यज्ञ, महायज्ञ,अश्वमेध यज्ञ

November 1992

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यज्ञों को तीन चरणों में विभक्त किया गया है। व्यक्तिगत जीवन के उत्कर्ष में यज्ञों की भूमिका और सामाजिक जीवन में परिष्कार के लिए महायज्ञ सम्पन्न किए जाते रहे है। पर जब समूचे राष्ट्र और वातावरण के आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव होती थी तब सार्वभौम स्तर में अश्वमेधों की ही परम्परा रही है। उनका प्रतिफल भी उसी तरह क्रमशः बृहत्तर है।

श्रीमद्भागवत् में यज्ञ की महत्ता का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। अनेकों ऐसे प्रसंगों का भागवत में वर्णन है जिससे यज्ञ की महाशक्ति का पूरा परिचय मिलता है। सृष्टि का आरंभ यज्ञ से ही हुआ, इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है।

जिज्ञासा के अनुसार उत्तर रूप में ब्रह्मा जी विराट् भगवान के स्वरूप का वर्णन करते हैं-

“यदास्य नाभ्याँ..................चतुर्होत्रं च सत्तम्॥’

भाग.-स्क-2, अ. 6, श्लो.-22,23, 24 अर्थात् -जिस समय व्यापक ब्रह्म की नाभि से मैं उत्पन्न हुआ, तब पुरुष के अवयव को छोड़कर यज्ञ की कुछ भी सामग्री नहीं देखी।

उनके यज्ञ के पशु, वनस्पति, कुशा और देवताओं के यज्ञ करने योग्य भूमि और जिसमें बहुत से गुझा भरे हों, ऐसे समय की रचना की। सब पात्रादि रच्, औषधि, घृतादि, मधुरादिक, स्वर्णादि धातु, मृत्तिका, जल, ऋक् यजु, साम एवं अथर्ववेद,चार ब्राह्मण और जिससे हवन किया जाय -ऐसे कर्मों की भी सृष्टि की।

ब्र. पु. पूर्वभाग- प्रक्रियावाद अ. 1, श्लोक 5-6-7 उल्लेख है कि कल्प के आरंभकाल में जिस समय सृष्टि की रचना की जा रही थी, उस समय अति पुण्यमय महायज्ञ का अनुष्ठान सहस्र संवत्सर के लिए हुआ था। इस महायज्ञ के अनुष्ठाता स्वयं ब्रह्मा जी थे और उनकी पत्नी इला वहीं उपस्थित थी। शमित्रका का काम स्वयं बुद्धिमान, तेजस्वी मृतयुदेव ने किया था।

राजा दक्ष ने अपने यज्ञ का विध्वंस होने तथा सुपुत्री सती के निधन के उपरान्त बहुत दुख माना और शिवजी से क्षमा माँगने के पश्चात् अपनी भूल के प्रायश्चित रूप में ही विशद यज्ञ को पूरा किया। इसका वर्णन भागवत् के चतुर्थ स्कंध के सातवें अध्याय श्लोक 16-18 में इस प्रकार है-

‘इस भाँति दक्ष ने अपना अपराध क्षमा कराया और ब्रह्माजी से सम्मति लेकर उपाध्याय, ऋतध्वज, अगिन सहित यज्ञकर्म आदि का सुन्दरता सहित विस्तार किया। तीन कपाल का पुरोडाश, विष्णु के निमित्त, यज्ञ सम्पूर्ण करने के हेतु प्रथमादिक वीरों की शुद्धि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दिया।

अध्वर्यु ने जब हवि हाथ में लेकर यजमान सहित विशुद्ध बुद्धिपूर्वक हवनकर भगवान का ध्यान किया उसी समय उसे विराट् पुरुष के दर्शन हुए।

ऋषभदेव जी भगवान के अवतार माने जाते है। उन्हीं के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ है। भरत ने महायज्ञों द्वारा ही इस देश को तपोभूमि बनाया था।

तीर्थों की स्थापना वहाँ-वहाँ ही हुई जहाँ-जहाँ बड़े महायज्ञ हुए। ‘प्रयोग’ शब्द में “प्र” उपसर्ग को हटा देने पर ‘याग’ शब्द रह जाता है। याग-यज्ञ को प्रचुरता रहने के कारण ही यह स्थान तीर्थराज बना। काशी, वाराणसी के दशाश्वमेध घाट-इस बात के साक्षी है कि इन स्थानों पर दस बड़े-बड़े यज्ञ हुए है। और उसी के प्रभाव से इन स्थानों को इतनी प्रमुखता मिली। स्कंद पुराण ख. 4, उ. सं. अ. 52 श्लोक 68-69 में कहा गया है कि काशी राज दिवोदास ने काशी नगरी में दस अश्वमेध नामक यज्ञों से महायोगेश्वर भगवान का यजन किया। उस दिन से दशाश्वमेध नाम से वह तीर्थ प्रख्यात हुआ। पहले उसका नाम रुद्रसरोवर था। दस अश्वमेध करने से ही उस काशी का नाम दशाश्वमेध तीर्थ हुआ।

