काश ! सबके जीवन की राह इसी तरह बदल जाए

July 1996

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आषाढ़ के घने बादलों से आसमान ढका था। पानी बरस जाने सब ओर धरती जलमय हो रही थी। साधुओं का एक समूह जंगल पार कर था, लेकिन चारों ओर पानी उफनते नाले, गर्जती नदियां, कीचड़ से भरे रास्ते आगे बढ़ने से रोक रहे थे। उन साधुओं के अग्रणी महर्षि शाल्विन वहीं एक पेड़ की नीचे रुक गए और विचार करने लगे-अब क्या जाय ? रास्ता सूझ नहीं रहा है। चातुर्मास लगन में सिर्फ चार दिन बाकी है। चौथे दिन अर्थात् आषाढ़ी पूर्णिमा को तो चातुर्मास स्थल तक पहुँच ही जाना है। फिर तो घूमना-फिरना नियम के विपरीत होगा। इस जंगल में रहकर चातुर्मास करना सम्भव नहीं और आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं। अन्य साधु भी इसी चिन्ता में खोए थे।

तभी पेड़ों के झुरमुट से एक मजबूत कद-काठी का मनुष्य आता दिखाई पड़ा। उसके चेहरे की आभा, सुदृढ़ मांसपेशियां, कंधे पर धनुष बाण सिंह, की सी निर्भीक चाल यह बता रही थी कि वह कोई वीर पुरुष है। उसने यकायक इन साधुओं के पास आकर प्रणाम करते हुए पूछा-महाराज ! आप इस भयंकर जंगल में यहाँ क्यों और कैसे आ गए ? इस प्रश्न के उत्तर में साधुओं ने अपनी कहानी सुनाते हुए कहा - भाई! हम मार्ग भूल गए हैं। हम विदिशाँ जाने के लिए निकले थे ; लेकिन बरसात होने से कीचड़ घास जीव-जन्तु आदि पैदा हो गए। पगडण्डी बन्द हो गयी। हम तीन दिन इधर, उधर भटक रहे हैं। गन्तव्य तक पहुँचना असम्भव है। अतः यहीं आस-पास कोई बस्ती हो तो बताओ। साधुओं के लिए क्या जैसा नगर वैसा ही वन। तुम अनुमति दो तो जंगल में ही जप तप करके चातुर्मास बिता डालें।

आगन्तुक तनिक सोच-विचार में पड़ गया। धीरे-धीरे उसके रक्त में रमे हुए संस्कारों ने अँगड़ाई ली और उसने एक और अँगुली से इशारा करते हुए कहा - “इन टीलों की ओट में जो झोपड़ियाँ दिखाई दे रही हैं, वे भीलों की हैं। आप यहाँ चार महीने रहना चाहें तो हम आपको रहने का स्थान दे सकते हैं, परन्तु एक शर्त है, यदि आप उस शर्त को मानने की प्रतिज्ञा करें, तो आप यहाँ रह सकते हैं।

साधुवृन्द के नायक महर्षि शाल्विन तनिक मुस्कराए, बोले-”कौन सी शर्त है वह ?” उसने कहा - देखिए, हम डाकू हैं, आप हैं साधु। हम दोनों की दी राह हैं, जो अलग-अलग है। हमारा रास्ता मारने का है आपका तारने का। हमारा धर्म लूटना है और आपका लूट छोड़ने का उपदेश देना। आप हमारा साथ करेंगे तो बिगड़ने और हम आपका साथ करेंगे तो हमारी आजीविका समाप्त हो जाएगी। अतः आप हमारे मार्ग में हस्तक्षेप न करना। मेरे आधीन 700 लुटेरे हैं। हमारा धन्धा उक्ति का है। डकैती के साथ हत्या और मार-पीट स्वाभाविक रूप से जुड़ी हैं। मैं जानता हूँ कि आपका मार्ग सच्चा हैं परन्तु मेरे काम का नहीं। अहिंसा को अपना लें तो खून कैसे करेंगे। अपरिग्रह स्वीकार करें तो पेट कैसे भरें? इसलिए आप खुशी से रहिए पर हमारे किसी भी साथी को उपदेश न देने की शर्त ध्यान में रखिएगा, अन्यथा ............।” डाकुओं के सरदार की यह स्पष्ट समझदारी से भरी और बेबाक बात सुनकर महर्षि को प्रसन्नता हुई। उन्होंने भावी कल्याण की आशा से सभी साधु सन्तों से परामर्श करके भील पल्ली में उसकी शर्त के अनुसार ठहरने की स्वीकृति दे दी।

