अश्वमेध के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण का मत

November 1992

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वेद दिव्य अनुभूतियों के आधार पर प्रकट हुआ है, इसलिए इसे सर्वश्रेष्ठ एवं प्रामाणिक माना जाता है। वेद के चार विभाग कहे गये हैं (1) संहिता, (2) ब्राह्मण (3) आरण्यक एवं (4) उपनिषद्। यह चारों विभाग वेदों को प्रकट करते हैं। अश्वमेध के संबंध में शतपथ ब्राह्मण में जो लिखा है, वह भी वेद वचन ही है। उसे उसी प्रमाणिकता के साथ लिया जाना चाहिए।

शतपथ ब्राह्मण के तेरहवें काण्ड में अश्वमेध का बहुत महिमामय वर्णन किया गया है-

‘राजा वाऽएष यज्ञानाँ यदश्वमेधः।’

अर्थात्-इन यज्ञों का राजा यह अश्वमेध है। श. 13/2/2/1

मंत्र 13/1/9/9-10 इस यज्ञ का प्रभाव बतलाते हुए, में उल्लेख है-

निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु

अर्थात्-इस यज्ञ के प्रभाव से इच्छानुसार-आवश्यकता के अनुरूप पर्जन्य की वर्षा होती है। अश्वमेध बहुत व्यापक प्रयोग है। उसके प्रभाव से प्रकृति का अनुकूलन व्यापक स्तर पर होता है। ऋतुचक्र (इकॉलाजिकल साइकिल) व्यवस्थित रहने से वर्षा का समय पर होना स्वाभाविक है।

‘पर्जन्य-उत्पादकता (प्राँडक्टिविटी) को कहते है। ‘यज्ञात् भवतु पर्जन्यो के अनुसार यज्ञ से उत्पादकता में वृद्धि होती है।

शतपथ के उसी मंत्र में आगे कहा गया है-

“फलवत्यों नः ओषधयः पच्यनताम्।”

अर्थात्-यज्ञ के प्रभाव से हमारी औषधियाँ वनस्पतियाँ परिपक्व होकर फलवती होती हैं।

यज्ञ से पर्जन्य की वृद्धि और उसके कारण प्राकृतिक उत्पादन प्राणवान होते हैं-प्रभावपूर्ण होते हैं। आज प्राकृतिक उत्पादों में पोषक क्षमता की कमी पर्जन्य की कमी के कारण ही है।

उसी क्रम में आगे कहा गया है -

‘योग क्षेमों नः कल्पताम्’

अर्थात्-हम सब योग (अप्राप्त की प्राप्ति) तथा क्षेम (प्राप्त की स्थिरता) से संपन्न बनते हैं। यज्ञीय प्रभाव से प्रचुर साधन प्राप्त होते हैं तथा प्रजा यज्ञीय भाव से प्रेमपूर्वक सकुशल रहती है।

ऊपर की उक्तियों के अनुसार जिस क्षेत्र में अश्वमेध होता है। उस सारे क्षेत्र को प्राकृतिक स्तर पर लाभ प्राप्त होते हैं। आगे यजन करने वालों के लिए कुछ विशेष लाभ कहे गये हैं-

योऽश्वमेधेन यजते सर्वऽएव भवति सर्वस्य वाऽएषा प्रायश्चिन्तः सर्वस्य भेषजम्। -श.-13/2/1/1

अर्थात्- जो अश्वमेध का यजन करता है वह पूर्णांग (इन्द्रियों सहित स्वस्थ) हो जाता है। यह (यज्ञ) सबको प्रायश्चित रूप (भूलों को विरत करने वाला) एवं सबका उपचार भूलोँ के कारण जो रोग हो गये हों, उन्हें ठीक करने वाला भी है।

शारीरिक लाभ से भी आगे उसका फल बतलाते हुआ उल्लेख है-

‘सर्व पाप्मानं तरति यो अश्वमेधेन यजते’।

अर्थात्- अश्वमेध यजन करने वाला सभी प्रकार के पापों से पार हो जाता है।

पापों को दुर्धर्ष कहा गया है। किन्तु इस यज्ञानुष्ठान के प्रभाव से साधक पापों से अप्रभावित होकर लक्ष्य की ओर बढ़ने की क्षमता प्राप्त करता है।

