मेधा को जो जगाये, वह है−अश्वमेध

November 1992

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अथर्ववेद में एक मंत्र आता है−

अग्ने समिध महर्षि बृहते जातवेदसे स में श्रद्धाँ मेघाँ च जातवेदः प्रयच्छतु॥ (19/64/15)

अर्थात्− “हे यज्ञाग्ने! तू महान और सब उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराने वाला है। अतः मैं मेरे अंदर श्रद्धापूर्वक समिधा प्रदान करता हूँ। तू कृपाकर मुझे श्रद्धा और मेधा प्रदान कर।” इसी प्रकार ऋग्वेद का ऋषि एक स्थान पर कहता है−

‘इमं यज्ञं मेधावन्तं कृधीः” (प्रभो! हमारे इस यज्ञ को मेधावान बना दो) तथा “जातवेदो मेधाँ अस्मासु धेहि (हे यज्ञाग्ने! तू हमारे अन्दर मेधा को धारण करा)।

उपरोक्त श्रुति वचनों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि विराट अश्वमेध स्तर के यज्ञों का एक महत्वपूर्ण प्रयोजन एक व्यापक स्तर पर प्रसुप्त पड़ी प्रतिभा के मेधा के जागरण के लिए भी होता है। यह मनुष्य की प्रतिभा ही है, जिसने उसे अन्य जीवधारियों से भिन्न बनाया है। इसी के बलबूते वह वैज्ञानिक के रूप में प्रकृति का रहस्योद्घाटन करने और प्राणी जगत का भाग्यविधाता होने का दावा करता है। अनेकानेक प्रकार के तत्वदर्शन के सिद्धान्त गढ़ने से लेकर शासन और समाज की संरचना तथा साहित्य का अक्षय भण्डार खड़ा कर देना एवं पृथ्वी को अनगढ़ता की स्थिति से सुगढ़ सुविकसित स्थिति में पहुँचा देने का पराक्रम मानवी मेधा प्रतिभा का ही चमत्कार है। संभवतः इसी कारण ऋषि कहते आये हैं−न मानुषात् हि श्रेष्ठतरं किंचित (मनुष्य से श्रेष्ठ इस दुनिया में कोई अन्य नहीं है)।

इतना सब होते हुए भी विडम्बना वही सामने आ कर खड़ी हो जाती है कि प्रतिभा का विपुल भण्डार अंतः सत्ता में भरा होते हुए भी उसे उभरने प्रकट होने का अवसर उन दबावों के कारण नहीं आ पाता जो कषाय कल्मषों के रूप में आत्मसत्ता के ऊपर स्वेच्छापूर्वक लाद लिए गये हैं। लकड़ी सामान्यतया पानी पर तैरती रहती है, किन्तु यदि उस पर भारी चट्टानें बाँध दी जायें तो वह अपना स्वाभाविक गुण तैरना भूलकर डूब जाती है। विभूतियों से अभिभूषित होने के बावजूद मनुष्य निकृष्टता की चट्टान सिर पर लाद लेने के उपरान्त अपना वास्तविक स्वरूप दिखा पाने की स्थिति में रह ही नहीं जाता। आज के समाज का जो भी स्वरूप हमारे समक्ष है, वह इसी विडम्बना के कारण ऐसा दृष्टिगोचर होता है। संव्याप्त अवाँछनीयताओं से जूझकर उन्हें परास्त करना तथा नवयुग की सृजन व्यवस्था को कार्यान्वित करने की समर्थता इस कारण नहीं संभव बन पर रही है कि ये दोनों ही कार्य तेजस्वी, मेधावान, जाग्रत, प्रतिभाशालियों के बलबूते ही संभव हो सकते हैं। आड़े समय में ऐसे ही व्यक्ति आगे आते व संस्कृति समाज की नौका को उफनते समुद्र में से खेते हुए ले जाते हैं। इस प्रतिभा को समाज, राष्ट्र ही नहीं विश्व के समष्टि से स्तर पर जगाने के लिए जिस पराक्रम की आवश्यकता है, वह भौतिक नहीं, अध्यात्म जगत से उपजने वाला तथा सुनियोजित ढंग से किया जाने वाला धर्मानुष्ठान स्तर का होने पर ही अभीष्ट उपलब्धियाँ संभव हैं।

