वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति अर्थ निकालें, अनर्थ नहीं

November 1992

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इस उक्ति का अर्थ निहित स्वार्थ अथवा पूर्वाग्रह के कारण अटपटा निकाल लिया गया है। यज्ञों में पशुओं की हिंसा करते हुए कहा गया कि “यह हिंसा वेदोक्त है, इसलिए इसमें कोई दोष नहीं है।” यह अर्थ किसी भी प्रकार बुद्धि−विवेक संगत नहीं है। सही अर्थ समझने के लिए पूर्वाग्रहों से हटकर विचार करना आवश्यक है।

पहला विचारणीय शब्द है ‘वैदिकी’। भौतिकी का अर्थ होता है भौतिक पदार्थों से सम्बद्ध विज्ञान अथवा अनुशासन। नैतिकी का अर्थ होता है नीति विज्ञान या नीतिगत अनुशासन। इसी प्रकार आत्मिकी का अर्थ होता है आत्म विज्ञान अथवा आत्मचेतना से सम्बद्ध अनुशासन। इसी क्रम में वैदिकी का अर्थ होता है वेद विज्ञान अथवा वेद विहित अनुशासन।

वेद शब्द का अर्थ ज्ञान होता है। देव को ज्ञान का सर्वोच्च स्तर भी कहा गया है। यह कोई अतिशयोक्ति या पक्षपात पूर्ण उक्ति नहीं है। बहुत समझ बूझकर कही गयी प्रामाणिक बात है।

वेद वह ज्ञान है जिसे ऋषियों ने आत्मानुभूति के आधार पर अवतरित किया। अनुभूति जन्य−अनुभव जन्य ज्ञान सर्वश्रेष्ठ कहा भी जाता है। फिर यह अनुभूति भी बहुत उच्च स्तरीय है। आत्म चेतना ने ब्राह्मी चेतना की गहराइयों अथवा ऊँचाइयों तक पहुँचकर जिनसे मौलिक तथ्यों की अनुभूति की गई है उसे श्रेष्ठतम कहा जाना उचित ही है।

कोई भी सामान्य विचारशील व्यक्ति भी विवेक का उपयोग करे तो उसे जीव हिंसा अनुचित लगने लगती है। सामान्य संवेदना भी जिसमें है वह भावनाशील व्यक्ति भी किसी की हिंसा करना तो दूर उसे देखना भी पसन्द नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में बहुत स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि सामान्य विचारशीलता एवं भावनाशीलता के रहते जो कर्म अनुचित लगता है, उसे उच्चतम विचार और उच्चतम भावना से सम्पन्न व्यक्ति कैसे उचित ठहरा सकता है? निश्चित रूप से उक्त वाक्य का अर्थ हिंसा के समर्थन में नहीं हो सकता।

सही अर्थ है, वैदिक संदर्भ में यदि कहीं ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है जिसका एक अर्थ हिंसापरक भी होता है, तो उसे हिंसा के अर्थों में प्रयुक्त न किया जाय।

सभी जानते हैं, कि लगभग सभी भाषाओं में अनेकार्थी शब्द होते हैं। काव्य में उनका अलंकारिक प्रयोग भी किया जाता है और सहज स्वाभाविक रूप से भी वे भाषा में प्रयुक्त होते रहते हैं। उनका संदर्भ के अनुरूप कोई एक अर्थ ही निकाला जाता है। अन्य अर्थ निकालना अपने अज्ञान अथवा भाषा के प्रति अन्याय का प्रमाण होता है।

भाषा ज्ञान का अपमान न करें

भाषा भावनाओं एवं विचारणाओं को ठीक प्रकार व्यक्त करने के लिए होती है। उसका उपयोग मनोरंजन के स्तर पर हास−परिहास के रूप से किया जा सकता है, किन्तु उनका अनर्थ मूलक−उलटा−पुलटा उपयोग तो नहीं ही किया जाना चाहिए।

