‘मेध’ सम्बन्धी भ्रान्तियों को निर्मूल बताते हैं−ये प्रतिपादन

November 1992

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यज्ञ प्रकरण में मेध−यज्ञों का स्थान महत्वपूर्ण है। समय−समय पर उनकी अलग−अलग ढंग से व्याख्या की जाती रही है। मध्यकाल में मेध की संगति बलि से जोड़कर अधर्मियों ने अपना स्वार्थ ही नहीं सिद्ध किया, वरन् यज्ञों पर भी कलंक की छाप डाली। वेद विद्या के मर्म को जान सकने में असमर्थ जन सामान्य का इन भ्रान्त व्याख्याओं से भ्रमित हो जाना स्वाभाविक है। विवेक प्रधान इस युग में अनिवार्य हो गया है, कि मेध यज्ञों के उस दर्शन और स्वरूप को स्पष्ट किया जाय−जो इनके अनुसंधानकर्ता ऋषियों को अभीष्ट रहा है।

इस क्रम में विचार करने पर पाते हैं कि ‘मेध’ शब्द उसके साथ जुड़ी संज्ञा से सन्दर्भित है। वैदिक वाङ्मय में चार प्रकार के मेध यज्ञ बहु प्रचलित हैं−सर्वमेध, नरमेध, अश्वमेध और गोमेध। इनमें से सर्वमेध का तात्पर्य है−निजी सम्पदा, प्रतिभा एवं आयुष्य को समष्टिगत सत्प्रयोजनों के लिए समर्पित कर देना। निजी सम्पत्ति के रूप में कुछ भी संग्रह, परिग्रह पास न रखना। वाजश्रवा, हरिश्चंद्र आदि ने अपने समय की माँग पूरा करने के लिए ऐसे ही सर्वमेध सम्पन्न किये हैं।

नर मेध का अर्थ है−तपस्वी जीवन। अभ्यस्त लोभ, मोह, अहंता के कुसंस्कारों का परित्याग। पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा की कामना अभिलाषाओं से विमुख होना। गतिविधियाँ तपश्चर्या युक्त बनाना। चिन्तन में उदारता, आत्मीयता का अधिकाधिक समावेश करना। अन्तराल में सदाशयता के प्रति श्रद्धा को प्रगाढ़ परिपक्व करना।

अश्वमेध− सामर्थ्यों को राष्ट्र निर्माण के लिए हठपूर्वक नियोजित करने की प्रक्रिया है। संचित कुसंस्कारिता क्षुद्र प्रयोजनों में निरत रहने के लिए ललचाती रहती है। कुत्साओं से घिरा हुआ लोक प्रवाह तथा स्वजनों का आग्रह भी ऐसे ही दबाव डालता रहता है। इस समस्त अवरोधों को चीरते हुए उपलब्ध सामर्थ्य में से निर्वाह के लिए न्यूनतम रखने के उपरान्त शेष को राष्ट्रहित समाजहित में लगा देने की व्रतशीलता, अश्वमेध है।

गोमेध का अर्थ है प्रसुप्त सत्प्रवृत्तियों के जागरण में स्वाध्याय शिक्षण, कौशल आदि का विस्तार। देवी सम्पदाओं से व्यक्ति और समाज को सुसम्पन्न बनाना। समग्र यज्ञ प्रक्रिया इन दर्शन सिद्धान्तों पर ही अवलम्बित रही है। यजन प्रक्रिया तो उसका स्थूल दृश्यमान पक्ष भर है। उपरोक्त प्रयोजनों के लिए कई बार व्यक्ति विशेष द्वारा इन चार में से जिसका निश्चय किया हो, उसकी सार्वजनिक घोषणा के लिए यह आयोजन सम्पन्न किया जाता था। कई बार मूर्धन्य पुरोहितों द्वारा व्यापक समूह को इन महत्वपूर्ण प्रयोजनों की दीक्षा देने के लिए सार्वजनिक समारोह बुलाए जाते थे।

मनीषी, चार्ल्स ड्रेकमायर के ग्रन्थ “प्रि बुद्धिस्ट इण्डिया” के अनुसार अश्वमेध की एक विशेष प्रक्रिया राजसूय स्तर की भी संपन्न होती रही है। सामन्तवादी उच्छृंखलता के कारण शासकों के अनाचार प्रजा पीड़क न बनने पाएँ इसलिए उन्हें सर्वतन्त्र स्वतन्त्र नहीं रहने दिया जाता था। उन्हें किसी केन्द्रीय नियन्त्रण के अंतर्गत रखने के लिए समय−समय पर ऐसे आयोजन होते रहते थे। जो स्वेच्छाचारिता को आग्रह करते थे, उन्हें बलपूर्वक वैसा करने से रोका जाता था। डेकमायर के अनुसार इसका एक अन्य स्वरूप वाजपेय स्तर का भी सम्पन्न किया जाता रहा है। विचारों की स्वेच्छाचारिता को आदर्शवादी दिशाधारा के अंतर्गत रखने के लिए समर्थ आत्मवेत्ता ‘दिग्विजय’ के लिए निकलते थे। शास्त्रार्थ जैसे विचार युद्ध ऐसे ही प्रयोजनों के लिए होते थे। जो हारता था उसे पृथकतावादी आग्रह छोड़कर संयुक्त प्रवाह में बहने के लिए विवश किया जाता था।

