क्या कभी अपने आपको जानने का प्रयास किया ?

July 1996

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पदार्थ और प्राण का-जड़ और चेतन का समन्वय ही काया का अस्तित्व बनाये हुए है। वे दोनों पृथक् होते हुए भी परस्पर इतने अधिक गुँथे हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की गति नहीं। प्राण निकलते ही शरीर न केवल निश्चेष्ट हो जाता है वरन् स्वयमेव सड़ने लगता है और अपना अस्तित्व समाप्त कर लेने के लिए अन्त्येष्टि कर्म में अपनी रही बची विशेषता होम देता है। यह तो हुई प्राण के अभाव में शरीर की दुर्गति। दूसरा पक्ष भी ऐसा ही है। प्राण-सत्ता आकाश में वायुभूत होकर भले ही घुमड़ती रहे, पर दृश्य जगत में अपने अस्तित्व का परिचय देना या किसी प्रकार का अभीष्ट प्रयोजन पूरा कर सकना सम्भव नहीं होता। प्राण के बिना शरीर का और शरीर के बिना प्राण का प्रत्यक्ष उपयोग नहीं रह जाता। इस तथ्य को देखते हुए दोनों के मध्यवर्ती सम्बन्ध सूत्र की समझा जा सकता है।

स्थूल और सूक्ष्म का, जड़ और चेतन का, यह समन्वय इसी ब्रह्माण्ड में व्यापक रूप से विद्यमान है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई तरंगें हैं। इन कम्पनों के अन्तराल में चेतना का अस्तित्व और अंकुश ढूँढ़ निकाला गया है। उसकी सूझ-बूझ भरी गतिविधियाँ ‘इकॉलाजी’ विज्ञान के आधार पर सृष्टि-सन्तुलन के रूप में पग-पग पर अपना कार्य करती हुई देखी जा सकती हैं। ऐसे और भी अगणित प्रमाण है। जिसमें पदार्थ जगत के साथ एक अत्यन्त शक्तिशाली, रहस्यमय एवं वरिष्ठ चेतना जगत गुँथा हुआ देखा जा सकता है। पदार्थ में जिस प्रकार ऊर्जा और गति का अस्तित्व है, उसी प्रकार प्राण में भावना एवं विचारणा का अनेक रूपों में अपने चित्र-विचित्र कृत्य करते हुए देखा जा सकता है।

पदार्थ का स्वरूप और व्यवहार समझने पर स्थूल जगत में मनुष्य अपने विभिन्न प्रयोजन पूरे करता रहता है, किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि जीवात्मा स्वयं सचेतन होते हुए भी, चेतना जगत में अपनी मूल सत्ता को अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए भी उस विधा से अपरिचित ही बना रहता है जो उसकी अपनी निजी सत्ता के उत्थान-पतन की जिम्मेदार है। शरीर पदार्थ है। अस्तु, उसकी सुविधा पदार्थ पर निर्भर समझी जा सकती है। अभीष्ट उपलब्धियों के लिए कार्य सत्ता की, भौतिकी विद्या की आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना उसका काम नहीं चलता, निर्वाह कठिन हो जाता है। ऐसी दशा में भौतिकी का महत्व समझा जाना और उसका उपयोग करना उचित ही है, किन्तु समझा यह भी जाना चाहिए कि जीवन की समस्त आवश्यकताएँ भौतिकी द्वारा पदार्थ को उपलब्ध कर लेने से ही तो पूरी नहीं हो जाती। चेतना का अपना भी कुछ स्वरूप, उद्देश्य, कार्यक्रम, बल-वैभव है। उस सम्बन्ध में अनाड़ी बने रहने पर मात्र शरीर यात्रा ही चलती रहेगी। चेतना की अपनी निजी सामर्थ्य एक प्रकार से सोई ही पड़ी रहेगी, उसका निर्वाहरत पक्ष ही जाग्रत रहेगा। जिसे समग्र चेतना का कठिनाई से शताँश की कहा जा सकता है। शेष अंश प्रसुप्त, उपेक्षित या अनगढ़ स्थिति में पड़ा रहे तो उसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।

अध्यात्म शास्त्र में पग-पग पर एक उद्बोधन निर्देशन पूरा जोर देकर दिया जाता है, कि “अपने को जानो, उसे उठाओ।” “आत्मानं विद्धि”-”आत्मावा अरे ज्ञातव्य” सूत्र संकेतों का आत्म क्षेत्र में प्रवेशार्थी को ध्यानपूर्वक मनन-चिन्तन करना पड़ता है। राजकुमार सिद्धार्थ का जिस क्षण आत्म-बोध उभरा, उसी क्षण वे भगवान बुद्ध बन गये। जिस वटवृक्ष के नीचे यह सुयोग बना वह भी ‘बोधि वृक्ष’ के रूप में श्रद्धास्पद बना-प्रख्यात हुआ और कृत-कृत्य हो गया। आत्मज्ञान की महत्ता, प्रतिक्रिया एवं सिद्धि परिणति का इतना अधिक प्रतिपादन हुआ है कि उससे बढ़कर इस संसार में और कोई बड़ी उपलब्धि मानी ही नहीं गई। गीताकार ने “अपने को ही अपना मित्र और अपने को ही अपना शत्रु बताते हुए कहा है कि अपना उद्धार आप करो, अपने को गिराओ मत।”

