यज्ञ बलि−देव दक्षिणा

November 1992

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यज्ञ के साथ ‘स्वाहा’ एवं स्वधा प्रयोगों का निर्देश शास्त्रों ने दिया है।

यज्ञ रूप परमात्मा की स्तुति में कहा गया है त्वमेकं शरण्यं एक मात्र (तुम्हीं शरण में जाने योग्य समर्पण योग्य) त्वमेकं वरेण्यँ (तुम ही एक मात्र वरण करने योग्य−धारण करने योग्य) हो।

यज्ञाराधना में ‘स्वाहा’ समर्पित होने की तथा ‘स्वधा’ स्वयं में धारण करने की विधा रूप है। स्वाहा के तीन अर्थ किये गये हैं−

(1) सुसुष्ठआह−सु−आह अर्थात्−सुन्दर कथन।

(2) स्व वाक् आह इति − अपनी वाणी, अपनी सहमति से कहा गया वाक्य।

(3) स्व आहुतं हविर्जुहोति वा। हवि की या अपनी क्षमता−प्रतिभा−भावना की आहुति देना।

स्वाहाकार तो यज्ञ के साथ−साथ चलता ही रहता है। यज्ञ संचालक याजकों की भावनाओं को उक्त नियमों के अनुकूल बनाये रखते हैं। किन्तु इतने मात्र से यज्ञ को पूरा नहीं माना जाता। उसके साथ स्वधा प्रयोग किया जाता है, तभी यज्ञ की पूर्णता मानी जाती है।

स्वधा के भी तीन प्रकार के अर्थ किये गये हैं− (1) अपना निजी स्वभाव या निश्चय−संकल्प धारण करना।

(2) स्वादपूर्वक−रुचिपूर्वक−प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करने की क्रिया।

(3) पितरों के निमित्त दी गयी भेंट−आहुति।

पितृकर्म में ‘स्वधा नमः’ वाक्य का प्रयोग बहुत होता है। इसका भाव है, कि पितृगण प्रसन्नतापूर्वक यह ग्रहण करें और तृप्त हों।

यज्ञ में यज्ञ भगवान को तृप्त करने, आहूत देवताओं को तुष्ट करने, यज्ञ में सहयोगी विशेषज्ञों को संतुष्ट करने का निर्देश है। इसके बिना यज्ञ को पूरा हुआ नहीं माना जाता। यह यज्ञ का स्वधा प्रयोग कहा जाता है।

इस प्रसंग में यज्ञ−बलि, एवं देवदक्षिणा प्रक्रिया की जाती है।

बलि के संदर्भ में पूर्व लेखों में स्पष्ट किया जा चुका है कि यज्ञ प्रयोजनों में उसका अर्थ हिंसापरक नहीं किया जा सकता। श्रद्धापूर्वक भोज्य पदार्थ−अन्नादि अर्पित करने को ही कर्मकाण्ड में बलि कहा जाता है, श्राद्धकर्म में देवबलि, गौबलि, काकबलि आदि एवं बलिवैश्वदेव का उल्लेख करके यह बात समझायी जा चुकी है।

अस्तु, यज्ञ में यज्ञ पुरुष तथा आहूत सभी देव शक्तियों को भोजन अर्पित करके तृप्त किया जाता है, उसे बलि कहा जाता है। कार्य समाप्त होने पर भी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करने से देव शक्तियाँ तुष्ट होती हैं।

यज्ञ मीमाँसा में स्पष्ट लिखा हुआ है−

बलिस्तु त्रिविधो ज्ञेयस्तान्त्रिकः स्मार्त एव च। वैदिकश्चेति............॥

वैदिकं तु बलिं दद्यादोदनं स्विन्नमाषवत्। सरोचनमतिक्रूर दैवते वटकान्दितम्॥

‘बलि तीन प्रकार की होती है−तान्त्रिक, स्मार्त्त और वैदिक। पकाये हुए माष अर्थात्−उड़द से युक्त ओदन (भात) वैदिक बलि कही जाती है। अतिक्रूर देवता के लिए सिंदूर और वटक (बड़ा) से युक्त ओदन की बलि देनी चाहिये।’

स्पष्ट है कि आहार रूप में देवताओं को शुद्ध सात्विक पदार्थ ही प्रिय होते हैं।

किन्तु देवताओं को भोजन भेंट करके तृप्त करना भी प्रतीकात्मक ही है। पदार्थ तो सारे उन्हीं ने हमें दिये हैं, उन्हें कमी किस बात की है? किन्तु उनके दिए में से उनके निमित्त अंश निकालकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। अर्पित सामग्री अपने लिए प्रयुक्त ने करके परमार्थ भाव से वितरित कर दी जाती है। इस परमार्थ वृत्ति युक्त कृत्य से देवता निश्चित रूप से बहुत तुष्ट होते हैं।

देवताओं को प्रसन्न करने तुष्ट करने के लिए देव दक्षिणा का विधान कहा गया है। देवता तब तुष्ट होते हैं, जब वे देखते हैं कि आवाहनकर्ता की श्रद्धा वास्तविक है। वास्तविक श्रद्धा में सम्मान के साथ अनुगमन की वृत्ति भी होती है।

गीता का कथन है−

योयच्छद्ध स एवसः

अर्थात्−जो जैसी श्रद्धा रखता है, वस्तुतः वह वैसा ही है।’ श्रद्धास्पद के अनुरूप बन जाना ही श्रद्धा की सचाई का प्रमाण है। देवताओं को अपनी श्रद्धा की सत्यता का प्रमाण देकर ही वास्तव में तुष्ट किया जा सकता है। अस्तु, उनको दक्षिणा रूप में ऐसे संकल्प−ऐसे व्रत देने चाहिए जिससे अपने अंदर देवत्व का विकास हो।

