देव संस्कृति दिग्विजय अभियान बनाम देवासुर संग्राम

November 1992

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मानवीय जीवन में पीड़ा, पाप और पतन की जो सर्वव्यापी परिस्थितियाँ आज दिखाई दे रही है, वे पहले न रही हो ऐसा नहीं है। पाप को कलियुग की नियति मान लेने से बढ़कर भ्रांति और कुछ हो नहीं सकती। वस्तुतः आज का दुराचरण पिछले युगों की पुनरावृत्ति मात्र है। आज का दिन कल की पुनरावृत्ति, अब की वर्षा ऋतु पिछले वर्ष की पुनरावृत्ति मात्र होती है। इसी तरह युगों का कालचक्र भी न्यूनाधिक एक जैसी धुरी पर चलता आया है दुष्प्रवृत्तियां सतयुग में भी शक्तिशाली-रूप में उभरी थीं द्वापर और त्रेता युग में भी, उन सबका निवारण भी एक ही तरह से हुआ। प्राचीनकाल में उसे देवासुर संग्राम कहा जाता रहा है। हर बार सशक्त असुरता को संगठित देव शक्तियों के सहारे परास्त किया जाता रहा है और देवत्व की स्थापना होती रही है।

मार्कंडेय पुराण के अध्याय 73 से लेकर अध्याय 85 तक इस तथ्य का बहुत भाव-पूर्ण और अलंकारिक वर्णन हुआ है। हर बार असुरों की पराजय का श्रेय “देवी” या भगवती दुर्गा को मिला हैं इसे “महाशक्ति” भी कहा गया है जिसका आविर्भाव देवताओं की की शक्तियों के एकीकरण से हुआ है। जिस प्रकार ऋषियों के रक्त की एक-एक बूँद से रावण के विनाश का कारण -भगवती सीता प्रादुर्भाव हुआ, उसी तरह महाशक्ति सदैव देवतत्व की संगठित शक्ति के रूप में उदित होती रही है। उसका एक अर्थ मूल मानवीय चेतना-प्राण सत्ता भी है उसे ही प्राणों की गंगोत्री -गायत्री अथवा देवत्व का बीज एवं अधिष्ठात्री वेदमाता भी कहा है। दर्शन और विस्तार दोनों ही पक्ष समानार्थी है।

इस महाशक्ति का प्रथम प्राकट्य सृष्टि के आविर्भाव काल में हुआ। तब भगवान विष्णु सो रहे थे। उनकी नाभि से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। विष्णु के मान के मैल से मधु कैटभ नाम के दो राक्षस पैदा हो गये, वे ब्रह्मा जी को ही मारने को उतारू हो गये। असहाय ब्रह्मा ने परब्रह्म की आदिशक्ति महामाया की स्तुति की। उन्होंने विराट् पुरुष को जगाया। भगवान् विष्णु ने पाँच हजार वर्ष तक उन राक्षसों से युद्ध किया पर बड़े मायावी थे। जीत संभव नहीं हुई। तब महामाया ने उन असुरों को मोहित कर भगवान् विष्णु से वर माँगने को उकसाया। विष्णु ने सीधे-सीधे उनसे उन्हीं की मृत्यु का वरदान माँग कर उन्हें नष्ट किया।

स्पष्ट है- भगवान न कहीं सोता है और न किसी व्यक्ति के कान से कोई जन्म लेता है। परमात्मा को श्रद्धा और विश्वास की संज्ञा दी गई है। जब मनुष्य की श्रद्धा और विश्वास ध्वस्त हो जाते है तो सामाजिक जीवन में अनास्था पैदा होती है तो सामाजिक जीवन में अनास्था पैदा होता है। व्यक्ति उद्धत और अहंकारी होता चला जाता है। यहीं से अपराध बढ़ते है। भगवान् को अपनी सृष्टि प्यारी है वे उसे स्नेह से ठीक करना चाहते हैं, ज्ञान से ठीक करना चाहते हैं, ठीक करना चाहते हैं, ज्ञान से ठीक करना चाहते है, पर बच्चा जब बिगड़ जाता है तो उपदेश कम काम करते है। पिता पीछे हट जाता है, माँ थोड़ा पिटाई कर देती है, बच्चा सही रास्ते पर आ जाता है। यही परमात्मा की महामाया है। विजय के समय सभी ने उन महाशक्ति की परम ज्योति महाप्राण, आद्या शक्ति, सर्व कारण रूप आदि सम्बोधनों से अभ्यर्थना की है, यह सब भगवती गायत्री के ही विशेषण है। परमात्मा का नारी स्वरूप, माता स्वरूप उन्हें ही कहा जाता है।

