यज्ञों का राजा-अश्वमेध

November 1992

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जिस यज्ञ को “भुवनस्य नाभिः” ब्रह्मांड का नाभिक कहा गया है, वह श्रेष्ठतम कर्म-दिव्य पुरुषार्थ के रूप में प्रत्येक क्षेत्र में संव्याप्त है। प्रथम यज्ञीय पुरुषार्थ सृष्टि की रचना के समय ही हुआ था।

कथा सर्वविदित है-विष्णु की नाभि से कमलनाल निकली। उसके विकास से कमल खिला। उस कमल में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा प्रकट हुए और सृष्टिक्रम चल पड़ा। यह एक आलंकारिक वर्णन है, जिसमें प्रथम यज्ञीय पुरुषार्थ का आभास कराया गया है।

“यज्ञों वै विष्णुः” -यज्ञ ही विष्णु है, एवं यज्ञ को ‘भुवनस्य’ नाभि’ कहने से स्पष्ट हो जाता है कि जिसमें से कमल एवं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई, वह दिव्य नाभि यज्ञ ही है। यज्ञीय पुरुषार्थ की कर्मवल्लरी आगे बढ़ी,उसके अंगोपाँग कमल की पंखुड़ियों के रूप में विकसित हुए। उस विकास प्रक्रिया से जो कल्याणकारी-यज्ञीय सृजन शक्ति उभरी उसे सृष्टा-ब्रह्मा की संज्ञा दी गयी। इस प्रकार प्रकट हुई युगीय सृष्टि के संतुलन और विकास के लिए यज्ञीय अनुशासन एवं पुरुषार्थ की जाग्रत-विकसित बनाये रखने की बात कहीं गयी।

इस निर्देश का पालन हुआ। सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी सभी युगीय क्रम अपना कर सृष्टि का पोषण रक्षण एवं विकास करने लगे। समुद्र, मेघ, पर्वत नदियाँ, वनस्पतियाँ, वृक्षादि सभी यज्ञीय अनुशासन के अनुगामी हुए। पशु, पक्षी, कृमि-कीटक भी अपनी-अपनी क्षमतानुसार प्रकृति के सहयोग (संगतिकरण) रूप यज्ञीय क्रम में लग गये।

सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य ने भी दिव्य अनुशासन का अनुगमन (देव पूजन रूप में ) किया। परस्पर प्रेम-सहयोगपूर्वक रहकर संगतिकरण को सिद्ध किया। अपने करुणामूलक प्रयासों से जीव दया-दानादि का क्रम चलाया। इस प्रकार यज्ञीय जीवन क्रम की फलश्रुति के रूप में सतयुगी वातावरण का दिव्य अनुदान उसे लम्बे समय तक मिलता रहा।

काल प्रवाह में मनुष्य युगीय अनुशासन से विचलित होने लगा, तो यज्ञीय अनुशासन के प्रशिक्षण एवं अभ्यास को बनाये रखने के लिए अनेक यज्ञीय कर्मकाण्डों का विकास हुआ। विचलित जनमानस एवं विश्रृंखलित समाज को पुनः यज्ञीय अनुशासन में लाने के अनेक सफल प्रयोग समयानुरूप होते रहे। जैसे-

देव-वृत्तियों के विकास के लिए देवयज्ञ, मनुष्यों अतिथियों को स्नेह-सम्मान देने के लिए ‘नृयज्ञ’, अगणित जीव-जंतुओं के पोषण के लिए यज्ञ-बलिवैश्व यज्ञादि का क्रम चला।

पोषक प्रवृत्तियों के विकास के लिए विष्णु यज्ञ, मन्यु जागरण के लिए रुद्रयज्ञ, अनाचार दमन के लिए ‘चण्डी यज्ञ’ आदि किए जाते रहे है।

