महायज्ञों से महाप्राण कुँडलिनी का अलोड़न

November 1992

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‘यज्ञ’ तत्व जितना व्यापक है, उतना ही सूक्ष्म। इसे समझने और अनुभव करने वाले तत्वदर्शी ऋषियों ने घोषित किया, कि यज्ञ प्रक्रिया न केवल यज्ञ वेउियों हर ब्रह्माण्ड में अबाध गति से संचालित देव अग्नि परमात्मा ही है। क्योंकि उसी से इस विश्व में रूप है,दर्शन है और प्रकाश है। इसी कारण ऋग्वेद का प्रथम मंत्र भी उसी प्रधान अग्रणी देव अग्नि की ही स्तुति से शुरू होता है। इतना ही नहीं वेद की सबसे अधिक ऋचाएँ इन्हीं अग्नि देव की ही स्तुति में है।

सामान्य दृष्टि भी अगिन को प्रकाश, ऊर्जा एवं ऊर्ध्वगमन आदि गुणों से भरा पूरा देख सकती है। इसी की स्थापना एवं विधिवत पूजा सेवा, विधिवत प्रयोग यजन से इस विश्व के कर्म सम्पादित हो रहे है। यज्ञ द्वारा अग्नि में द्रव्यों को डालकर ऊर्ध्वगामी बना दिया जाता है। अर्थात् उनको पूर्णावस्था में स्थापित कर दिया जाता है। जब यह कार्य सृष्टि के तत्वों तक ही सीमित रहता है या सृष्टि के तत्वों के लिए ही किया जाता है तो वे यज्ञ द्रव्य यज्ञ ही रह जाते है और जब इन द्रव्यों के यज्ञ के साथ अपनी उन्नति के लिए कर्म किए जाते है, तो उनके साथ हमें अपना संकल्प क्रिया का उद्देश्य एवं अभिप्राय भी खोलना जरूरी हो जाता है। उद्देश्य विहीन असंगत कर्मों का यज्ञ में कोई स्थान नहीं।

प्राचीन समय में शारीरिक, सामाजिक एवं आत्मिक उन्नति के लिए अनेक प्रकार के यज्ञ प्रचलित थे। जिस निमित्त जो यज्ञ होते थे, उनमें उसका चित्रण या रूपक रूप से आभास प्रकट किया जाता था भौतिक तत्वों में अग्नि देव आयु को विशेष क्रियाशील करके मनोकामना पूर्ण करने में सहायक होते है। उसी प्रकार आत्मिक यज्ञों में आत्मा रूपी अग्नि प्राण आदि शरीर में स्थिति वायुओं द्वारा अलौकिक अनुभूतियाँ विभूतियाँ प्रकट करने में समर्थ होती है। यही कारण है तत्ववेत्ता ऋषियों ने प्राणविद्या को समझ कर यज्ञ की उस सूक्ष्मता को अपनाने पर जोर दिया है।

प्राणविद्या की बारीकियाँ समझने के लिए जरूरी है कि जिज्ञासु, शरीर में नासिका द्वारा निकाले गए एवं ग्रहण किए गए वायु के बारे में ज्ञान प्राप्त करें। दाहिने और बायें नासा छिद्रों से जो वायु ग्रहण की एवं त्यागी जाती है, उनमें बायें नासाछिद्र की क्रिया इड़ा नाड़ी से और दाहिने नासाछिद्र की क्रिया पिंगला नाड़ी से होती है। इन दोनों नाड़ियों का सम्बन्ध अग्नि और सोमतत्वों से है। विश्व में इन दोनों तत्वों के प्रतिनिधि सूर्य चन्द्र नाड़ी भी कहते है। इसी रहस्य को बताने के लिए दर्श और पौर्णमास्येष्टियों का विधान है। जिसने ये इष्टियाँ नहीं की वह आगे के यज्ञ कैसे करेगा? यज्ञ की अग्नि को विधिवत् स्थापित-रक्षित एवं संवर्धित करने के लिए इन इष्टियों का करना आवश्यक माना जाता था। इसका तात्पर्य यह था कि साधक को सबसे पहले प्राणविद्या के अनिवार्य तत्वों को समझकर उन पर अभ्यास करना चाहिए। इसी सिद्धांत के प्रतिपादन के लिए यज्ञ के प्रारम्भ में ही दोनों दर्श और पौर्णमास इष्टियाँ है। यही पिंगला और इड़ा सूर्य एवं चन्द्र होने से विश्व में अग्नि और सोमरूप से तथा उष्ण एवं शीतरूप से सर्वत्र विद्यमान है।