दूसरी बार असुर महिष ने आक्रमण कर देवताओं के राजा इन्द्र को हराकर सम्पूर्ण देवलोक पर अधिकार कर लिया। दुःखी देवता ब्रह्मा जी को आगे लेकर भगवान विष्णु और महादेव ब्रह्मा जी को आगे लेकर भगवान विष्णु और महादेव के पास गये। अपनी व्यथा कही। दोनों क्रुद्ध हो उठे, उनके मुख से तेज फूटा सब देवताओं के शरीर से भी तेज निकला और उससे एक महाशक्ति का जन्म हुआ। उस महाशक्ति की हुँकार सुनकर तीनों लोक काँप गये। महिषासुर ने गर्जना सुनी तो पहले अपने सेनापतियों में से चिक्षुर (कीड़ों जैसा संकीर्ण जीवन जीने वाले ), चामर (चमड़ी शारीरिक सौंदर्य को महत्व देने वाले), उदग्र (उदर परायण) महाहनु (कुछ भी मारकर खा जाने वाले), असिलोमा (जिनके रोम-रोम में हिंसा भरी थी ) वाष्कल (दूसरों को तड़पता देखकर प्रसन्न होने वाले हृदय हीन) तथा विडालाक्ष (बिल्ली की सी चोर दृष्टि वाले ) को युद्ध में भेजा। वे सब मारे गये तब दुर्धर (आततायी) दुर्मुख (कुटिल) अपने समीपवर्ती अंग रक्षकों को भेजा। वे भी मारे गये तब महिषासुर (अर्थात् पृथ्वी आदि तत्वों से बना मन-जो संवेदनशील न होकर राक्षस बन गया हो) स्वयं गया। राक्षस बड़ा मायावी था। तरह-तरह के विकराल रूप धारण कर रहा था, तब क्रोध में भर कर देवी ने अपने वाहन शेर से उछलकर राक्षस को अपने पैरों से दबोच लिया और तलवार से उसका सिर काट डाला।

कथा यह बताती है, कि भौतिक लिप्सायें जब अत्यधिक और अनियंत्रित हो जाती है, तो मनुष्य कोई भी अपराध करने से डरना छोड़ देता है। इस युग में मिलावट, रिश्वत, चोर बाजारी, माँसाहार, जीव हिंसा, अपराधों की बाढ़ इसी तथ्य का पर्याय है। इस स्थिति में परमात्मा की कल्याणी सत्ता देवताओं को संगठित करती है। उनकी समवेत प्राण सत्ता जब निर्भय होकर युद्ध करने के लिए खड़ी हो जाती है, तो सारी आसुरी प्रवृत्तियों का एक-एक कर विनाश होने लगता है। देवताओं की विजय होती है और फिर सर्वत्र सुख शान्ति छा जाती है। यहाँ भी मन को सुसंस्कृत बनाने के लिए तेजस् शक्ति भगवती गायत्री को ही महामाया कहा गया है, उन्हीं की आराधना से कुसंस्कारों के असुरों से पीछा छूटता है। महिषासुर, देवी की दिव्य ज्योति में समा जाता है अर्थात् आत्मबोध की स्थिति तक पहुँचने के लिए मार्ग के सारे अवरोध ही उस सेना की तरह होते है, जिनसे अंतःकरण के देवत्व को युद्ध करना पड़ता है, पर यदि उन्हें साहस पूर्वक पछाड़ दिया जाये तो व्यक्ति अपने अलौकिक और आध्यात्मिक स्वरूप को स्वतः समझ लेता है, उस स्थिति में परिस्थितियाँ अनुकूल हो तो भी पाप से वैसे ही घृणा होगी जैसे गन्दगी से। उपरोक्त कथानक इस तथ्य का अलंकार मात्र है। इस युद्ध के बाद भी देवी की वही स्तुति देवताओं ने गाई है, जो पहली विजय के समय गाई थी।

देवताओं की स्तुति यहाँ भी बड़ी अर्थपूर्ण है।उसमें कहा है-”आपकी शक्ति ही समस्त विश्व में व्याप्त हो रही है। त्रिदेव भी आपके रहस्य को नहीं जान सकते। आप ही जगत की कारण, प्रकित, देवताओं और पितरों की स्वाहा और स्वधा है। वेदों की शब्दमयी मूर्ति, सम्पूर्ण जगत की रक्षक, ज्ञान और विवेक प्रदान करने वाली, उद्धारक दुर्गा, लक्ष्मी ओर गौरी आप ही हैं आपकी शक्ति और बल अपार है। “ यह समस्त अर्थ गायत्री में सन्निहित है।