ऋषियों ने सूत जी से प्रारंभिक महायज्ञ के स्थान, समय प्रकार आदि के सम्बन्ध प्रश्न किया। उसके उत्तर में सूत जी ने जो कहा वह वायु पुराण प्र.पा.द्वि. अध्यात में इस प्रकार वर्णित है।

जहां विश्व की सृष्टि की इच्छा से सृष्टि के आदिकाल में सृष्टाओं ने हजारों वर्ष पर्याप्त पवित्र यज्ञ किया था। जिस यज्ञ में स्वयं तप ही यजमान और ब्रह्मा ही ब्रह्मा बने थे। महान आत्माओं के इस दीर्घ एवं विशाल यज्ञ में धर्म की नेमि घूमते घूमते विदीर्ण हो गयी थी इसलिये ऋषि मुनि पूजित उस प्रदेश का नाम नैमिषारण्य पड़ गया। उसके उपरान्त-

‘नैमिशेड निनिशिक्षेत्रे ऋशयः षौनकादयः। स्त्र स्वर्गाय लोकाय सहस्रसमामासत॥ भाग दृ प्र.स्क.प्र.अ.श्लोक 4

अर्थात् एक बारी षैनक आदि 88000 ऋषियों ने स्वर्ग प्राप्ति हेतु नेमिशारण्य के पवित्र क्षेत्र में दस हजार वर्ष तक लगातार दीर्घ महायज्ञ करने का संकल्प किया। उन्हीं यज्ञादि के पवित्र प्रभावों से आज भी वह क्षेत्र पवित्र बना हुआ है।

अयोध्या के सम्बन्ध में उल्लेख है कि अयोध्यापुरी में सूर्यवंशी राजा वेवस्वत मनु चक्रवर्ती नरेश के पर पर प्रतिष्ठित थे। वे सदा महायज्ञ और दान में लगे रहते थे। इससे उनके शासनकाल में अयोध्यापुरी के भीतर मृत्यु रोग और वृद्धावस्था का कष्ट किसी को भी नहीं होता था।

अश्वमेध यज्ञों की फलश्रुतियों तो और भी अधिक विशद् है। मध्ययुग में अश्वमेध का नाम लेते ही युद्ध का सा बोध होने लगा था जब कि यह लोक कल्याण की दृष्टि से सम्पन्न किये गये विशिष्ट महायज्ञ हुआ करते थे। इन अश्वमेध यज्ञों की महिमा से वेद उपनिषद् दर्शन एवं पुराणों के पन्ने भरे पड़े है। प्राचीनकाल में वह प्रकृति संतुलन,देव अनुग्रह और राष्ट्र संगठन के रूप में सम्पन्न किये जाते रहे है। शास्त्रकार का कथन है। अश्वमेध यज्ञ में भाग लेने से गया जाने का पुण्यफल गंगा यमुना स्नान का पुण्यफल तथा कोटि होम कर पुण्यफल मिलता है। मत्स्य पुराण-

इमा नु कं भुवना सीशघामेन्द्रष्च विष्वे च देवाः। आदित्यैरिन्दः सगणो मरुद्भिरस्मभ्यं भेशजा करत्। यजु 24-46

अश्वमेध यज्ञ से यह सम्पूर्ण भुव निश्चय ही सुख प्राप्त करते है। गण के सहित इन्द्र और सम्पूर्ण देवता, बारह आदित्य उनचास मरुतों के साथ औषधि को हितकारी करते है। पर्यावरण संतुलन ऐश्वर्यवान इंद्रिययज्ञ शरीर और सन्तानों को श्रेष्ठ गुण सम्पन्न बनाते है- महीधर भाष्य

सर्वानह बैकामान आप्नोति। यो अष्वमेधेन यजते॥ शतपथ 13-4-9-9

जो अश्वमेध का यजन करते है उनकी सभी कामनायें पूर्ण होती है।

यज्ञेनाष्वेधेनायुः कल्पताम.......॥

अश्वमेध यज्ञ से आयु की वृद्धि होती है। महीधर भाश्य22-23

हे तात! जिस अश्वमेध यज्ञ के निमित्त पधारे ऋत्विजों के जूठे जल में लौटने से नकुल नेवले का शरीर स्वर्णमय हो गया, उसमें भाग लेने का पुण्यफल तो अतुलनीय हैं।

राश्ट्रं वा अष्वमेधः। वीर्य व अष्वः॥ शतपथ ब्राह्मण 13-1-6

देशवासियों के वीर्य व बल की वृद्धि करना और राष्ट्र को समर्थ बनाना ही अश्वमेध का उद्देश्य होता है।

महाराज वसु ने अश्वमेध सम्पन्न किया। बृहस्पति उपाध्याय उसके होता थे। प्रजापति के तीन पुत्र ऋषियों में श्रेष्ठ कपिल कठ तैत्तिरीय कणादि उसके ऋत्विक् थे। यह सर्वथा हिंसा रहित पवित्र यज्ञ था “ न तत्र पषुघातोड्भूत” उसमें किसी तरह की जीव हिंसा नहीं हुई। महाभारत शांतिपर्व 3-336