उपयोगी पशुधन के संवर्धन के लिए गो मेध, अजमेध, आदि प्रयोग होते थे। बाद में मेध शब्द का कुटिलतापूर्ण दुरुपयोग किया जाने लगा। वैसे ‘मेध’ यज्ञ का ही पर्याय है। इस सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण अगले लेखों में दिए जा रहे है।

व्यापक रूप से यज्ञीय प्रयोगों में समाज में सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन के लिए वाजपेय,राजनीतिक अनुशासन स्थापित करने के लिए -राजसूय यज्ञ’ तथा समग्र राष्ट्र को संगठित सशक्त एवं प्रगतिशील बनाने के लिए ‘अश्वमेध’ आदि यज्ञों का वर्णन मिलता है। अश्वमेध को इन यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ-यज्ञों का राजा कहा गया है।

उक्त विवरण से स्पष्ट है कि यह अश्वमेध यज्ञानुष्ठान कोई सामान्य कर्मकाण्ड नहीं है। यह किसी राजा की राज्यलिप्सा की पूर्ति करने के लिए किया गया अहंकारी कृत्य भी नहीं हो सकता। इस महान यज्ञीय अनुष्ठान का स्वरूप तो ऋषियों की दृष्टि का अनुगमन करके ही समझा जा सकता है। यहाँ उस संदर्भ में एक-एक बिन्दु पर विचार किया जा रहा है।

अश्व की अवधारण

अश्व का प्रचलित अर्थ ‘घोड़ा’ ले लिया जाता है। साँसारिक अर्थों में यह ठीक भी है। किंतु यज्ञीय विशिष्ट संदर्भ में तो उसकी मौलिक व्याख्या तक जाना ही पड़ेगा

अश्व की शब्द व्युत्पत्ति पर ध्यान दें-अश् +ववन् अश्नुते, अध्वानम्, अश्नुते व्याप्नोति, अर्थात् -तीव्रगति वाला, मार्ग पर व्याप्त हो जाने वाला।

महाशनो भवति वा अश्वः बहु अश्नातीति इति अश्वः के अनुसार अधिक मात्रा में आहार करे वाला अश्व है।

उक्त गुणों के कारण घोड़े को अश्व संज्ञा दी गयी है। घोड़े के लिए प्रयुक्त अन्य संज्ञाओं में भी ऐसे ही अर्थ सन्निहित हैं, जैसे-अत्य-अतति गच्दति’गतिशल। हयः -हयति-गच्छति, अर्वा-गमनशील चंचल आदि।

‘अश्व’ को गुणवाचक संबोधन के रूप में ही शास्त्रों ने लिया है।, जाति वाचक संज्ञा तक उसे सीमित नहीं रखा है। नीचे दिये गये उद्धरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है।

‘इन्द्रो वै अश्वः’ कौषीतकि ब्रा. 15/4 के अनुसार इन्द्र ही अश्व है।

“सौर्य्यो वा अश्वः ‘ गोपथ ब्रा. 3-3/19 के अनुसार सूर्य का सूर्यत्व (तेज) ही अश्व है।

वेदों में अनेक स्थानों पर यज्ञाग्नि को अश्व कहा गया है। ऋग्वेद मंत्र 1/16/3/2 में कहा है-

‘गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं बसवों निरतष्ट। अर्थात्-अश्व सूर्य का प्रतीक है वसुओं ने यज्ञीय अश्व (अग्नि को ) सूर्य से प्रकट किया है। वीर्य वै अश्वः’ शौर्य ही अश्व है, तथा श्रीर्वै अश्वः सम्पदा ही अश्व है। कहा है। ‘अग्निर्वा अश्वः आज्यंमेघः के अनुसार अग्नि ही अश्व एवं घृत ही मेध है।

शतपथ ब्राह्मण के ही 13/3/3/5 मंत्र की व्याख्या करते हुए ऋषि दयानन्द ने ईश्वर को अश्व माना है। -’अश्वतो यत ईश्वरी वा अश्वः, अश्नुते व्याप्नोति सर्वं जगत्सोऽश्व ईश्वरः। अर्थात् -सारे संसार में संचारित होकर संव्याप्त होने वाला अश्व ‘ईश्वर ‘ है।