जैसे महिषी शब्द का अर्थ रानी भी होता है तथा भैंस भी। कोई सूचनार्थ कहे ‘महाराज राज्य सभा में जाने से पूर्व राजमहिषी से मिलकर जाते हैं। यहाँ राजमहिषी का अर्थ राजरानी ही किया जाना चाहिए। यदि राज्य द्वारा पोषित भैंस इसका अर्थ किया जाय तो अर्थ करने वाले की बुद्धि पर तरस ही आ सकता है।

वेदों में स्वाभाविक रूप से ‘मेध’ ‘बलि’ आलभन’ आदि शब्द बहुतायत से आये हैं। इनमें से प्रत्येक अनेक अर्थ हैं। उनमें एक अर्थ हिंसा परक भी होता है किन्तु युक्ति संगत अनेक अर्थों की उपेक्षा करके अविवेकपूर्ण एक अर्थ पर ही आग्रह टिका देना किसी भी विचारशील को शोभा नहीं देता। एक−एक शब्द के अर्थ एवं उनके प्रचलित उपयोग पर विचार करने से बात और अधिक स्पष्ट हो जायेगी।

मेध− व्याकरण के अनुसार सूत्र है−

मेधृ−मेधा, हिंसनयोः संगमे च।

अर्थात्−मेध के तीन अर्थ होते हैं (1)मेधा−बुद्धि का संवर्धन (2)हिंसा (3)संगम, संगतिकरण, एकीकरण−संगठन।

मेध, यज्ञ का भी पर्यायवाची है। यज्ञ के लिए भी इसका प्रयोग होता है। इसीलिए भ्रम वश लोग यज्ञ में हिंसा का औचित्य मानने लगे। किन्तु यज्ञ विज्ञान में हिंसा के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। निघण्टु में यज्ञ के 15 नाम−सम्बोधन दिए हैं, उन पर उनके अर्थों पर एक दृष्टि डालें तो बात स्पष्ट होगी। वे नाम हैं−

(1) यज्ञ:−यह यज् धातु से बना है। यज् देवपूजा−संगतिकरण−दानेषु−यह सूत्र है।

(के) देवों का पूजन−अर्थात् श्रेष्ठ प्रवृत्ति वालों का सम्मान एवं अनुसरण करना, (ख) संगतिकरण अर्थात्−प्रेमपूर्वक हिलमिल कर, सहकारिता के भाव से रहना, (ग) दान अर्थात्−करुणा भाव से अतीव दूर करने तथा श्रेष्ठ प्रवृत्तियों के पोषण के लिए अनुदान देना। यह कर्म यज्ञ है।

(2) वेन:−वेन−गति−ज्ञान−चिन्ता−निशामन वादित्र−ग्रहणेषु, यह सूत्र है। अर्थात्−यह गति देने, जानने, चिंतन करने, देखने, वाद्य बजाने तथा ग्रहण करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है।

(3) अध्वर:−का सूत्र है ‘ध्वरति वधकर्मा’ ‘नध्वरः इति अध्वरः’−अर्थात्−हिंसा का निषेध करने वाला। इस सम्बोधन से भी स्पष्ट होता है कि हिंसा का निषेध करने वाले कर्म के किसी अन्य नाम का अर्थ हिंसापरक नहीं हो सकता। सभी जानते हैं कि यज्ञ कर्म में भूल से कोई कृमि−कीटक भी अग्नि के संसर्ग से मर न जाये इसके लिए अनेक सावधानियाँ बरती जाती हैं।

(4) मेध:−इसके तीन अर्थ पहले ही दिए जा चुके हैं। यह अध्वर का पर्यायवाची संबोधन है इसलिए यज्ञीय संदर्भ में इसका अर्थ हिंसा परक नहीं, लिया जा सकता।

(5) विद्थ−विद्−ज्ञाने सत्तायाम्, लाभे, विचारणे, चेतना−आख्यान−निवासेषु, के अनुसार इसका प्रयोग ज्ञान, अस्तित्व, लाभ, विचार, चेतना, व्याख्यान एवं निवास के अर्थों में होता है।