परम पूज्य गुरु देव का जीवन तिल–तिलकर अपने जीवन का एक−एक क्षण संस्कृति की सेवा में होमकर देने वाले एक महायाज्ञिक का जीवन है। एक खुली किताब के रूप में उनके अस्सी वर्ष के जीवन के घटनाक्रम प्रमाण देते हैं कि किस तरह से वे प्रतिभा जागरण के उद्देश्य को लेकर सतत् पुरुषार्थरत रहे व संधिकाल की इस विषमवेला में, जहाँ महाविनाश का प्रलयंकारी तूफान अपनी प्रचण्डता का परिचय दे रहा है, उनने जन−जन के मन में सतयुगी नवसृजन की उमंगें जगा दीं। आज जब कोई भी उज्ज्वल भविष्य की बात करता नहीं दीखता, तब उनने .............. तमिस्रा के साम्राज्य में भी ब्रह्ममुहूर्त का आभास प्राची में उदीयमान होते दीख पड़ने तथा इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष खुले रूप में सबके समक्ष किया।

सरस्वती उपनिषद् में एक स्थान पर आया है− ”यज्ञं दधे सरस्वती” (यज्ञ से ही सरस्वती प्रसन्न होती है) संभवतः उपनिषद् की इस उक्ति के वैज्ञानिक परीक्षण हेतु ही परम पूज्य गुरु देव ने जून 1955 में गायत्री तपोभूमि मथुरा में एक सरस्वती यज्ञ गायत्री जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित किया था। अपने चौबीस महापुरश्चरणों की महापूर्णाहुति वे गायत्री तपोभूमि में चौबीस कुण्डीयज्ञ में अखण्ड अग्नि की स्थापना कर दो वर्ष पूर्व ही कर चुके थे। नवम्बर 1948 के सहस्रकुण्डी महायज्ञ से पूर्व यज्ञ संबंधी कई प्रयोग साधक स्तर के व्यक्तियों व जनसामान्य पर किये गये। इस सबका मूल उद्देश्य था प्रतिभा संवर्धन में यज्ञ प्रक्रिया किस प्रकार फलदायी होती है, यह जाना जाय। परम पूज्य गुरु देव के यह शोधप्रयास अनेक विस्मयकारी परिणाम लेकर आए। उनने इस सभी विवरणों को दो यज्ञाँकों के रूप में जुलाई−अगस्त 1955 की अखण्ड−ज्योति में प्रकाशित किया। उसमें वे विष्णु धर्मोत्तर पुराण की साक्षी देते हुए अश्वमेध के संबंध में लिखते हैं कि−”मनुष्य इस यज्ञ को करने से मेधा को प्राप्त होते हैं तथा उनके पापों का नाश होता है। वाँछित मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं तथा परमपद की प्राप्ति सत्याचरण के कारण निश्चित ही होती है।”

इसी यज्ञ के विषय में आगे वे लिखते हैं, कि एक वर्ष तक गायत्री महायज्ञ, रुद्रयज्ञ, महामृत्युँजययज्ञ विष्णुयज्ञ, शतचंडीयज्ञ, नवग्रहयज्ञ, यजुर्वेदयज्ञ, ऋग्वेदयज्ञ, अथर्ववेदयज्ञ, सामवेदयज्ञ, की निरन्तर श्रृंखला द्वारा वे अश्वमेध स्तर की महायज्ञ प्रक्रिया पूरी कर उन कार्यकर्त्ताओं का उत्पादन करेंगे जिन्हें सूर्य की अशाँत स्थिति वाले बुरे समय में सारे विश्व के कल्याण का संकल्प लेना है। क्रमशः ये यज्ञ संपन्न हुए भागीदारों से जप−अनुष्ठान संपन्न कराये गये। उनका पत्राचार पाठ्यक्रम से शिक्षण चला तथा प्रतिभा परिष्कार हेतु परम पूज्य गुरु देव ने व्यक्तिगत चर्चा द्वारा उन्हें ध्यान साधना से लेकर यज्ञ प्रक्रिया में भागीदारी का सुयोग्य प्रशिक्षण भी दिया। वे लिखते हैं कि यज्ञ में प्रयुक्त मंत्रोचार की प्रक्रिया ही अश्वमेध की सफलता का प्राण है।