उपरोक्त दोनों यज्ञों द्वारा विद्या का व्रत ले लेने पर पशुबन्ध यज्ञ किया जाता था। क्योंकि जब तक पाशविक वृत्तियों पर अंकुश नहीं लगेगा, साधक का अभ्यास आगे बढ़ेगा नहीं। पपशुबन्ध अपनी आसुरी प्रवृत्तियों को बाँधने का रूपक है। जब तक पंच ज्ञानेन्द्रिय एवं छठे मन-इस प्रकार इन छहों को बाँधा नहीं जाता, प्राणवि? की उन्नति, ब्रह्मवर्चस् काम, ऊर्ध्व रेतस् एवं अमृतत्व प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं। इसी इन्द्रिय रूपी छः पशुओं के बन्धन का चित्रण पशुबन्ध यज्ञ है।

जब साधक प्राणों की अलग-अलग स्थिति जानकर उन पर इन्द्रियों के संयम द्वारा आधिपत्य स्थापित कर लेता है तभी वह अग्निष्टोम यज्ञ अर्थात् -सूर्य एवं चन्द्र नाड़ी इन दोनों से संयुक्त यज्ञ अग्नि-सोम यज्ञ कर सकेगा। इन्द्रियों का बाहरी संयम करने के बाद साधक की आन्तरिक वासनाएँ एवं प्रवृत्तियाँ बाधक न बनें इसके लिए उनका पूरी तरह से वध आवश्यक है। अग्नि-सोम यज्ञ, प्राणापानहुति यज्ञ इसी प्राण-अपान में समत्व बिठाने के लिए है। प्राण अपान के समत्व में अथवा इड़ा-पिंगला दोनों स्वरों के समभाव में चलने पर सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का संचार होने से-साधक कहीं अधिक उन्नत स्थिति प्राप्त कर पाता हैं तभी उसके द्वारा सोमयोग और वाजपेय यज्ञ कर पाना सम्भव है।

प्राणों को सुषुम्नानाड़ी के मार्ग द्वारा ऊर्ध्वगामी करने पर उसके साथ शरीर में बल और ओज बढ़ाने वाले वीर्य को प्राणों की ऊष्मा के द्वारा सोमरूप शांत एवं सूक्ष्म तथा अदृश्य बनाकर उसको ऊपर उड़ा ले जाना या उनका हरण कर लेना ओर उसको शरीर के ‘द्यु’ स्थान अर्थात् -मूर्धा में ले जाकर इस स्थान के देवताओं-इन्द्रियों को उस सोम का पान कराना, बल से संपन्न कराना वाजपेय यज्ञ है। वाज का तात्पर्य बल और ओज ही है। इस प्रकार पुनः पुनः यज्ञ करने से शतक्रतु अर्थात् -इन्द्र पद प्राप्त कर लेता है। उसके आधीन सभी देव-इन्द्रियाँ हो जाती है। क्योंकि बार-बार वह उन्हें तृप्त करता है। यही साधक का राजसूय यज्ञ है। इस प्रकार राजसूय या के द्वारा जो राजा बन जाता है, वही अपने आत्मा रूपी राष्ट्र या विश्व की समृद्धि के लिए अश्वमेध रच पाता है।