(6) नार्य:−नारी−’नृ−नये’ मनुष्यों के नेतृत्व के लिए, उन्हें श्रेष्ठ मार्ग पर चलाने के अर्थ में इसका उपयोग होता है।

(7) सवनम् सु−प्रसव−एश्वर्यो:− इसका तात्पर्य हुआ प्रेरणा देना, उत्पन्न करना और प्रभुत्व प्राप्त करना।

(8) होत्रा−हु−दान−आदानयो:−अदने च सूत्र के अनुसार सहायता देना, आदान−प्रदान करना एवं भोजन करना इसके भाव हैं।

(9) इष्टि:−इसका अर्थ ‘यज्ञ’ जैसा ही है। इच्छा तथा अवस्था के अर्थों में भी यह प्रयुक्त होता है।

मह धातु से

(10) मख:−इसका अर्थ पूजा−सत्कार, वृद्धि करना तथा भाषा होता है। ‘मंखगतौ’ से इसका अर्थ पूज्य, सचेतन, चंचल, आनन्ददायक एवं तेजस्वी भी होता है।

(11) देव−ताता:−इसका अर्थ देवत्व का विस्तार करना, श्रेष्ठ प्रवृत्तियों का संवर्धन होता है।

(12) विष्णु:−विष्लृ व्याप्तौ’ −अर्थात्−व्यापक कर्म इसका भाव है। स्वार्थगत कर्म ‘संकीर्ण कर्म’ कहे जाते हैं। सर्व भूतहित से किए जाने वाले कार्य व्यापक कर्म कहे जाते हैं।

(13) इन्दु:−’उन्दी−क्लेदने’ धातु के अनुसार इसका अर्थ गीला करना, शान्त करना होता है। चन्द्र एवं सोम इसके शान्ति बोधक पर्याय हैं।

(14) प्रजापति:−अर्थात्−प्रजा, सारी जनता का पालन करने वाला।

(15) घर्म:−गर्मी, उष्णता, ऊर्जा इसके अर्थ होते हैं। उक्त सभी संबोधनों के अर्थ देखने से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि यज्ञ में हिंसक प्रयोगों का समावेश नहीं होना चाहिए। किन्तु मेध जैसे शब्दों का एक अर्थ हिंसापरक भी निकलता है इसलिए वैदिकी संदर्भ में हिंसापरक शब्दों का प्रयोग हिंसा के लिए न करने का स्पष्ट निर्देश दिया गया।

यहाँ थोड़ा विचार आलभन एवं बलि शब्दों पर भी कर लेना उचित होगा।

आलंभन:−का अर्थ स्पर्श, प्राप्त करना तथा वध करना होता है। किन्तु वैदिक संदर्भ में इसका अर्थ वध के संदर्भ में नहीं किया जाना चाहिए, जैसे −

ब्राह्मणे ब्राह्मणं आलभेत।

क्षत्राय राजन्यं आलभेत॥

इसका सीधा सही अर्थ होता है ‘ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण को प्राप्त करे, उसकी संगति करे और शौर्य के लिए क्षत्रिय को प्राप्त करे−उसकी संगति करे।

अब यदि आलभेत का अर्थ वध लिया जाय तो बेतुका अर्थ बनता है,’ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण तथा शौर्य के लिए क्षत्रिय का वध करे। ऐसे अर्थों से बचने के लिए ही कहा गया कि वैदिक संदर्भ में शब्दों के हिंसापरक अर्थ न किए जायँ।

बलि:− इस शब्द का भी अर्थ वध के संदर्भ में निकाला

जाने लगा है। वास्तव में सूत्र है बलि−बल्+इन्। इसका अर्थ है (1) आहुति, भेंट, चढ़ावा तथा (2) भोज्य पदार्थ अर्पित करना।