आगे चलकर ऋषि उसे सर्वफलदायक घोषित करते है-

सर्वमश्वमेधः सर्वस्याप्त्यै सर्वस्यावरुद्ध्यै। -श. 13/3/1/6

सब कुछ प्राप्त करने के लिए एवं सब प्रकार के अवरोधों के निवारण के लिए अश्वमेध सब कुछ (सर्व समर्थ) है।

इससे सब कुछ प्राप्त होने का उल्लेख (इस अंक के प्रथम पृष्ठ पर शत. 13/4/1/1 के अंतर्गत) किया जा चुका है। इससे स्पष्ट होता है कि अश्वमेध मूलतः सृष्टि संचालन व्यवस्था रूप दिव्य यज्ञ का ही प्रारूप है। इस दिव्य पुरुषार्थ किसी दिव्य संकल्प के आधार पर दिव्य संरक्षण एवं मार्गदर्शन में ही किया जाना संभव है। यही कारण है कि यह यज्ञानुष्ठान सदैव से ही दुर्लभ दुःसाध्य माना गया है। ऋषिगण इसके अनुष्ठान के लिए अनुमति, संरक्षण एवं सहयोग का आश्वासन सहजता से नहीं देते थे।

शतपथ ब्राह्मण में आगे चलकर अश्वमेध के लिए प्रयुक्त अनेक संज्ञाओं-नामों का उल्लेख करते हुए उनके अनुरूप लाभ उस क्षेत्र में सभी को मिलने की बात कहते हैं, जहाँ यह यज्ञानुष्ठान सम्पन्न किया जाता है। 13/3/7/1 से लेकर 12 तक-बारह इष्टियों में यह महिमा गायी गयी है।

एष वै प्रभूर्नाम यज्ञः। यत्रैतेनयज्ञेनयजंते सर्वमेव प्रभूतं भवति॥1॥

इस यज्ञ का नाम प्रभू है। जहाँ यह यज्ञानुष्ठान सम्पन्न किया जाता है, वहाँ सब कुछ उत्पन्न हो जाता है, सब लोग प्रभुता सम्पन्न हो जाते हैं॥1॥

एष वै विभूर्नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते सर्वमेव विभूतं भवति॥2॥

-इस यज्ञ का नाम विभु है। जहाँ यह यज्ञानुष्ठान सम्पन्न किया जाता है, वहाँ सभी लोग विभूतिवान बनते हैं॥2॥

एष वै व्यष्टिर्नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजंते सर्वमेव व्यष्टं भवति॥3॥

-इस यज्ञ का नाम ‘व्यष्टि’ है। जहाँ इस यज्ञ का अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है, वहाँ सभी लोग (इष्ट उद्देश्यों में) सफलता प्राप्त करते हैं॥3॥

एष वै विधृतिर्नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते सर्वमेव विधृतं भवति॥4॥

-इस या का नाम ‘विधृति’ है। जहाँ यह

यज्ञानुष्ठान सम्पन्न किया जाता है, वहाँ सभी लोग कीर्तिमान होते हैं॥4॥

एष वै व्यावृत्तिर्नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते सर्वमेव व्यावृतं भवति॥5॥

-इस यज्ञ का नाम व्यावृत्ति है। जहाँ इस यज्ञ का अनुष्ठान सम्पन्न होता है, वहाँ सभी सुरक्षित हो जाते हैं॥5॥

एष वाऽऊर्जस्वान्नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते वर्स मेवोर्जस्वद्भवति॥6॥

-इस यज्ञ का नाम ऊर्जस्वान (दिव्य ऊर्जा प्रदान करने वाला) है, जहाँ यह यज्ञानुष्ठान सम्पन्न होता है, वहाँ सभी लोग ऊर्जस्वी (प्राणवान) हो जाते हैं॥6॥