देवत्व के विकास के दो क्रम हैं (1) देवों के प्रतिकूल, दुष्प्रवृत्तियों, विकारों को घटाना तथा (2) देवों के अनुकूल सत्प्रवृत्तियों सत्कर्मों को जीवन में बढ़ाना।

सामान्य रूप से प्रत्येक विचारशील व्यक्ति अपने अंदर से विकारों को हटाने तथा संस्कारों को अपनाने के बारे में सोचता, प्रयास करता है। किन्तु आज के युग में अयज्ञीय प्रवृत्तियों का इतना जोर है कि सामान्य संकल्प तो उनके आगे टिक ही नहीं पाते। इसीलिए यज्ञीय वातावरण में देवशक्तियों के संरक्षण में आत्मपरिष्कार−आत्मनिर्माण−आत्मविकास के संकल्प करना अधिक कारगर होता है।

अश्वमेध प्रयोग देवसंस्कृति को जन जीवन में पुनः प्रतिष्ठित करने के निमित्त किये जा रहे हैं। उसी उद्देश्य से देवशक्तियों तथा ऋषि सत्ता का सहयोग माँगा जाता है। वे प्रसन्नतापूर्वक सहयोग के लिए प्रस्तुत भी होते हैं। अपनी क्षमता से अनुदानों−वरदानों की वर्षा का सुयोग रचते हैं। किन्तु एक प्रश्न सामने आ खड़ा होता है। वे किसे दें? क्यों दें? निश्चित निर्धारित उद्देश्य के लिए वे देंगे और प्रामाणिक व्यक्तियों को वे देंगे। श्रेष्ठ उद्देश्य की घोषणा तो यज्ञानुष्ठान के साथ ही हो जाती है। उसमें श्रद्धापूर्वक भाग लेने वाले व्यक्ति उसी उद्देश्य के लिए यजन करते हैं।

अब बात आती है, प्रामाणिकता की। वह व्यक्तिगत प्रश्न है। इनाम पाने के लिए सभी बालक−सभी विद्यार्थी आतुर होते हैं। वे अपने अभिभावक या शिक्षक को भरोसा दिलाने का प्रयास करते हैं वे उनके अनुग्रह के पात्र हैं। ऐसे अवसरों पर शब्दों को नहीं आचरण को ही कसौटी माना जाता है। कहा जाता है करके दिखलाओ।

देव दक्षिणा प्रसंग में भी देवशक्तियों को अपनी प्रामाणिकता का प्रमाण दिया जाता है। छोटे−छोटे ही सही किन्तु देवत्व की दिशा में बढ़ाने वाले सुनिश्चित संकल्प किए जाते हैं। अपने साथ जुड़े छोटे−छोटे दिखने वाले व्यसनों का त्याग−आलस्य प्रमाद, आदि दुर्गुणों का त्याग किया जाता है। इसी प्रकार अपने अंदर नये गुणों के विकास के संकल्प लिये जाते हैं। नियमित उपासना निमित्त स्वाध्याय एवं लोक मंगल आराधना के लिए अपने समय साधन प्रतिभा का एक अंश लगाते रहना−ऐसे नियम हैं जिन्हें रत्नों की खदान कहा जा सकता है। इन्हें अथवा सेवा−साधना के छोटे−छोटे लक्ष्य स्वीकार करने की नैष्ठिक घोषणा देव दक्षिणा के अंतर्गत आती है।

यज्ञ के बाद अनुयाज प्रक्रिया चलती है। यज्ञ से उत्पन्न ऊर्जा का सुनियोजन उसके अंतर्गत किया जाता है। यह यज्ञ देवसंस्कृति के उन्नयन, राष्ट्र संगठन के उद्देश्य से किये गये हैं। देवसंस्कृति के सूत्रों को अपने जीवन में गरिमापूर्वक स्वीकार करना तथा जन−जन के उन्हें अपनाने के लिए प्रेरित उत्साहित करना इस संदर्भ में देव दक्षिणा प्रक्रिया के अनुरूप पुरुषार्थ कहे जा सकते हैं।

यह अश्वमेध अत्यंत प्रखर ऊर्जा उत्पन्न करने वाले हैं। जो व्यक्ति संकल्पपूर्वक इस ऊर्जा के उपयोग के लिए आगे आयेंगे वे सुख, संतोष, श्रेय, सौभाग्य, यश सभी कुछ पायेंगे। उनके माध्यम से ऐसे कार्य ऊर्जा संपादित करा लेगी, जो वैसे असंभव लगते।

यज्ञीय ऊर्जा के विस्तार से ही यज्ञीय भावनाएँ जन−जन में पनपेगी। यज्ञीय विचार उठेंगे और यज्ञीय कर्म होंगे। संकल्पवानों का यज्ञीय पुरुषार्थ एक ऐसी आँधी उत्पन्न करेगा, कि विनाश के सरंजाम चूर−चूर होकर जने कहाँ जा पड़ेंगे। उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ एक यथार्थ के रूप में सामने आ खड़ी होंगी।

अपेक्षा की जाती है कि मनुष्य मात्र को श्रेय−सौभाग्य प्रदान करने वाले इस प्रयोग में भावनाशील प्रतिभाएँ अपने शौर्य एवं कुशलता का परिचय देंगी और ऐतिहासिक भूमिका निभाने का श्रेय अर्जित करेंगी।


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