार प्रक्रिया हर बार नई बदलनी पड़ती है। क्योंकि मूल तथ्य यथास्थान रहने पर भी सामयिक परिस्थितियों के साथ जुड़ी हुई विकृतियों का स्वरूप पहले की अपेक्षा भिन्न होता है । भगवान बुद्ध के समय यज्ञीय हिंसा की वाममार्गी असुरता अट्टहास कर रही थी, तो स्वामी दयानन्द के समय पाखण्डी अनाचार गगनचुम्बी बना हुआ था। विवेकानन्द ने भारतीय संस्कृति की अनास्था के दुष्परिणाम देखे और गाँधी ने जनमानस में घुसी हुई पराधीनता प्रिय निराशा को जड़ जमाए पाया। वे मूलतः एक ही सुधार प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होते हुए भी वाह्य दृष्टि से सर्वथा भिन्न थे। उनमें न एकरूपता थी, न एक दिशा। कारण स्पष्ट है- समय -समय पर विकृतियाँ पृथक्-पृथक् परिधान ओढ़कर आती है।
अपने युग में अनाचार की गतिविधियाँ पूर्वकाल की अपेक्षा भिन्न है। इस समय दार्शनिक भ्रष्टता ने जिस दिशा में बहना आरम्भ किया है वह भूतकालीन दिशा से भिन्न है। इसलिए समाधान की प्रक्रिया भी नवीनतम होनी चाहिए, उसमें सामयिक विकृतियों की समीक्षा और निराकरण के सामयिक आधार रहने चाहिए।
समस्याओं के संसार में आचार्य जी का आविर्भाव इसी उद्देश्य को लेकर हुआ था। उन्होंने लोकजीवन की आर्त्तावस्था, विपन्न मानसिकता को अपने हृदय की धड़कनों में अनुभव किया और अपनी रचनात्मक प्रतिभा के बलबूते समाधान की शोध में तत्पर हुए। उनके दार्शनिक विचारों का उद्देश्य बौद्धिक महत्वाकाँक्षा से उपजे किसी मत या वाद की महत्ता का प्रतिपादन नहीं है, बल्कि जीवनभर किए गये महत्वपूर्ण प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों का वितरण है। इन दुष्कर एवं कष्टसाध्य प्रयोगों के लिए ऊर्जा देने वाली प्रेरणा का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है, “पीड़ित मानवता की, विश्वात्मा की, व्यक्ति और समाज की व्यथा-वेदना अपने भीतर उठने और बेचैन करने लगी। आँख दाढ़ और पेट दर्द से बेचैन मनुष्य व्याकुल फिरता है कि किस प्रकार किस उपाय से इस कष्ट से छुटकारा पाया जाय ? क्या किया जाय? कहीं जाया जाय ? आदि की हलचल मन में उठती है और जो सम्भव है उसे करने के लिए क्षण भर का विलम्ब न करने की आतुरता व्यग्र होती है , अपना मन भी ठीक ऐसा ही बना हैं। अन्तरात्मा की इसी बेचैनी ने उन्हें समाधान का अन्वेषण करने के लिए विवश किया।
यही करुणा उनकी तपश्चर्या का आधार बनी। तप और योग की गुह्य और गहन प्रक्रियाओं ने उनके व्यक्तित्व को भगवान महाकाल का आवास बनाया और नित्य गुरु के स्वरों ने उन्हें विश्वगुरु बना दिया। बोध की ऐसी आन्तरिक सम्पदा प्रदान की जो बौद्धिक सोच अथवा सूझ-बूझ की उपज नहीं है। वैदिक मन्त्रों की भाँति इसका अवतरण चेतना के उच्चतम स्तर से हुआ है। इस सत्य को उद्घाटित करते हुए स्वयं परमपूज्य गुरुदेव के शब्द है- ‘अखण्ड ज्योति का कलेवर छपे कागजों के छोटे पैकेट जैसा लग सकता है, पर वास्तविकता यह है कि उसके पृष्ठों पर किसी की प्राण चेतना लहराती है और पढ़ने वालों को अपने आँचल में समेटती है, कहीं से कहीं पहुँचाती है। बात लेखन तक सीमित नहीं हो जाती, उसका मार्गदर्शन और अनुग्रह, अवतरण किसी ऊपर की कक्षा से होता है। इसका अधिक विवरण जानना हो तो एक शब्द में इतना ही कहा जा सकता है कि हिमालय के देवात्मा क्षेत्र में निवास करने वाले ऋषि चेतना आ समन्वित अथवा उसकी किसी प्रतिनिधि सत्ता का सूत्र संचालन है। चेतना के उच्चतम स्तर से अवतरित हुए, अन्तःकरण की करुणा में धारण किए गए, बौद्धिक तीक्ष्णता से सँवारे गए इन विचारों में कितनी आभा है, कितनी रोशनी है, यह कहने की नहीं, अनुभव करने की बात है। जिनने इन्हें पढ़ा तड़पकर रह गया। रोते हुए आँसुओं की स्याही से जलते हृदय ने इन्हें लिखा है, सो इनका प्रभाव भी मानवी अन्तःकरण में बोध का बीज अंकुरित करता है