पावका नः सरस्वती बातेभि, र्वाजिनीवती, यज्ञं वष्ट धिया वसुः।

अथर्ववेद के इस मंत्र द्वारा ऋषि कहते हैं कि “वाक् तप से पावन करती है, पुष्टि करती है तथा बुद्धि की प्रचोदना करती है।” शतपथ ब्राह्मण के काण्ड तेरहवें के अध्याय एक (ब्रह्म 18) में एक मंत्र आता है−”सरवतत्यै स्वाहा, सरस्वत्यै पावका यै स्वाहा, सरस्वत्यै बृहत्यै स्वाहा”(वाणी सरस्वती है, यज्ञ उसे उभारता है)। इस विशेषता के कारण ही अश्वमेध को यज्ञों का राजा कहा गया है−

राजा वाऽएष यज्ञानाँ श्दश्वमेधः। (1/2/2/13)

‘मेध’ शब्द जो अश्वमेध में प्रयुक्त होता आया है, उसका अर्थ वस्तुतः ‘अग्निहोत्र’ नहीं, विद्युत से है। इसी से ‘मेधा’ शब्द बना है। संसार में मेध अर्थात्−मेधा जिस परिमाण में मनुष्य में है, उतना और किसी वस्तु में नहीं है। मनुष्यों में भी जिसमें इसकी मात्रा सर्वाधिक देखी पायी जाती है, वे ‘मेधावी’ कहलाते हैं। यह मेधा ही है जो बिजली के रूप में नसों−माँसपेशियों में उछलती कूदती तथा मस्तिष्कीय प्रखरता के रूप में अनेकानेक गुत्थियों का समाधान निकालती देखी जाती है। ओजस्विता, मनस्विता, तेजस्विता के रूप में इसी का गुणगान होता है। होती तो यह सभी मनुष्यों में है पर व्यक्ति−व्यक्ति में इसका परिमाण भिन्न−भिन्न मात्रा में होता है। मस्तिष्कीय विद्युत आवेश का प्रायः 83 प्रतिशत निरर्थक ही पड़ा रह जाता है। दैनन्दिन जीवन के क्रिया–कलापों में उनका उपयोग न हो पाने के कारण बहुमूल्य क्षमताएँ, दैवी विभूतियाँ, ऋद्धि−सिद्धियाँ, प्रसुप्त स्थिति में ही किसी कोने में पड़ी रह जाती हैं। जो कुछ भी मेधावी−मनस्वी में उभरता−उफनता देखा जाता है। वह यही उफनकर ऊपर आया हुआ विद्युत प्रवाह ही होता है।

उच्चस्तरीय प्रतिभा ही ब्रह्मतेज है। यही ब्रह्मवर्चस् है। अश्वमेधों में इसी प्रतिभा को उभारा परिमार्जित किया जाता है, वह भी समष्टिगत स्तर पर। यज्ञ कैसे इस प्रक्रिया को संपन्न करता है, इस संबंध में शास्त्र विवेचन हमारा समाधान करते हैं। ऋषियों ने देखा कि मानवी मेधा तो स्थायी नहीं है क्योंकि मृत्यु पश्चात् यह तिरोहित हो जाती है और शरीर सड़ने लगता है। अस्तु पशुओं में अश्व का निरीक्षण किया गया। वह सबसे चंचल और द्रुतगामी भी है। उसमें भी वही त्रुटि पायी गयी। फिर गाय की जाँचा पड़ताल की गयी। यहाँ भी मेधा क्षण भंगुर पायी गयी। इस प्रकार ऋषियों ने अन्वेषण से पता लगाया कि मृत्यु पश्चात् सबसे पहले मानव शरीर में सड़न आरंभ होती है तत्पश्चात् घोड़े में, फिर गौ व उसके बाद बकरी में। ...................... का सड़ना गलना तब आरंभ होता है जब कार्यविद्युत निकल जाती है। यह मनुष्य की विशेषता है कि उसमें जितनी जल्दी जितनी बड़ी मात्रा में बिजली एकत्रित होती है, उतनी ही जल्दी मरणोपराँत पलायन भी कर जाती है। स्थायी मेधा किसी में भी नहीं है। तब ऋषियों ने मृत्तिका का निरीक्षण किया। पता चला कि उसमें मेधा तो है, पर सूक्ष्म व बिखरी हुई। तब विचार किया गया कि इससे जो वनस्पतियाँ एवं धान्य उत्पन्न होते हैं, वह मृत्तिका से ही मेधा प्राप्त करते रहे होंगे, जिन्हें खाकर हम मेधा संपन्न बनते हैं। इस प्रकार पादपों की जाँच−पड़ताल प्रारम्भ हुई। इस उपक्रम में जौ ही ऐसा धान्य साबित हुआ, जिसमें सर्वाधिक परिमाण में मेधा मिली। अस्तु यज्ञ में जौ का प्रयोग प्रारंभ हुआ। अश्वमेधों में जौ की आहुतियाँ द्वारा इसी मेधा को अन्.......... सूक्ष्म ऊर्जाओं समेत ग्रहण व धारण किया जाता है।