प्राचीन प्रचलन को देखें तो गृहस्थ के नित्यकर्मों में ‘बलि वैश्व देवयज्ञ’ का भी विधान है। इसमें भोजन का एक अंश निकाल कर उसे अग्नि को अर्पित किया जाता है। कुछ अंश लेकर पशु−पक्षियों एवं क्रमियों के लिए भी डाला जाता है। बलि कहलाने वाली इस क्रिया में किसी जीव के वध का तो प्रश्न नहीं उठता, दुर्बल जीवों को पोषण देने का विधान ही है।

उदाहरणार्थ :−मृच्छकाटिकम् (महाकवि शूद्रक के नाटक) में एक पात्र आर्य चारु दत्त अपने मित्र से कहते हैं−

“यासाँ बलिः सपदि मद्गृहदेहलीनाँ हंसैश्च, सारस गणैश्य विलुप्त पूर्वः।

अर्थात्−मेरे घर की देहलियों पर समर्पित ‘बलि’ को हंस एवं सारस आदि पक्षीगण खा जाया करते थे।”

स्पष्ट है कि ‘बलि’ बलि वैश्व के रूप में अर्पित अन्नादि ही है।

बलि का अर्थ ‘कर’−’टैक्स’ भी होता है।

रघुवंश महाकाव्य में राजा दिलीप की शासन व्यवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है−

प्रजानामेव भूर्त्पथं स ताभ्यो बलिमग्रहीत्।

सहस्रगुणमुत्स्रष्ट आदत्ते हि रसं रविः॥

अर्थात्−वे प्रजा के कल्याण के लिए ‘बलि’ ‘कर’ ग्रहण करते थे, उसी प्रकार जैसे सूर्य पानी का शोषण करता है किन्तु उसे हजार गुना करके बरसा देता है।

यहाँ भी बलि का प्रचलित अर्थ किया जाय तो क्या बात बनेगी?

संस्कृत कोष (वामन शिवराम आप्टेकृत) में बलि के अर्थ इस प्रकार हैं−

(1)आहुति, भेंट, (2) दैनिक आहार प्रदान करना,

(3)पूजा−आराधना, (4)उच्छिष्ट, (5)देवमूर्ति पर चढ़ाया गया नैवेद्य, (6) शुल्क, कर, चुँगी, (7) चंवर का डंडा, (8)राजा ‘बलि’ (प्रहलाद के पौत्र)।

श्राद्धकर्म में गोबलि,कुक्कुर बलि, काकबलि, विवीलिकादि बलि आदि का विधान है, उसमें कोई गौ, कुत्ता, कौआ या चींटी आदि का वध नहीं करता, उनके लिए श्रद्धापूर्वक भोज्यपदार्थ अर्पित किया जाता है।

हिन्दू धर्म कोश (डॉ. राजबलि पाण्डेय) में बलि को एक कन्नड़ भाषा का शब्द कहा है। इसे तमिल में ‘बरि’ तथा तैलुगु में ‘बेदगु’ कहते हैं। यह एक जाति विशेष के लिए प्रयुक्त संबोधन है। उस वन्य जाति के लोग किसी पशु−पक्षी, अथवा जलचर का चिन्ह धारण किए रहते हैं। यह चिन्ह उनके समुदायों की पहचान कराता है। जो समुदाय जिस प्राणी की चिन्ह धारण करता है उसके संरक्षण को अपना विशेष दायित्व मानता है। यहाँ भी ‘बलि’ संबोधन रक्षा करने वालों के लिए प्रयुक्त होता है, वध कर्ता के लिए नहीं।

यज्ञ में पूर्णाहुति के समय देवताओं एवं यज्ञ भगवान को भोज्य पदार्थ भेंट करने का विधान है। उसे ‘बलि’ ही कहा जाता है। उसमें सात्विक भोजन ही दिए जाते हैं। माँसाहार प्रेमियों ने सामिष भोजन अर्पित करना प्रारंभ कर दिया होगा और बलि का हिंसक अर्थ प्रचलित कर दिया गया। किन्तु वस्तुतः वैदिकी−यज्ञीय संदर्भ में हिंसक प्रयोग वर्जित माने गये हैं।


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