उक्त शास्त्रीय उद्धरणों पर ध्यान देने से पता चलता है कि ‘अश्व’ शब्द का अर्थ केवल घोड़ा मान लेना अपने अज्ञान के कारण ही संभव होता है। इसी पूर्वाग्रहयुक्त मान्यता के कारण अनेक भ्रांतियां उत्पन्न होती है।

‘मेध भी समझे’

‘मेध शब्द यज्ञ का पर्यायवाची है। उसका एक अर्थ ‘वध’ भी होता तो है, किन्तु शास्त्रों ने उस अर्थ में उसका प्रयोग वर्जित किया है। अगले लेख में उस संदर्भ में पर्याप्त स्पष्टीकरण दिये गये है। यहाँ तो ‘अश्वमेध’ जैसे महान प्रयोग की गरिमा के अनुरूप उसके अर्थ प्रस्तुत किये जा रहे है। द्वेष, हिंसा, क्रूरता आदि को शास्त्रों ने अयाीय कहा है, अस्तु यज्ञीय संदर्भ में इनका प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

राष्ट्र वा अश्वमेधः। परा वा एष सिच्यते॥ -तैत्तरीय ब्राह्मण 3/8/9

अर्थात् -अश्वमेध ही राष्ट्र है। जो सार्वभौम क्षमता सम्पन्न हो वही अश्वमेध सम्पन्न करें। निर्वीर्य व्यक्ति अश्वमेध यज्ञ न करे।

‘मेध’ का अर्थ ‘हिंसा ‘ अमान्य कर देने पर उसका यज्ञार्थ अर्थ संवर्धन तथा संगम-संगतिकरण ही रह जाता है।

‘मेध’ शब्द की व्युत्पत्ति में उसे मा्,ि मिद् मेथ्, मूद् आदि धातुओं से सम्बद्ध माना है। इनका अर्थ मिलना, जोड़ना जानना, प्रेम करना, पकड़ना आदि होता है। मेध का अर्थ बुद्धि, शक्ति, बल, बुद्धिबल, या आदि कहे गये है। इसे यज्ञ, अर्पण, रस, सार, पूज्य, पवित्र आदि अर्थों में भी प्रयुक्त किया जाता है।

वाजसनेयी संहिता के बत्तीसवें अध्याय ‘सर्वमेध’ प्रकरण में मेध का अर्थ उपर्युक्त संदर्भों में ही किये जाने का आग्रह भाष्यकारों ने किया है।

अय समझें ‘अश्वमेध’

ऊपर लिखे शास्त्रीय अर्थों को समझने के बाद ‘अश्वमेध ‘ का उसकी गरिमा के अनुरूप अर्थ आसानी से समझ में आ सकता है।

अश्व गतिशीलता का, शौर्य का, पराक्रम का और मेधाशक्ति, रेष्ठ बुद्धिमत्ता का प्रतीक होने से अश्वमेध का सहज अर्थ होता है। ‘शौर्य-पराक्रम तथा कल्याणकारी मेधाशक्ति का संयोग-संगम।

अश्व को क्षात्र शक्ति एवं मेध को ब्रह्म वृत्ति का प्रतीक मानने से उनका संयोग एक पवित्र एवं महान यज्ञ कर्म बनता है।

उत्कृष्ट विचार शक्ति एवं श्रेष्ठ प्रयोजनों के लिए समर्पित पुरुषार्थ के योग से ही आदर्श समाज एवं राष्ट्र की रचना हो सकती है। इसीलिए राष्ट्र निर्माण को अश्वमेध कहा गया है। देखें-