मेध यज्ञों के प्रसंग में एक बड़ी विडम्बना न जाने कहाँ से आई और सरल सौम्य प्रक्रिया में एक अवाँछनीय झंझट खड़ा कर दिया। यजन कृत्य के हविष्य का निर्धारण करने वाले प्रसंग में कुछ शब्द ऐसे आ गए जिन्हें साहित्यकला की दृष्टि से जान बूझकर अथवा संयोगवश ऐसे ही प्रयुक्त कर दिया गया, जिनके दो अर्थ होते थे। ऐसे प्रसंगों में कौतूहल अथवा हास−विलास तो होता है, पर कोई भ्रमित नहीं होता। पहेली में शब्द तो अटपटे होते हैं, पर समझदार लोग उसका सही अर्थ बिना किसी कठिनाई के सामान्य बुद्धि से ही जान लेते हैं। शब्दों के अटपटेपन के कारण कोई अर्थ का अनर्थ नहीं करता। किन्तु इस प्रसंग में कुछ ऐसा अर्थ लगाया जाने लगा जो मूल तथ्यों के साथ किसी भी प्रकार संगति नहीं खाता।

यज्ञ विवेचना में अश्वमेध, गोमेध, नरमेध, यज्ञों की चर्चा हुई है। इनमें प्रयुक्त हुए दोनों शब्दों के अर्थ का अनर्थ किया गया है। मेध का अर्थ समर्पण या संगठन होता है, साथ ही एक अर्थ वध भी होता है। औचित्य कहाँ है? संगति कहाँ बैठती है, उस पर विचार करते ही तात्पर्य समझने वालों को समर्पण आदि−अर्थ करने चाहिए, न कि हत्याकाण्ड। इस पहेली में अश्व, गौ, नर नामक प्राणियों को मार−काट कर होम देने जैसे अर्थ निकाले जाने की गुंजाइश है, किन्तु अश्व−शक्ति वैभव को, गौ−इन्द्रियों को और नर अर्थात्−व्यक्तित्व को पवित्र बनाने संयमित एवं ईश्वरार्पण करना ही यहाँ इसका वास्तविक तात्पर्य है।

इसी प्रसंग में कहीं−कहीं एक और शब्द आ धमका ‘आलभन’। जिसका एक अर्थ होता है− स्पर्श, दूसरा अर्थ होता है मार डालना। देखना यह चाहिए जब यज्ञ का नाम ही अध्वर है। अध्वर अर्थात्−हिंसा रहित कर्म। जब उस प्रक्रिया में रक्तपात की कहीं गुँजाइश नहीं है। ऐसी दशा में पशुओं या मनुष्यों को मारकर अग्नि में होम देने की बात किस प्रकार बुद्धि .......... ठहराई जा सकती है।

किन्तु मध्यकाल में अनहोनी को होनी कर दिखाने में कुशल कुछ विदूषकों ने उपहासास्पद प्रयत्न किया और ‘उलटवासो’ का शब्दार्थ कुछ का कुछ करके यज्ञ के मत्थ्र ‘प्राणिबध’ का कलंक मढ़ने की कोशिश कर डाली। कुछ ऐसी ही घटनाओं को पनपते देखकर उन दिनों महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर जैसी आत्माएँ सामने आई और विकृति को अंकुरित होते−होते ही पैरों तले कुचलकर फेंक दिया। फलतः यज्ञ विधा पर जिस ग्रहण की काली छाया पड़नी शुरू हुई थी, वह समय रहते अपनी थोड़ी सी करतूत दिखाकर ही पलायन कर गई।

यज्ञ में प्राणिहिंसा की बात किसी भी शास्त्रानुमोदित नहीं हो सकती। शास्त्रकार तो−अध्वर इति यज्ञनाम−ध्वरतिर्हिंसाकर्माः तत्प्रतिषेधः निरु क्त 2/7 श. अर्थात् −’अध्वर’ यह यज्ञ का नाम है जिसका अर्थ हिंसा रहित कर्म है का उद्घोष करते हैं। वैदिक वाड्.मय में इस तरह के अनगिनत कथन हैं। यथा− अग्ने ये यज्ञमध्वरं विश्वतःपरि भूरसि।