एष वै पयस्वान्नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते सर्वमेव पयस्वद्भवति॥7॥

-इस यज्ञ का नाम ‘पयस्वान’ है। जहाँ यह यज्ञ सम्पन्न होता है, वहाँ सभी लोग ‘पयस्वी’-दिव्य रसों के भागीदार होते हैं॥7॥

एष वै ब्रह्मवर्चसी नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्तऽआ ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायते॥8॥

-इस यज्ञ का नाम ‘ब्रह्मवर्चसी’ (ब्रह्मवर्चस प्रदायक) है। इस यज्ञानुष्ठान में भाग लेने वालों को ‘ब्रह्मवर्चस्’ की प्राप्ति होती है॥8॥

एष अतिव्याधी नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्तऽआ राजन्योऽति व्याधी जायते॥9॥

-इस यज्ञ का नाम ‘अतिव्याधी’ है। जहाँ यह या अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है, वहाँ क्षात्र धर्म का पालन करने वाले अपने लक्ष्यवेध में समर्थ होते हैं॥9॥

एष वै दीर्घो नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्तऽआ दीर्घारण्यं जायते॥10॥

-इस यज्ञ का नाम ‘दीर्घ’ है। जहाँ इस यज्ञ का अनुष्ठान होता है, वहाँ पुण्य बन-सम्पदा की वृद्धि होती है॥10॥

एष वै क्लृप्तिर्नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते सर्वमेव क्लृप्तं भवति॥11॥

-इस यज्ञ का नाम ‘क्लृप्ति’ है। जहाँ यह यज्ञानुष्ठान सम्पन्न किया जाता है, वहाँ सभी लोगों की कर्म-कुशलता में वृद्धि होती है॥11॥

एष वै प्रतिष्ठा नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते सर्वमेव प्रतिष्ठितं भवति॥12॥

-इस यज्ञ का नाम ‘प्रतिष्ठा’ हैं। जहाँ यह यज्ञानुष्ठान सम्पन्न होता है, वहाँ सभी को पावन प्रतिष्ठा प्राप्त होती है॥12॥

यह सब महत्व समझने के बाद एक बात सहज रूप से मस्तिष्क में आती है, कि जिसका इतना प्रमाण है, वह अश्वमेध कोई सामान्य कर्मकाण्ड नहीं कोई व्यापक अनुष्ठान ही हो सकता है। इस अनुमान की पुष्टि निम्नाँकित प्रसंग से होती है-

प्रजापति ने अन्य यज्ञों को तो दूसरे देवताओं को दे दिया था, परन्तु अश्वमेध को अपने लिये रख लिया था। इस पर अन्य देवताओं ने विरोध करके

अश्वमेध में भी अपनी भागीदारी को सुनिश्चित कराया था।

प्रजापतिः देवेभ्यो यज्ञान्व्यादिशत्। आत्मन्नश्वमेधमधत्त तो देवाः प्रजापति भाग इति ....................। शतपथ 13/2/1/1

उक्त उपाख्यान से स्पष्ट होता है कि अन्य यज्ञों की अपेक्षा अश्वमेध अधिक दुष्कर प्रयोग है प्रजापति ने यज्ञ सहित सृष्टि की रचना की यह श्रीमद्भागवतगीता का मत है। उन्होंने यज्ञ के विस्तार की प्रार्थना भी अपनी प्रजा से की। किन्तु अश्वमेध प्रयोग सबके लिए साध्य न समझकर उसे देवताओं को नहीं सौंपा। बाद में विशेष आश्वासन दिए जाने पर उसमें उनकी भागीदारी भी सुनिश्चित की।

आगे के पृष्ठों पर यह स्पष्ट हो जायेगा कि यह प्रयोग जितना प्रभावशाली है, उतना ही दुरूह भी है। इसीलिए इसके अनेक गुह्य भाग अलंकारिक ढंग से वर्णित किये गये हैं, प्रजापति (लोकरक्षक दिव्य सत्ता) की कृपा के बिना समझ में नहीं आते।


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