आध्यात्मिक प्राणविद्या के ये यज्ञ अपने अलंकारिक रूप में है। समझाने हेतु उनका चित्रणपूर्वक प्रदर्शन करने के लिए कर्मकांड मय यज्ञों को किया जाता है। जिस कर्मकाण्ड के पीछे आध्यात्मिक उन्नति का पाठ नहीं है, उसे निष्प्राण ही कहा जाएगा। वैदिक श्रौत यज्ञों का आत्मिक उन्नति के लिए उत्तम क्रम था। कालांतर में रूढ़िवाद में पड़कर ये यज्ञ प्राणविद्या से शून्य हो गए और इन यज्ञों द्वारा उन्नति का क्रम गायब हो गया। इतना ही नहीं नचारियों ने सिर्फ शब्द पढ़कर स्वयं को ज्ञानी समझने वालों ने यज्ञ में अश्लील कार्यों, पशुवध, माँसाहार आदि हेय कर्मों को भी समाविष्ट कर दिया।

बाहरी तौर पर प्रचलित हुए ये यज्ञ वास्तव में आँतरिक स्थितियों के ही परिचायक होते थे। इनमें प्रयोग किए जाने वाले शटदों और कर्मों में अनेकों गूढ़ रहस्य छिपे होते थे। सामान्यतया इन यज्ञों में कुछ आधार भूत कर्म होते थे। उनमें से कुछ दक्षिणाग्नि में, कुछ गार्हपत्याग्नि में कुछ उत्तराग्नि में सम्पन्न होते थे। आहुति के लिए आज्य (घृत) तथा हवि प्रयोग में लाया जाता था। यज्ञशाला में एक स्तंभ जिसे यूप कहते है गाड़ा जाता था।इससे यजमान -पत्नी को बाँधा जाता था। दीक्षा ग्रहण करने वाले यजमान को व्रतशील रहना पड़ता था। इसमें पशु बन्धन भी होता था।

यज्ञों में होने वाले ये सभी कर्म आध्यात्मिक उन्नति के चित्रण के लिए ही थे। यजमान की श्रद्धा ही वास्तव में बाह्य या में पत्नी रूप से हैं इसी आधार पर श्रद्धा को मनु की पत्नी का रूप दिया गया। ‘पत्युर्नयज्ञ संयोगे’ पत्नी के बिना यज्ञ नहीं पाणिनि के इस सूत्र का अर्थ इतना ही है, श्रद्धा के बिना यज्ञ नहीं। यजमान का लक्ष्य ही यज्ञ स्तम्भ ‘यूप’ रूप में प्रकट किया जाता है। यूप से यजमान पत्नी को बाँधने का कतलब है श्रद्धा -लक्ष्य बँधी होनी चाहिए। ताकि श्रद्धा अविचलित रह सके और यज्ञ पूर्ण श्रद्धा से सम्पन्न हो।

इन यज्ञों द्वारा शरीर के आंतरिक स्थानों का चित्रण भी किया जाता हैं अनेक कार्यों का चित्रण एक ही रूपक में प्रकट कर देना यज्ञ की गम्भीर एवं विशद् विचार प्रणाली का द्योतक है। ‘यूप से बँधी हुई यजमान पत्नी का रहस्य है अड़ा और पिंगला के विधिवत् होम में मेरुदण्ड में सुषुम्ना नाड़ी के नीचे वाले भाग में साढ़े तीन फेरे लिए लिपटी कुण्डलिनी शक्ति-की प्रतीक यूप से बँधी यजमान पत्नी है।