सामान्यतया यह कथन कबीर की ‘उलटबांसी’ और बच्चों की ‘कौतुक पहेली’ जैसी लगती है। क्योंकि अपने को कौन नहीं जानता। हर कोई अपना नाम, पता, वंश, धर्म, आयु, व्यवसाय, वैभव, ज्ञान, पद, पराक्रम, कौशल आदि पूछते ही बता सकता है। फिर अपने को न जानने की क्या बात रह गई ? शरीर से आत्मा के पृथक् होने की, उसे अजर-अमर मानने जैसी कोई बात हो तो उस प्रसंग को भी स्वाध्याय सत्संग में हजारों बार पढ़ा-सुना गया होता है फिर ‘न जानने’ जैसी क्या बात रह गई जिसके लिए ‘आत्म-बोध’ की बात को इस तरह सिर पर उठाया जाय और उसमें सफल होने पर सामान्य से असामान्य बन जाने का माहात्म्य सुनाया जाता रहे ?

बात की गम्भीरता को समझा जाना चाहिए। हम अपने सम्बन्ध में मात्र उतना ही जानते हैं जितना शरीर निर्वाह, परिपोषण या समाज व्यवहार के लिए दैनिक जीवन में काम आता है। कुशलता पदार्थ सम्बन्ध तक सीमित है, यह कहा जा चुका है। यह चेतना पक्ष समग्र चेतना का कठिनाई से शताँश होगा। इसके अतिरिक्त जो आत्म-वैभव शेष रह जाता है। उसी से अनजान रहने की बात का बार-बार स्मरण कराया जाता है और कहा जाता है कि जिसके शताँश से जीवनचर्या का इतना बड़ा सरंजाम ढोया, ढकेला जाता है उसके शेषाँश को भी महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए उसे उपेक्षा के गर्त से निकाला जाना चाहिए और ऐसा अवसर देना चाहिए कि समान चेतना को अपने क्षेत्र की वे सभी प्रवीणता प्राप्त हो सकें, जिनके सहारे मनुष्य वस्तुतः नर-पशु जैसे भव बन्धनों से निकल कर ब्रह्मचेतना के स्वच्छन्द आकाश में विचरता है और वैसा दिव्य अनुभव करता है जिसे स्वर्ग लोक में निवास या जीवन-मुक्ति जैसा हाथों-हाथ रसास्वादन किया जा सके।

उथली साँस लेने वालों के फेफड़ों का एक छोटा भाग काम में आता है और शेष ऐसे ही निष्क्रिय पड़ा रहता है। इसी क्षेत्र में विषाणु पलते और प्राण संकट उत्पन्न करते हैं। चेतना का निष्क्रिय पक्ष यदि स्तरीय सक्रियता में संलग्न न होगा तो उस अँधेरी कोठरी में ऐसे तत्व पलेंगे जो पतन-पराभव के गर्त में व्यक्तित्व को गिराते रहें और सड़न उत्पन्न करके उस क्षेत्र को दुर्गन्ध से भरते रहें।

व्यक्ति चेतना का कार्यक्षेत्र उससे कहीं अधिक व्यापक है, जितना कि परिवार, समाज के छोटे दायरों में-बहिरंग जीवन में प्रयुक्त होता है। हाड़-माँस के स्थूल अपनी हस्ती और क्षमता है, किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण और अदृश्य शरीर-आत्मा की उपलब्धि है और वे यदि सजग सक्रिय हो सके तो ‘काय शरीर’ की तुलना में अत्यधिक महत्व के काम कर सकते हैं। स्थूल शरीर बोझिल होने के कारण धीमे चलता और जल्दी थकता है, पर सूक्ष्म शरीर का भार न होने से वह प्रकाश से भी अधिक गति के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच सकता है। दूरदर्शन दूरश्रवण जैसी अनेकों आश्चर्यजनक घटनाओं के उदाहरण सामने आते रहते हैं। भूत-प्रेतों के अस्तित्व सिद्ध करने वाले प्रमाण मिलते रहते हैं। जीवित रहते हुए तन्त्र योगी अपनी ही एक अदृश्य अनुकृति छाया पुरुष के रूप में गढ़ लेते हैं, और उससे बिना चेतन की देवमानव जैसे सहायक सेवक का काम लेते हैं। यह सूक्ष्म शरीर के ही चमत्कार हैं। कितने ही स्वप्न अक्षरशः सत्य निकलते हैं और कइयों में महत्वपूर्ण संकेत रहते हैं। जाग्रत अवस्था में भी कई बार ऐसे दिवा-स्वप्न देखे गये हैं जो किसी सामयिक घटनाक्रम की जानकारी देने वाले सिद्ध हुए।