प्रकृति के इस सुरम्य, शान्त वातावरण में सभी तपस्वियों ने एक झोंपड़ी में चातुर्मास बिताने के लिए अपने बिताने के लिए अपने आसन लगाए। स्वाध्याय, ध्यान मौन, तप और आत्म साधना में चार महीने हवा के झोंके की तरह झट-पट व्यतीत हो गए। डकैत - डकैती का माल लेकर इन ऋषियों - मुनियों के निवास स्थान के आगे से होकर गुजरते जरूर थे, परन्तु तप का प्रकाश उनके हृदयों को स्पर्श करता, उससे पहले ही वे वायु वेग सरपट आगे निकल जाते हैं।

चार महीने बीत गए, चातुर्मास समाप्त हो गया। आज साधुवृन्द जाने की तैयारी में था। डाकुओं के सरदार ने आकर भावपूर्वक नमन किया। ग्रामपति और उसके कुछ आधीन लोग साधुओं को विदाई देने साथ-साथ चल रहे थे। उपदेश चाहे भले न दिया गया हो, लेकिन तप-त्याग, शान्ति, संयम का मूक असर सभी के हृदयों पर अंकित हो चुका था। पगडण्डी के मोड़ पर महर्षि रुके। उन्होंने सरदार और उसके साथियों को स्वस्ति वचन सुनाए। साथी लोग तो वापिस लौट गए, लेकिन ग्रामपति सरदार अभी भी साधुओं के साथ-साथ चल रहा था।

महर्षि शाल्विन ने उससे कहा-”एक सवाल पूछूँ ? क्योंकि चातुर्मास में तुम्हारी शर्त के मुताबिक हमने तुम सबसे कुछ भी पूछना उचित न समझा।”

सरदार ने विभोर होकर कहा-”निःसंकोच पूछिए भगवन्। आप जो कुछ पूछेंगे, मैं आपसे कुछ नहीं छुपाऊँगा।”

उससे इस कथन से आश्वस्त होकर महर्षि बोले - “तुम कहते हो कि तुम चोर हो - लुटेरे हो, पर तुम्हारे संस्कार तो तुम्हारे डाकू होने की गवाही नहीं देते। तुम किसी ऊँचे वंश-कुल के मालुम होते हो। तुम्हारे गुण मुझे तुम्हारा परिचय जानने के लिए मजबूर कर रहे हैं।”

महर्षि की सहज अपनत्व से सनी वाणी सुनकर सरदार का हृदय पिघलने लगा। उसे अपने भव्य भूतकाल की धुँधली यादें ताजी होने लगीं। वेदना के आँसू उमड़ने लगे। उसने आँसू पोछते हुए कहा - “प्रभो ! अब उन पुरानी बातें को छेड़कर मेरे घाव को मत कुरेदिए। मैं वर्तमान में कौन हूँ बस यही जानना पर्याप्त होगा।”

महर्षि ने अपनी मानव रत्न परीक्षक बुद्धि से जरा नजदीक आकर वात्सल्य का हाथ फेरते हुए कहा “सरदार ! स्मृति के अंगारों पर विस्मृति की राख अब क्यों ढक रहे हो, वह तुम्हें अन्दर ही अन्दर जलाया करेंगी। उस बाहर लाओ, ज्ञान तथा पश्चाताप के जल से उसे बुझा दो।” महर्षि के स्नेह भरे शब्द सरदार के हृदय में सीधे उतर गए। उसने कहा - “प्रभो मेरी वेदना की भट्टी आपके भाव भरे ज्ञान के छींटों से ठंडी नहीं होगी। फिर भी आपकी जिज्ञासा को देखकर अपनी व्यवस्था कथा आपको सुना देता हूँ।”

मेरा जन्म कौशल के राजा सुयश के यहाँ हुआ था। माता का नाम सौम्यदर्शना था। मेरा नाम अभय था। मेरी एक बहिन थी उमा। बहुत लाड़-प्यार से मेरा पालन-पोषण हो रहा था। यह लाड़-प्यार और माता-पिता का अपरिमित वात्सल्य मुझसे हजम न हुआ। धीरे-धीरे बुरी संगति के कारण मुझमें स्वच्छंदता और उन्मत्तता बढ़ती गयी। मेरे उपद्रव के कारण सभी त्रस्त हो चले थे। माता-पिता के कई बार समझाने को मैंने उनकी निर्बलता समझा दशहरे के दिन तो उसकी हद हो गयी।