यज्ञों में पशु बन्धन और वध का अर्थ-पाशविक वृत्तियों पर नियंत्रण और उनका समापन ही समझा जाना चाहिए। “अजैर्यष्टव्यम्’- आदि वाक्यों के वास्तविक अर्थ न समझने से यज्ञ का सौंदर्य नष्ट हो गयाँ मनुष्यों में जो कामवासना की प्रवृत्ति है, उसको संयमादि द्वारा नियंत्रित करना ही अज अर्थात् -काम का हनन हैं। इसी प्रकार ‘अविहनन से तात्पर्य भेड़ मारना नहीं समर्य मार्ग का भेदन करना है। रुति वाकयों के अनुसार ‘सूर्य द्वारेण तेविरजा प्रयानित’ मोक्ष की कामना करने वाले सूर्य द्वार-द्वारा जाते है। परंतु जब अध्यात्म विद्या से शून्य मनुष्यों के हाथ में कर्मकाण्ड आया, तो अजबध, अविवध का शब्दार्थ लेकर बकरे और भेड़ें मारी जाने लगीं।

उपरोक्त दोनों प्राणियों के अतिरिक्त यज्ञ में गौ और अश्व के वध प्रारम्भ हो गए। जब कि गौ का तात्पर्य वाणी ही कामधेनु है। इसी से संसार के इच्छित कर्म हो रहे हैं वेद में कहा गया है। ‘वाचो में विश्वभेषज’ अर्थात्-मेरी वाणी विश्व की औषधि हैं। औषधि बनने कि लिए उसे कूटा–पीसा तपाया भस्म किया जाता है। इतना ही नहीं उसमें अनेक रसों का पुट देने की बात भी विख्यात है। जब संसार को महौषधि तैयार करनी हो तब कितनी बार रगड़ना, मारना, तपना पड़ेगा? वाणी पर कठोर संयम एवं उसे मृदु भाषी बनाना गौमेध है।

यदि इस अर्थ को त्याग कर गोमेध से गो पशु का वध किया जाय तो ‘स्वर्ग कामोयजेत’ कभी चरितार्थ न होगा। जब कि जिह्वा में मधुमत्तमा’ के आदर्श पर चलने से इसी जीवन में स्वर्ग की प्राप्ति निश्चित है। इसी प्रकार राष्ट्र की प्रजा में से आसुरी प्रवृत्तियों का नाश करा ही अश्वमेध है।

सोमरस का विवरण भी कुछ इसी तरह आलंकारिक है। वेद में आता है ‘अथ वै सोमो वृष्णी अश्वसयरेतः’ अर्थात्- वर्षशील सूर्य की ऊष्मा से पृवी स्थिति जल का जो सूक्ष्म रूप होकर अंतरिक्ष में विचरता है -वहीं सोमवल्ली है। यही सूर्य का रेत है इसी प्रकार शरीर स्थित प्राण रूपी सूर्य की उष्मा ये अधोगामी रेत (वीर्य) को सूक्ष्म और ऊर्ध्वगामी बनाकर ऊर्ध्वरेता बनना सोमपान है। इस सोमपान के लिए इन्द्र को बुलाना पड़ता है। बिना इन्द्र के सोमपान को पान करके मृत्यु को पाकर अमृतत्व को पा लेता है। तभी ‘अथमृत्योऽमृतो ीवति, सार्थक होता है। आध्यात्मिक यज्ञों में सोमपान का महत्व होने से प्रतीकात्मक यज्ञों में उसका रूपक औषधियों के रस को ग्रहण करने से लिया गया है।