अंतर्मुखी होकर अंतर्जगत का अवलोकन और उसे परिष्कृत करने के लिए योगाभ्यास में कई प्रकार की ध्यान-धारणाएँ कराई जाती हैं। षट्चक्र, पंचकोश, तीन ग्रन्थियाँ, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना,उनकी सहायक नाड़ियाँ किस स्तर की हैं और उनकी प्रस्तुत स्थिति दूर हो जाने पर क्या कुछ उपलब्ध हो सकता है ? इसका सुविस्तृत वर्णन हठयोग-कुण्डलिनी जागरण आदि विद्याओं के अंतर्गत सुना-समझा जाता रहा है। यह कार्यक्षेत्र वैभव एवं अदृश्य विद्युत् भण्डार सूक्ष्म शरीर की परिधि में ही आता है। स्थूल शरीर के अवयव तो सर्वविदित हैं। उसकी संरचना में चक्र कोश आदि का कहीं कोई स्थान नहीं है। चक्रवेधन, कुण्डलिनी जागरण, शरीर सत्ता का अभीष्ट परिवर्तन, अचेतन मन की लगता हाथ में आने पर मानसिक चेतना का इच्छित उपयोग जैसे कितने ही ऐसे काम हैं, जिन्हें सूक्ष्म शरीर को समर्थ बनने के उपरान्त सहज ही सम्पन्न किया जा सकता है। इन्द्रिय शक्ति से कहीं अधिक प्रखरता सम्पन्न मनुष्य की अतीन्द्रिय सामर्थ्य है। इसे कैसे जगाया बढ़ाया जाय ? यह सारा प्रकरण सूक्ष्म शरीर सम्बन्धित है।

कारण शरीर इन सूक्ष्म से भी अधिक रहस्यमय है। जिस प्रकार स्थूल शरीर आधा प्रकृति का और आधा प्राणचेतना के समन्वय से बना है, उसी प्रकार कारण शरीर आधा मानवी चेतना और आधा देव चेतना के समन्वय से बना है। अन्तःकरण की सूक्ष्म परतें इसी क्षेत्र में है। यह जग पड़े तो भीतर से ही देव-शक्तियों का उदय हो सकता है। अध्यात्म शास्त्र में अन्नमय प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय पंचकोशों को प्रख्यात पंच देवों का प्रतीक-प्रतिनिधि बताया गया। इसी शरीर में समस्त लोक, देव ऋषि, तीर्थ सन्निहित माने गये हैं। बहुमूल्य रत्न भण्डारों का खजाना इसी में गढ़ा हुआ बताया गया है। अंतःकरण ही व्यक्तित्व का मूलभूत स्वरूप है। स्वरूप है। उसकी स्थिति जैसी भी भली-बुरी होती है। उसी के अनुरूप चिन्तन, चरित्र, व्यवहार, वातावरण गढ़ी हुई दुनिया में मनुष्य अपने ढंग का निर्वाह करता है। अंतःकरण की प्रेरणा से मन, बुद्धि को काम करना पड़ता है। मन के निर्देशन पर काया काम करती है। संक्षेप में बाह्य जीवन का जैसा भी स्वरूप है, उसे अन्तः करण का प्रतीक-प्रतिबिम्ब ही समझा जाना चाहिए। यह अन्तराल ही कारण शरीर है। देव सान्निध्य इसी मिलन कक्ष में शक्य होता है। इष्टदेव का दर्शन-ईश्वर मिलन, स्वर्गानुभूति, मुक्ति आनन्द, विभूति, वैभव सिद्धि, चमत्कार आदि की जो उत्साह भरी चर्चा अध्यात्म प्रसंगों में होती रहती है। उसका कारण शरीर स्थिति के रूप में भी विवेचन किया जा सकता है।

स्थूल शरीर की क्षमता, प्रखरता के आधार पर मिलने वाली प्रसन्नता, सम्पदा, सफलता जिन्हें प्राप्त है उन्हें उतना और भी जानना चाहिए कि स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से कारण शरीर की सामर्थ्य में उत्तरोत्तर वृद्धि ही होती चली जा रही है। नीरोग, परिपुष्ट स्फूर्तिवान, सुन्दर, सुडौल शरीर के सहारे जो कुछ हो सकता है, उनसे अत्यधिक अनुपात में समुन्नत सूक्ष्म शरीर और सुसंस्कृत कारण शरीर के माध्यम से उपलब्ध किया जा सकता है। कारण शरीर की भावना को, सूक्ष्म शरीर की विचारणा को और स्थूल शरीर की क्रियाशीलता को केन्द्र माना गया है। इन्हें परिष्कृत करने के लिए क्रमशः भक्ति योग की, ज्ञान योग की, कर्म योग की साधना की जाती है। उनकी प्रखरता मनुष्य को तेजस्वी, मनस्वी एवं ओजस्वी बनाती है। अध्यात्म क्षेत्र की साधनाएँ विभूतियों को करतलगत कराती हैं।


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