क्रोंच पक्षी के बघ से आहत होकर महर्षि बाल्मीकि ने रामायण की रचना की। लोकजीवन को मर्यादा, साहस , सूझ-बूझ एवं उज्ज्वल चरित्र वाले महानायक का आदर्श देने में सफल हुए। महाभारत के युद्धोपरान्त विकल, पीड़ित एवं दिशाधारा मनुष्यता को नवनिर्माण का साहस देने वाले विचार , महर्षि व्यास भावनाकुल अन्तर्चेतना से ही निसृत हुए थे। आचार्य जी के स्वर भी सम्बोधि से तरंगित हुए हैं। अपने स्वरों में सामाजिक, साँस्कृतिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक प्रत्येक क्षेत्र में पनपने वाली समस्याओं का सार्थक समाधान प्रस्तुत करने वाले आचार्यजी वेदों की ऋचाओं एवं उपनिषदों की श्रुतियों के द्रष्टा की भाँति क्रान्तिदर्शी ऋषि थे। साथ ही शंकर एवं मध्य की परम्परा में युगानुकूल भाष्यकार भी। अपनी गहन साधना के बल पर सत्य की गंगोत्री उनका आयाम बनी थी। उनका चिन्तन लयबद्ध संगीत है, जो उनके अपने अनुभव पर आधारित है। वे परम प्रज्ञा को उपलब्ध सन्त थे। उनके बोधमय स्वरों में प्राच्य एवं पाश्चात्य चिन्तन की गंगा एवं यमुना का पवित्र संगम है, जिसमें सरस्वती सी मौलिकता गुप्त होते हुए भी प्रकट है।
वे ईसा के स्वर्ग के राज्य को धरती पर अवतरित करने का आयोजन करने वाले विलक्षण देवमानव एवं खोखली हो रही संस्कृति व सभ्यता को, अपनी व्यथा के भार से लड़खड़ाती मानव जाति के बाण हेतु नवयुग के आगमन के सन्देशवाहक तथा उसके आयोजक एक प्रवर्तक लोकनायक हैं। अपनी अनुभूति पर आधारित होने पर भी उनके चिन्तन में पूर्व एवं पश्चिम अनायास समा गये हैं। सहस्राधिक पुस्तकों एवं अखण्ड ज्योति के लक्षाधिक पृष्ठों में लहराते उनके सम्बोधि सागर में कहीं निषेध का भाव नहीं है। आचार्य जी पहले महायोगी हैं फिर विचारक एवं लोक-नायक । उनके विचार योग के गहन आयामों में प्रत्यक्ष सत्य, सूक्ष्म से स्थूल में घटित होने वाले भविष्य की अनुभूति का बौद्धिक विश्लेषण हैं । उनका चिन्तन विचारों के इतिहास में क्रान्ति होते हुए भी किसी भी विचार का स्थान नहीं ग्रहण करता, बल्कि उसे आदर देकर पहले की अपेक्षा कहीं अधिक उपादेय बनाता है। एक अपूर्व सामंजस्य का प्रकाश स्तम्भ यहाँ है, जिससे लाखों लोग प्रकाश ले रहे हैं।
श्रीकृष्ण के जीवनकाल में उनके विचारों के प्रति सर्वथा समर्पित शिष्य वीरवर अर्जुन एवं मनीषी उद्धव थे। लेकिन विचारों की सार्वभौमिकता कुछ ऐसी थी कि समूची मानव जाति कृष्णं वन्दे जगद्गुरु कहकर नतमस्तक हुई। ईसा मसीह के भी उनके जीवनकाल में सिर्फ बारह शिष्य थे, लेकिन आज मसीह के विचार समूची दुनिया की आलोकित कर रहे हैं। आचार्य जी के विचारों को उनके सम्बोधि ज्ञान को भले शुरुआत में कुछ इने-गिने लोगों ने स्वीकारा हो, आज लाखों विश्वासी उन्हें परमपूज्य गुरुदेव कहकर श्रद्धा अर्पित करते हों, लेकिन भावी मानवता समूचा विश्व उन्हें वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रुपिणं कहकर वन्दित किए बिना न रहेगा।
इस समय याद आती हैं विक्टर ह्यगों कुछ पंक्तियाँ, जो उन्होंने अपने ‘सत्तरह सौ तिरानवे’ नामक उपन्यास में कहीं हैं- “क्रान्ति के बीज एक दो महान विचारकों के दिमाग में जमते हैं। वहाँ से फल-फूलकर बाहर आए कि छुतहे रोग की तरह अन्य दिमागों में उपज कर बढ़ते हैं। सिलसिला जारी रहता है। क्रान्ति की बाढ़ आती है। चिनगारी से आग और आग से दावानल बन जाता है। बुरे-भले सब तरह के लोग उनके प्रभाव में आते हैं। कीचड़ और दलदल में भी आग लग उठती है। “ ज्ञान क्रान्ति की लाल मशाल का भी यही भविष्य है। जो इसके आलोक को अपने हृदयों में अनुभव करते हैं।, उन्हें गुरु पूर्णिमा को शाश्वत गुरु के श्रद्धार्चन दिवस के रूप में हर्षोल्लासपूर्वक मनाना चाहिए। यही अर्चन उनके प्रश्नों का उत्तर देगा, समस्याएँ अपने समाधान का बोध पा सकेंगी।