भागवत् महापुराण च. स्क. अ. 14 में उल्लेख है राज वेन ने अपने राज्य में यज्ञादि करने की मनाही कर दी। उसने कहा-राजा में सभी देवों का निवास होता है, अतः केवल मेरा ही भजन और पूजन करो। इस पर ऋषिगण राजा वेन को समझाते हुये कहते है -

हे राजन! सर्वलोक और देवता यज्ञ में निवास करते है। उन वेदत्रयीमय द्रव्यमय एवं तपोमय ईश्वर को विप्रगण आपके कल्याण तथा प्रजा की समृद्धि के लिये नाना विधि विधानों से चित्र विचित्र यज्ञों द्वारा यजन करते है और आप तो ऐसे यज्ञों में सहायता देने योग्य है। हे वीर! आपके राज्य में लोगों के यज्ञ करने से श्री नारायण के कलारूप सभी देवगण संतुष्ट होकर सभी को मनोवाँछित फल देंगे। इसलिये आपको इन यज्ञों की अवहेलना नहीं करनी चाहिये।”

जब उसने बहुत समझाने पर भी नहीं माना और यज्ञ बन्द करने के दुराग्रह पर अड़ा ही रहा तो ऋषियों ने शाप देकर राजा वेन को मृत्यु की गोद में सुला दिया। तदुपरान्त उनकी भुजाओं का मंथन किया, जिससे राजा पृथु का ज्रन्त हुआ।

अवादीक्षत राजा तु हयमेध षतेन सः। ब्रह्भावर्त मनः क्षेत्रं प्राची सरस्वती॥

अर्थात् फिर पृथु ने एक सौ अश्वमेध सरस्वती है ब्रह्मा और मनु ब्रह्मावर्त्त क्षेत्र है।वहीं अश्वमेध सम्पन्न हुये।

यह एक दुःखद प्रसंग है कि मध्य युग में कुछ तो विदेशी आक्रमणों के कारण तथा वैदिक संस्कृति षनैः षनैः विलुप्त होने के कारण इन यज्ञों में हिंसा होने का भ्रमपैदा कर दिया गया। इस सम्बन्ध से पं. बेनीराम जी की यज्ञ मीमाँसा तथा महामना सातवलेकर जी ने बहुत व्यापक अध्ययन किया और सही स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया। अपनी पुस्तक में महाप्राज्ञ सातवलेकर जी ने लिखा है।

मनुष्य शरीर में सद्चिन्तन के देवता और दुष्प्रवृत्ति के दानव पशु दोनों विद्यमान होते है। मनुष्य शरीर में तो यह निराकार होते है। पर वे जब साकार हो जाते है तो ये बाहर दिखाई देने? वाले पशु बन जाते है। अर्थात् बाहर के पशु भाव ही जीव को साकार पशु योनि में ले जाते है। ष्येन बाज घमंड का रूप है। गिद्ध का प्रतिनिधि चापलूसी से कुत्ते की पशु योनि मिलती है, अज्ञानग्रस्त जीव उल्लू या गधे के रूप में जाना जाता है। पशु प्रवृत्तियाँ जब घोड़े जैसी शक्तिशाली और सर्वव्यापी हो जाती है तब अश्वमेध आयोजन किये जाते है। जिनमें इन पशु प्रवृत्तियों की बलि देने का विधान ही अश्वमेध है।”

अश्वमेधों की तैयारियों के जो संदर्भ ओर प्रकरण आर्षग्रंथों में मिलते है उनकी पवित्रता भी इस तथ्य को खंडित करती है कि इन यज्ञों में किसी तरह की जीव हिंसा होती थी।

हिन्दू धर्म कोष का कथन है- अश्वमेध का घोड़ा जिस दिन से चतुर्दिक भ्रमण के लिये छोड़ा जाता था, उसी दिन से प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न एवं सायं सविता के लिये तीन इश्टियाँ की जाया करती थी। सविता को प्रातः सत्यप्रसव के नाम से मध्याह्न में प्रसविता के नाम से तथा सायंकाल में आसविता के नाम से पूजित किया जाता था। यह तथ्य आश्वलायन श्रोतसूत्रं के 10-6-8 में लाट्यायन श्रौतसूत्र के 9-9-90 में तथा कात्यायन श्रैतसूत्र के 20-2-6 में वर्णित है। अर्थात् गायत्री उपासना पूरे वर्ष भर तक चलती थी। उसके बाद तीन दिन तक अश्वमेध यज्ञ चलता था।

गन्धर्वी अस्य रषनामगृभ्णात् सूरादष्वं सववो निरतश्ट। ऋग्वेद 1-563-2

व्सुओं ने यज्ञीय अश्व को सूर्य से बनाया है अश्वमेध की सफलता के लिये सूर्य गायत्री उपासना अनिवार्य है।

इसी रूप में इन अश्वमेध आयोजनों में भाग लेना चाहिये और अपना जीवन कृतकृत्य करना चाहिये।


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