पद्मपुराण की उक्ति सही ही है−

‘हयमेसं’ चरित्वा समेधाँ समृद्धिं प्राप्नोति।

अर्थात्−”अश्वमेध करने वाले मेधा और समृद्धि को पाता है।”...........................................................

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बुद्धि तो भाँति−भाँति के तर्क−जंजाल बुनती हुई अपनी स्वार्थपूर्ति की राह पर ही मनुष्य को चलाती है। यदि सारी धरित्री का वातावरण बदलना है तो उस सूक्ष्म जगत में आमूल चूल परिवर्तन लाना होगा। जो समष्टिगत मन की चेतना के मिलने पर (कलेक्टिव कान्शसनेस) विनिर्मित होता है। यज्ञ जो अश्वमेध स्तर के होते हैं, यही कार्य करते हैं। यज्ञ वस्तुतः भौतिक ऊर्जा व प्राण ऊर्जा के सम्मिलित प्रयोगों के रूप में संपन्न होते हैं। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप लोगों के मनों में मनस्विता का− प्रतिशीलता का जागरण होता है। यह जाग्रत प्रतिभा सूक्ष्म में हलचल पैदा कर वातावरण को बदलती है तथा श्रेष्ठ चिंतन तरंगों को जन्म देती है।

इन दिनों अनौचित्य की बाढ़ रोकने और दलदल को मधुवन बनाने जैसी समय की चुनौती हम सबक समक्ष है। विनाश का ताण्डव रोकना और विकास का सरंजाम जुटाना ऐसा ही है, जैसे खाई को पाटना भर ही नहीं, वरन् उस स्थान पर ऊँची मीनार खड़ी करने जैसा दुहरा पराक्रम। इसे प्रवाह को उलटना ही नहीं, उलटे को उलटकर सीधा करने की प्रक्रिया कह सकते हैं। हमेशा ऐसा समय जब आया है, स्रष्टा की प्रेरणा से धरती पर ऐसे विलक्षण प्रयोग हुए हैं और व्यापक स्तर पर असंभव को संभव कर दिखाने वाली प्रतिभाएँ जन्मी हैं। युगपरिवर्तन की यह विषम वेला ऐसी है जो बड़ी प्रतीक्षा के बाद युग−युगान्तरों के बाद आयी है। इन दिनों ऐसा कुछ होने जा रहा है जो दुहरे प्रयोजन वाला असंभव माना जाने वाला इति और अथ के समन्वित सन्धिकाल के बाद नये युग का सूत्रपात करने जा रहा है। ऐसे में अश्वमेध या की प्रेरणा इसी निमित्त सूक्ष्म जगत से उभरी है कि संव्याप्त दुष्प्रवृत्तियों से जूझने हेतु एक विराट जनसमुदाय मनस्वी−प्रतिभा सम्पन्न समूह के रूप में जन्म ले। भारत व विश्व भर की भूमि पर संपन्न होने जा रहे अश्वमेधों की ..............................

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