स इद् देवेषु गच्छति॥ (ऋक् 1/1/4)

अर्थात्− हे ज्ञान स्वरूप परमेश्वर! तू हिंसा सहित यज्ञों में ही व्याप्त होता है और ऐसे ही यज्ञों को सत्यनिष्ठ विद्वान लोग सदा स्वीकार करते हैं।

यजन्तमध्वराणाँ गोपाभृतस्य दीदिविम्। वर्धमान स्वेदमे॥ − (ऋक् 1/1/8)

यहाँ भी परमेश्वर को अध्वरों अर्थात्−हिंसा रहित सब कर्मों में विराजमान बताया गया है। ऋग्वेद में ही एक अन्य स्थान पर कहा गया है−

स सुक्रतुः पुरोहितो दमें दमेऽग्निर्यज्ञस्याध्वरस्य चेतति क्रत्वा यज्ञस्य चेतति (ऋक् 1/12/4)

अर्थात्−परमेश्वर और वेदविद पुरोहित हिंसा रहित यज्ञ का ही मनुष्यों को सदा उपदेश देते हैं। अत्रिस्मृति के अनुसार यज्ञ में अग्नि का उपयोग तो किया जाता है पर साथ ही पुरोहितों और याजकों में से प्रत्येक को यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं समिधाओं या शाकल्प में कृमि कीटक तो नहीं है और उस गर्मी से किन्हीं चींटी जैसे प्राणियों की जीवन हानि तो नहीं हो रही। जहाँ इतनी सतर्कता का निर्देश हो वहाँ प्राणीवध की तो कल्पना तक नहीं की जा सकती।

दो अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग जहाँ होता हो वहाँ बुद्धिमत्ता यह कहती है कि प्रसंग की पूर्वा पर संगति भी बिठाई जाय और यह ध्यान भी रखा जाय कि प्रस्तुत करने वालों का मन्तव्य या उद्देश्य क्या रहा है? औचित्य का ध्यान रखे बिना दो अर्थ वाले शब्दों का अर्थ कुछ से कुछ मूल मान्यता से सर्वथा विपरीत कर देना−अनर्थ ही कहा जाएगा। ऐसी ही दुर्भाग्य पूर्ण विडम्बना किसी−किसी उद्धत अर्थ करने वाले मेध शब्द का तात्पर्य एवं स्वरूप प्रस्तुत करने में की है। इतने पर भी मूल मन्तव्य को समझने वाले शास्त्रकारों, वेद मर्मज्ञों की कमी नहीं रही। वे वेदोक्त ‘मेध’ शब्द का सही अर्थ ही प्रस्तुत करते रहे हैं।

वेद मनीषी पं. दामोदर सातवलेकर ने यजुर्वेद भाष्य (अध्याय 30)के संदर्भ में मेध शब्द के अर्थ (1) मिलना (2) परस्पर मित्रता करना (3) ऐक्यकरना (4)एक दूसरे को जानना (5)जोड़ना (6)प्रेम करना (7)धारण बुद्धि का बल और तेज बढ़ाना (8)पवित्रता करना (9)सत्व−बल और उत्साह बढ़ाना, लिए हैं। धातु पाठ में ‘मेधृ’ धातु का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा गया है−

“मेधृ−मेधासंगमनयोर्हिंसायाँ च, “

अर्थात्−’मेधृ’ धातु से निष्पन्न मेध शब्द के मेधा लोगों में एकता व प्रेम बढ़ाना तथा हिंसा ये तीन अर्थ होते हैं। जब मेध शब्द के अन्य अर्थ होते हैं तो हिंसा वाले अर्थ के प्रति इतना दुराग्रह क्यों किया जाय, जबकि उन−उन स्थलों में उनका हिंसा से भिन्न तात्पर्य ही अभीष्ट है। ये कुछ दृष्टांत द्रष्टव्य हैं−

पुरुष मेध, पुरुषयज्ञ और नृयज्ञ−ये तीनों शब्द प्रायः एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते रहे हैं।

इनमें से नृयज्ञ का तात्पर्य बोध कराते हुए मनुस्मृतिकार ने लिखा है−

नृयज्ञोऽतथि पूजनम्।

अर्थात्−अतिथियों का स्वागत सत्कार ही नृयज्ञ है। अजमेध को बकरे की बलि यज्ञ से अर्थ लगाने वाले को ‘महाभारत’ में कड़ी चेतावनी दी गई है−

अजैर्यज्ञेषु यष्टव्यम् इतिवै वैदकी श्रुतिः। अज संज्ञानि बीजानि छागान्नो हन्तुमर्हथ। नैषाधर्म सताँ देवाः यत्र वध्यते पशु॥ शान्तिपर्व अ. 3/37