दक्षिणाग्नि तो देह की जठराग्नि का ही रूपक है। गार्हपत्याग्नि की स्थापना ओर उसमें हवि प्रदान करना हृदयस्थ अग्नि में प्राणदान की आहुति की रूपक है। इन दोनों के द्वारा शरीर रस रसयुक्त तथा प्राण से संयुक्त रहता है। आह्वनीयाग्नि एवं उत्त्राग्नि का सम्बन्ध रहता है। जो मूर्धा में है। जिसमें सप्त होता ज्ञानाग्नि से है, जो मूर्धा में है। जिसमें सप्त होता यजन करते है। अथवा देवरूपी इन्द्रियाँ अपना-अपना काम कर रही है। इन्हीं चारों अग्नियों से जरामर्य सत्र रूपी या हो रहा है। इस प्रकार के आध्यात्मिक यज्ञों में आत्मा का परमानन्द स्वरूप परमात्मा में जो बार-बार गोता लगाता है वहीं बाह्य यज्ञों में अवभृथ स्नान यज्ञ के अन्त में किया जाने वाला स्नान है। क्योंकि परमानन्द प्राप्ति ही आध्यात्म यज्ञों का लक्ष्य होता है। यही पर उसकी समाप्ति है। अतः यज्ञान्त स्नान को यह स्थान प्राप्त हुआ।

इस तरह सम्पूर्ण प्राण विद्या का चित्रण इन श्रोत यज्ञों में प्रकट हो रहा है। यों-तो ये सभी यज्ञ अपने आप में अनेकों रहस्य छुपाए हुए- अपने प्रक्रिया और परिणाम में मनुष्य के समक्ष उसके अन्तराल बहुमूल्य शक्तियों सिद्धियों को उजागर करने वाले हैं, पर अश्वमेध यज्ञ की बात ही निराली है, इसके रहस्य को जानने अनुभव करने वाले को त्रिभुवन विजयी कहना अतिशयोक्ति न होगी।

अश्वमेध यज्ञ की स्थिति में जब योगी होता है, तब वह अपने प्राण रूपी वस्त्र अश्व को शरीर की समस्त नाड़ियों में ध्यान की विजय के लिए भेजता है। शरीर रूपी राष्ट्र की नाड़ियाँ ही प्राण रूपी अश्व के विचरण का क्षेत्र है। इसमें यदि कहीं विकार होगा तो प्राणरूपी अश्व का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा। अथवा इस राष्ट्र में कहीं भी विकार रूपी शत्रु होगा वह तो प्राणरूपी अश्व को बाँध लेगा। ऐसी स्थिति में अश्वमेध कर्ता को उसके निवारणार्थ जो कोशिशें करनी पड़ेगी वे ही युद्ध है। इस युद्ध में यदि प्राणरूपी अश्व विकार रूपी शत्रुओं द्वारा बँधा रहे तो अश्वमेध की असफलता है। यदि विकारों को जीतकर निर्विघ्न प्राणों का संचार समस्त नाड़ियों में किया जा सके- तो ऐसी स्थिति में शरीर की नस नाड़ियों की पूर्ण शुद्धि प्राण को भली प्रकार अपने वश में करने के रूप में हो सकेगी। इसके परिणाम अतीन्द्रिय, क्षमताओं लोक-लोकान्तर में गमन आत्मबोध, तत्व विवेक के रूप में अनुभव किए जा सकते हैं।

जिस प्रकार बिना नक्शे के भवन नहीं बनता, उसी प्रकार बिना आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के कोई यश नहीं हो सकता है। अश्वमेध की इस आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का चित्रण्स-शान्तिकुँज द्वारा संचालित अश्वमेध महायज्ञों की भव्य श्रृंखला के रूप में हो रहा है। इसे साधकों-आत्मविद्या के पिपासुओं के समक्ष प्राण विद्या के रहस्योद्घाटन की प्रक्रिया के रूप में समझना चाहिए। जो क्रिया व्यक्ति रूपी राष्ट्र में है, वे ही समष्टि राष्ट्र में है। ‘राष्ट्र’ वा अश्वमेधः’ में यही रहस्य निहित है। अश्वमेध याजकों को अपनी इन्द्रियों पर और दुष्प्रवृत्तियों पर विजय पाना है। ऐसा करने पर ही-अश्वमेध के आध्यात्मिक फलितार्थ प्राणविद्या के रहस्यात्मक पक्ष उनके अपने जीवन में जगमगाते दीख पड़ेंगे।


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