अश्वमेध श्रृंखला-महाकाल की प्रतिज्ञा का उत्तरार्द्ध

November 1992

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अखण्ड-ज्योति का प्रकाशन गायत्री उपासना अंकों से प्रारम्भ हुआ था। तब प्रथम पृष्ठ पर छपने वाली गायत्री माता की छवि के नीचे एक पंक्ति छपा करती थी-”सन्देश स्वर्ग का नहीं धरा पर लाई, इस धरती को ही स्वर्ग बनाने आई।” तब शायद ही किसी का महाप्राण सत्ता की इस गर्वोक्ति पर विश्वास होता रहा हो, पर कालान्तर में महाकाल ने उस देव सत्ता को किस तरह घर-घर प्रतिष्ठित कर दिया यह सब के सामने है। गायत्री महाविज्ञान के तीन खण्डों के अब तक प्रायः तीस संस्करण छप चुके है ओर उनने इस दिव्य सत्ता के प्रति जन-जन को श्रद्धा से भर दिया है।

परम पूज्य गुरुदेव का प्रत्यक्ष शरीर पुरुष प्रधान था पर हृदय और अन्तः करण में माँ की सत्ता ओत-प्रोत थी। उनका रोम-रोम गायत्रीमय था। वे आद्य शक्ति के सजीव श्रीविग्रह थे। जीवन भर उन्हीं का लीलागान करने वाले उन देवपुरुष को अन्त में माँ ने अपनी ही गोद में समाहित कर लिया। महाप्रयाग से पूर्व उन्होंने घोषणा की थी जो कार्य स्थूल शरीर से संभव नहीं हुआ उससे लाखों गुना कार्य कारण सत्ता करेगी। अब तक जो हो चुका था वही क्या कुछ कम था? आगे की तो कल्पना कर सकना भी संभव नहीं था।

महाकाल किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, वह केवल जगाने और साथ देने वालों पर प्रकट होता और अनुग्रह करता है। वह लाखों लोग इस तथ्य के साक्षी हैं, कि इस पटाक्षेप के पश्चात् एक वर्ष में ही सम्पन्न शक्ति साधना एवं उसकी पूर्णाहुति से कितनी जबर्दस्त शक्ति प्रस्फुटित हुई? देव संस्कृति को जन-जन तक पहुँचाने, असुर संस्कृति को मार भगाने के लिए एक जुट हुए देवत्व का शपथ समारोह कितना बृहत् ओर व्यापक था? जिस तरह प्राचीन काल में भगवती हारे हुए देवताओं की रक्षा का उद्घोष करती रही है, उसी तरह शपथ समारोह के अवसर पर ही देव संस्कृति दिग्विजय दशाश्वमेधों की घोषणा हुई। यहाँ से महाकाल के युग निर्माण संकल्प का उत्तरार्द्ध प्रारम्भ हुआ।

तब यह समझ में नहीं आ रहा था कि अश्वमेध स्तर के आयोजन सुने तो गये है महाकाल ने उँगली पकड़ कर जिस स्थिति तक पहुँचा दिया है, वह स्वतः में किसी अदृश्य सत्ता के चमत्कार से कम नहीं है। यह अश्वमेध अंक जब तक लोगों के हाथों में पहुँचेगा तब तक प्रथम अश्वमेध अपनी तैयारियों के अन्तिम चरण में होंगे इस समय वातावरण एक अव्यक्त आत्मविश्वास से भरा हुआ है। सर्वत्र एक ही स्वर, एक ही सृष्टि, एक ही सृजन गूँज रहा है,। जिसका नाम है --देव संस्कृति दिग्विजय”। सवालाख व्यक्तियों ने 6/7/8 जून 92 को एक स्थान पर एक स्वर से जो प्रतिज्ञा की थी-उसके पश्चात् गायत्री शक्तिपीठों के सम्मेलन तक भी इतने ही परिजनों ने खण्ड-खण्ड इस प्रतिज्ञा को दोहराया। यह तुमुल उद्घोष अब इतना विराट हो गया है कि धरती के कोने-कोने तक जा पहुँचा है। जिधर कान लगाओ उधर एक ही आवाज सुनाई देती हैं, युग परिवर्तन, देव संस्कृति दिग्विजय और अश्वमेध, अश्वमेध। प्राचीन काल के इतिहास की किस तरह पुनरावृत्ति होने जा रही है लोग यह स्पष्ट अपनी इन्हीं आँखों से देख सकेंगे।

अश्वमेध इस युग की असाधारण कृति है। उन्हें जन-जन तक पहुँचाने के लिए देव समुदाय को अब तत्काल तत्पर हो जाना चाहिए। यह पंक्तियाँ लिखे जाने तक प्रायः ढाई हजार सृजन सैनिक राजस्थान अश्वमेध के लिए क्षेत्रों में प्रविष्ट हो गए है। महाकाल के कदम से कदम मिलाकर कार्य करने का श्रेय अर्जित करना ही इस समय की सबसे बड़ी समझदारी है,विचारशील उसमें विलम्ब न करें।


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