अर्थात्−वेद में अज से यज्ञ करना चाहिए ऐसा उल्लेख है। अज शब्द का तात्पर्य एक बीज विशेष से है न कि बकरे से अतः उसका तात्पर्य बकरे वध से नहीं लगाना चाहिए। पशुओं का वध करना अच्छे मनुष्यों का धर्म नहीं है।

इसी तरह अश्वमेध का तात्पर्य घोड़े की बलि देने वाला यज्ञ नहीं लगाया जाना चाहिए। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार−

राष्ट्रं वा अश्वमेधः। बीर्यं वा अश्वः।’ शतपथ 13/9/6

अर्थात्−पराक्रम ही अश्व है, राष्ट्र का अच्छी प्रकार संचालन ही अश्वमेध है।

डहंसा तो किसी भी यज्ञ कर्म में निषिद्ध है, फिर अश्वमेध के प्रयोजन तो बहुत ही उच्चस्तरीय हैं। इस तथ्य को स्वीकारते हुए पंचतन्त्रकार का मत है−

‘एतेऽपिये याज्ञिका याकर्मणि पशून व्यापादयन्ति तो मूर्खाः परमार्थं श्रुतेर्न जानन्ति तत्र किलैतयुक्तम् अजैर्यज्ञेषु

यष्टव्यमिति अजास्तावद् ब्रीह्यःसाप्तवार्षिकाः कथ्यन्ते न पुनः पशु विशेषाः। उक्तं च−वृक्षान् छित्वा पशूनहत्वा कृत्वा रु धिर कर्दमम् यद्येवं गम्यते र्स्वगं, नरकं केन गम्यते॥’

अर्थात्−जो याज्ञिक, यज्ञ में पशुओं की हत्या करते हैं, वे मूर्ख हैं, वे वस्तुतः श्रुति के तात्पर्य को नहीं जानते। वहाँ जो अजों से यज्ञ करना चाहिए उसमें अज से तात्पर्य व्रीह (पुराना अनाज विशेष) से है। आप्त .......... भी है−’यदि पशुओं की हिंसा कर उनकी रुधिर की धारा बहाकर स्वर्ग में जाया जा सकता है, तो नरक में जाने का मार्ग कौन सा है?

यजुर्वेद में आलभते शब्द प्रयोग में आया है। उसका अर्थ निकाला गया ‘वध’ करना चाहिए। जबकि यह अर्थ यहाँ किसी भी प्रकार युक्ति संगत नहीं। ‘आड्.’ पूर्वक, लभधातु से निष्पन्न इस शब्द का अर्थ ‘स्पर्श करना होता है। उदाहरण के लिए−

वत्सस्य समीप आनयनार्थम आलम्भः स्पर्शों भवतीति

सुवोधिनी टीका मीमाँसादर्शन−2/3/18 यहाँ ‘आलम्भ धातु का अर्थ स्पर्श करना ही किया गया है। अतएव यज्ञों में आलम्भ के प्रयोग से हिंसा का अर्थ लेना नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है।

तथ्य का अध्ययन अन्वेषण की गहनता का स्पर्श करके यही कहा जा सकता है मेध यज्ञ सर्वथा निर्भ्रान्त है। इनके सम्बन्ध में किसी भ्रान्ति की राई−रत्ती भर गुँजाइश नहीं है। फिर अश्वमेध के प्रयोजन−तो और अधिक उच्चस्तरीय हैं। पश्चिमी मनीषी ब्लूमफील्ड ने अपने शोध अध्ययन “अर्ली हिस्ट्री आँव वैदिक इण्डिया” में इसे राष्ट्रीय उपासना की अनुकरणीय पद्धति कहा है। वेदों ने इसे महाक्रतु कहकर सराहा है। ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित दो मंत्र है। शतपथ ब्राह्मण (13) में इसका विशद वर्णन प्राप्त होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (3,8,9) कात्यायनी श्रौतसूत्र (20) आपस्तम्ब (20) आश्वलायन (10,6) शाँखायन (16) तथा दूसरे सम्मान्य ग्रन्थों में इसका वर्णन मिलता है। इन सुप्रसिद्ध−शास्त्रों के विवरण यही स्पष्ट करते हैं−कि अश्वमेध प्रक्रिया राष्ट्र को संगठित समर्थ बनाने, व्यक्ति में समझदारी पैदा करने मेधा वर्धन करने, तथा देवशक्तियों के अनुग्रह अवतरण हेतु आधार भूमि तैयार करने वाला विराट प्रयोग है। वर्तमान युग में इसके सम्पन्न होने को दैवी चेतन प्रवाह का एक अविच्छिन्न अंग माना जा सकता है।


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