‘राष्टँ वा अश्वमेधः (शत. 13/1/6/3) अर्थात्-राष्ट्र (का गठन) ही अश्वमेध है।

इसी संदर्भ में आगे कहा गया है

राष्ट्रं वै अश्वमेधः, तस्माद्राप्ट्री अश्वमेधेन यजेत्। अर्थात्-राष्ट्र की अश्वमेध है, इसीलिए अश्वमेध के माध्यम से राष्ट्र का यजन (संगतिकरण संगठन) करें।

शतपथ ब्राह्मण में बार-बार अश्वमेध यजेत् वाक्य का प्रयोग किया गया हैं। जिसका अर्थ होता है अश्वमेध से यजन करे। यह गूढ़ार्थक प्रयोग है यथा-शौर्य एवं मेधाशक्ति के संयोग से यजन करे।

श्रेष्ठ यज्ञीय भाव से राष्ट्र का संगठन जागरण किया जाय। पुरुष सूक्त में कहा गया है “यज्ञेन याम् अयजनत देवाः “ देवताओं ने यज्ञ से यज्ञ का यजन किया। स्पष्ट है कि श्रेष्ठ कर्म के लिए उद्देश्य भी यज्ञीय होने चाहिए, साधन भी सुसंस्कारवान यज्ञीय होने चाहिए, उसकी क्रिया भी यज्ञीय अनुशासन में होनी चाहिए, तथा करने वाले का भाव-संकल्प भी यज्ञीय देवतुल्य होना चाहिए।

इसीलिए शतपथ ब्राह्मण 13/2/2/9 में यजमान को भी ‘अश्वमेध’ की संज्ञा ही है।

चेतना (मेधा) को ब्रह्माण्ड में गतिशील (अश्वानुरूप) बनाने के क्रम को लक्ष्य करके शतपथ ब्राह्मण के मंत्र 13/4/2/18 तथा 13/5/1/5 में सूर्य को ‘अश्वमेध ‘ कहा गया है। इसी प्रकार मंत्र क्र. 11/2/5/9 में चन्द्रमा को अश्वमेध कहा गया है।

इतना सब ध्यान में रखने पर यह बात समझ में आ सकती है कि अश्वमेध क्यों इतना महान एव। दुष्कर प्रयोग कहा गया है? इसे क्यों सब प्रकार के फल देने वाला, यज्ञों का राजा कहा गया है? इसका इतना अधिक महत्व होने पर भी इसे करने का साहस कोई विरले ही जुटा पाते है। दिव्य मेधा एवं दिव्य पुरुषार्थ को जाग्रत करके, उन्हें संयुक्त करके, राष्ट्रव्यापी स्तर पर यज्ञीय जीवनक्रम से जन-जन को जोड़ देना ऐसा भारी दायित्वपूर्ण कार्य है, जिसे कोई असामान्य रूप से प्रखर तंत्र ही उठा सकता है। ऐसा ही कुछ पहले होता रहा है, तथा ऐसा ही कुछ करने का निर्देश महाकाल ने पुनः दिया है। उनके अनुचर निष्ठापूर्वक उसे करने के लिए तत्पर हो गये है। गौरवमय इतिहास पुनः दुहराया जाना है।

अश्वमेध अनुष्ठान के अनुरूप सारी व्यवस्थाएँ जुट गयी है। युगऋषि का प्रखर तप इसी निमित्त हुआ है। यज्ञीय भावना से पराक्रम दिखाने के लिए सुख-सुविधायें छोड़कर चल पड़ने वाले त्यागी सृजन सैनिकों की विजय वाहिनियाँ तैयार हो गयी है। लम्बे समय की साधना से जाग्रत मेधा महाप्रज्ञा अब गतिशील पराक्रम को सही दिशा प्रदान करने के लिए संकल्पित है। गतिशील प्रतिभा अपना पराक्रम युग प्रज्ञा के निमित्त ऋषि चेतना के निर्देशानुसार नियोजित करने का तत्पर है। अस्तु आश्वमेधिक अनुष्ठान का सफल प्रयोग एक बार पुनः राष्ट्र को गरिमा प्रदान करने के लिए किया जा रहा है।


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