थक-हारकर मेरे पिता ने आखिर मुझसे कहा-”जा पापी। चला जा यहाँ से, मेरी गरीब प्रजा त्रस्त हो गयी है, मुझे अपना काला मुँह न दिखाना। इन शब्दों ने मेरे स्वाभिमान को चुनौती दी और में उसी क्षण घर से निकल पड़ा। मेरी छोटी बहिन उमा बहुत कुछ समझाने के बावजूद भी मेरे प्रति अटूट स्नेह के कारण मेरे साथ चल पड़ी। भटकते हुए हम दोनों भाई-बहिन इस जंगल में आ पहुँचे। यहाँ मुझे एक भील मिला, मैंने उसे अपनी व्यथा कह सुनायी। उसने मुझे अपने गाँव में चलने का निमन्त्रण दिया और उसी गाँव में तब से अब तक हम हैं, जिसमें आपने चातुर्मास बिताया। उस बूढ़े भील के मरने के बाद सबने मुझे अपना सरदार मान लिया।

मेरे अधीन अब 700 भील हैं मेरे नाम से बड़े-बड़े काँपते हैं। लेकिन जब कभी अपने वात्सल्यमयी माता-पिता को याद करता हूँ तो हृदय विषाद से भर जाता है। वे बेचारे तो मेरे वियोग में रोक रोकर मर गए मैं अभागा उनके अन्तिम समय में भी न जा सका। भगवन् यही मेरी दुःख भरी कहानी है।

अभय की स्पष्टता और उसकी अन्तर्व्यथा ने महर्षि को द्रवित कर दिया। वे बोले-अभय ! इसी का नाम तो जीवन है। जो जीवन पथ पाप की अंधेरी घाटी में से गुजरता है, वहाँ प्रकाश की भी गुंजाइश है। उस घाटी में भी धर्म नियम की सीढ़ियों के द्वारा मनुष्य आत्मा के आलोक तक पहुँच सकता है। तुम्हें कुछ न कुछ जीवन पाथेय देने का मेरा मन करता है। मैं तुम्हें चातुर्मास की याद में चार नियम देता हूँ, जो कठिन नहीं हैं, लेकिन ये तुम्हारे जीवन विकास में सहायक सिद्ध होंगे। पहला नियम ऐसा करना तुम्हारे लिए सम्भव नहीं। इसलिए यही नियम दिलाता हूँ कि किसी पर वार करने से पहले सात कदम पीछे हटना और सात बार प्रभु का स्मरण करना।

“स्वीकार है भगवन्!” अभय के शब्द थे।

दूसरा नियम यह है - “मैं चाहता हूँ कि तुम सादे और सात्विक भोजन पर रहो, लेकिन अभी तुमसे इतना होना मुश्किल है। इसलिए जिस खाने की चीज की तुम्हें पहचान न हो, या तुम जिसका नाम न जानते हो उसे मत खाना।” अभय ने इस नियम को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। महर्षि ने तीसरा नियम बताते हुए कहा - “मैं चाहता हूँ कि तुम शीलवान बनो, पर शायद इतना करना तुम्हारे लिए कठिन होगा। इसलिए राजा की रानी के प्रति कुदृष्टि देखने और सहवास करने की भावना का त्याग करना, क्योंकि वह प्रजा की माता होती है।” सरदार अभय ने इसे भी श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर लिया। अब चौथे नियम की बारी थी। इसे प्रकट करते हुए महर्षि ने कहा-”मैं चाहता हूँ कि तुम माँसाहार न करो, लेकिन अभी तुमसे यह भी संभव न होगा। इसलिए अभी तुम इतना ही करो कि कौए के माँस का त्याग करना। बोलो चारों नियमों का भलीभाँति पालन करोगे न? ध्यान रखना नियम लेना आसान होता है, पर उसे निभाना बड़ा कठिन है।”

सरदार अभय ने चारोँ नियमों के पालन का विश्वास दिलाते हुए महर्षि शाल्विन से कहा- “प्रभु ! मैंने ये नियम एक पूज्य ऋषि के समाने चातुर्मासिक पुण्य स्मृति में किए हैं। अब तो अभय सिंह इन पर पर्वत की तरह अडिग रहेगा, आप तनिक भी चिन्ता न करें।