तीसरी बार की कथा में शुभ-निशुंभ राक्षस आते है। उन्होंने समूचे देवत्व को परास्त करके रख दिया। देवता पुनः देवी की शरण में गए। उस समय भगवती पार्वती की देह से अम्बिका के रूप प्रकट होकर असुरों से युद्ध को तैयार हुई। उनका रूप बड़ा मनोभावन था। राक्षस शुभ ने प्रणय प्रस्ताव भेजा, तो भवानी ने कहा जो मुझे युद्ध में जीत सकता है, मैं उसी का वरण करती हूँ राक्षस ने पहले धूम्रलोचन फिर चण्डमुण्ड को भेजा। देवी काली ने उनका वध कर डाला। तब राक्षस रक्तबीज लड़ने उसका एक बूँद रक्त पृथ्वी में गिरता, तभी नया रक्तबीज पैदा हो जाता। तब भगवती ने काली से की मैं इस पर प्रहार करती हूँ तुम इसका रक्त भूमि पर मत गिरने देना ऊपर ही ऊपर पी जाना। तब रक्तबीज का वध हुआ।

रक्तबीज की मृत्यु का समाचार सुन कर शुँभ निशुँभ सेना लेकर रणक्षेत्र में उपस्थित हुए। पहले निशुँभ मारा गया फिर शुँभ सामने आया। उसने देवी की सहायक मातृका शक्तियों ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी वैष्णवी, वाराही, नारसिंही और ऐन्द्री की ओर संकेत करके कहा तुम दूसरों का आश्रय लेकर युद्ध करती हो, अपने पराक्रम का झूठ-मूठ अभिमान करती हो। इस पर देवी ने अपनी शक्तियों को अपने अन्दर समेट लिया और कहा कि यह सब मेरी विभिन्न शक्तियाँ है जो मेरी इच्छा से प्रकट होती है, अब मैं अकेली ही तेरा वध करती हूँ। इस तरह असुरों और देवों का सबसे घोर संग्राम हुआ और राक्षस का वध हुआ। देवताओं ने आद्यशक्ति देवी की प्रार्थना की-

“हे महामाया! आप ही विपत्ति ग्रस्त लोगों की रक्षा करती हैं, आप ही इस संसार की जननी और ईश्वरी है। सम्पूर्ण विद्यायें और दैवी शक्तियाँ आपके ही रूप है। माँ के रूप में हम आपकी वंदना करते है।”

स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती ने वरदान सहित आश्वासन दिया-”जब-जब पृथ्वी पर असुरों की उत्पत्ति बढ़ेगी मैं विभिन्न रूपों में जनम लेकर उनका विनाश और तुम्हारी रक्षा-करूंगी।”

दुर्गा सप्तशती नाम से विख्यात मार्कउय पुराण का यह उद्धरण इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आद्यशक्ति गायत्री ही विगत तीन कालों में देवत्व की स्थापना में समर्पित हुई है। उसी महाविद्या से इस ग की दुर्दम्य आसुरी प्रवृत्तियों की गाथा अब तक विप्रगण करोड़ों बार दोहरा चुके है, वह मिथ्या नहीं हो सकती।

अपनी परा प्रकृति के रूप में वह अदृश्य महासत्ता संकल्प श्रद्धाँजलि समारोह में देव पुत्रों की पीड़ा और पुकार सुनकर न प्रकट हुई। शपथ समारोह का दुर्ग स्वरूप उनके ही वरदान का प्रत्यक्ष प्रमाण था।उससे उल्लासित होकर ही देव समुदाय ने देवसंस्कृति दिग्विजय अभियान की घोषणा की। यह प्राचीन अश्वमेधों के परम्परा में प्रारम्भ किया गया ऐसा अथहयान है जो ताँत्रिक दृष्टि सूर्य चक्र में केन्द्रित है, उपासना की दृष्टि से भी सविता प्रधान है। रक्तबीज की तरह उसे जन-जन तक पहुँच कर उनके पापों को नष्ट करना है। अश्वमेध आयोजनों की समूची विधि व्यवस्था, संगठन, कर्मकाण्ड और विस्तार इस देवासुर संग्राम की परिधि में है। उसके प्रतिफल लोग प्रत्यक्ष आँखों से देख सकेंगे।

अश्वमेध वस्तुतः साँस्कृतिक अभियान हुआ करते थे, जो समूचे राष्ट्र को संगठित और एक सूत्र में बाँधें रखते थे। समूचा राष्ट्र इस दृष्टि से एक था राज्य और राजा तो तब भी अनेक हुआ करते थे। देव संस्कृति की अर्थ कोई धर्म विशेष नहीं अपितु सद्चिंतन, सत्कर्म और सद्व्यवहार (जो समस्त मानवीय प्रगति का मूलाधार है) का नाम ही देव-संस्कृति है। अश्वमेध आयोजनों की वर्तमान घोषणा प्राचीन देव संस्कृति दिग्विजय का ही अभिनव संस्करण है। इसमें देवतत्व की विजय सुनिश्चित है। महामाया ने उसके लिए समूचा सरंजाम एकत्र कर लिया है। कलियुग में पान की अनिवार्यता को अब ने केवल भूल जाना चाहिए, अपितु जहाँ भी देवत्व है उसे इस देव संस्कृति दिग्विजय के झंडे के नीचे आकर असुरता के विनाश में संलग्न हो जाना चाहिए।


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