महर्षि ने विदा लेते हुए कहा- “अभय !ये नियम और संस्कार ही तुम्हारे जीवन में प्रकाश करेंगे, जीवन को उन्नत बनायेंगे।” इतना कहकर ऋषि मण्डली आगे बढ़ गयी। अभय ने भावुक होकर गुरुचरणों की धूलि को माथे पर लगाकर नमन किया।

संतों को विदाकर घर वापस पहुँचने पर रात्रि हो गयी थी। ज्यों ही वह घर में घुसा देखा-आँगन में एक ही पलंग पर उसकी पत्नी के साथ कोई पुरुष लिपटकर सोया हुआ है। देखते ही अभय ने एकदम से आग बबूला होकर तलवार खींची - पापी। परन्तु तलवार मारने के लिए उठायी थी कि महर्षि शाल्विन के द्वारा दिया गया पहला नियम याद आया। वह तुरन्त सात कदम पीछे हटा, भगवान का नाम स्मरण करने लगा। संयोगवश तलवार पीछे की दीवार से जा टकराई।

उसी की आवाज से चौंककर एकदम से उमा की नींद उड़ गयी। पुरुष वेष में ही वह बोली-चिरंजीव हो मेरे भाई ! अभय के आश्चर्य का पार न रहा। उसने अपनी बहिन से पुरुष वेष पहनने का कारण पूछा और कहा - आज तो मुझसे महान अनर्थ हो जाता। मैं अपनी ही बहिन की हत्या कर बैठता। भला हो उन महान संत का जिन्होंने वार करने से पहले सात कदम पीछे हटने व प्रभु-स्मरण करने का नियम दिलाया। उमा ने मर्दाना वेष धारण कर भाभी से मजाक करने के अपने कौतुक के बारे में बताया और अभय की शंका का समाधान किया। इससे उसकी नियम-निष्ठा और भी दृढ़ हुई।

इसके कुछ ही दिनों के बाद अवन्तिका पर चढ़ाई करने की बारी आयी। प्रस्थान के समय कुछ अपशकुन हुए, पर उसने वीरता के दर्प में कतई परवाह न की। अवन्तिका में ज्यों ही लूट मचाने का प्रयत्न किया पहले ही सुसज्जित चौकीदारों और ग्रामीणजनों ने डटकर मुकाबला किया। ये सब भी डटकर लड़ें, इतने में राज्य की सेना भी आ गयी। इतने बड़े समूह से ये कहाँ तक लड़ते। अतः मौका देखकर ये सभी वहाँ से भागे, सैनिक पीछे लगे थे, लेकिन ये उन्हें धोखा देने में सफल हुए और घोर जंगल में पहुँचकर पूर्व निश्चित एक दर्रे में घुस गए। भूखे-प्यासे और थके हुए डकैतों ने सरदार के आदेश से जंगल में खड़े पेड़ों से सुन्दर और सुगन्धित फल तोड़े और अपने सरदार के आगे लाकर ढेर लगा दिया। कुछ लोग पानी लाए।

सरदार अभय ने एक फल उठाया और सूँघते हुए कहा-फल तो बड़े सुन्दर हैं क्या नाम है इनका। एक डकैत ने कहा-नाम का क्या करना है सरदार? भूख मिटानी है, खा लीजिए। परन्तु साथियों के बहुत आग्रह पर भी अभय ने उन अज्ञात फलों को नहीं खाया। भूखा ही रहा। दूसरे सब साथियों ने भरपेट फल खाए। सभी थककर चूर हो गये थे, इसलिए लेटते ही गरी नींद में सो गए, पर अभय को नींद नहीं आयी। उसने सबको जगाकर चलने का विचार किया; परन्तु यह क्या? सब सोये के सोये पड़े रहे। हिलाने और आवाज देने पर भी कोई न उठा। अभय को उनकी मृत्यु का कारण समझते देर न लगी एक ओर उसे अपने साथियों के मर जाने का खेद था तो दूसरी ओर संत के दिए हुए नियम के पालन से जान बच जाने का आनन्द था। नियमों पर श्रद्धा और बढ़ चली थी। वह भारी मन से गाँव पहुँचा।


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