अश्वमेध सविता एवं गायत्री साधना

November 1992

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अश्वमेध का पहला यजन प्रयोग प्रजापति (समस्त प्रजाओं के स्वामी परमात्मा) ने किया था। शतपथ ब्राह्मण के तेरहवें काण्ड में वर्णित वह आलंकारिक प्रसंग इसी अंक के प्रथम पृष्ठ पर दिया भी गया है। उस संदर्भ से स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि की संरचना एवं व्यवस्था रूप यज्ञ को ऋषि ने ‘अश्वमेध यज्ञ’ कहा है।

वेदों में उस प्रथम यज्ञ का वर्णन ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के 90 वें .....................................................

................... में मिलता है। प्रथम यज्ञ के अधिष्ठाता पुरुष (परमात्मा) को यज्ञ रूप होने के कारण उसे ‘यज्ञ पुरुष’ भी कहा गया है। उक्त यज्ञीय पुरुषार्थ का वर्णन .....................................................................

............................................................................................................................ सूक्त कहा गया है।

उस प्रथम यज्ञ में यज्ञकर्ता, यज्ञाग्नि, यज्ञहवि आदि सभी रूपों में उसी यज्ञपुरुष−परमात्मा की भूमिका रही। इसीलिए यजु. 31/16 में ‘यज्ञेन यज्ञम् अयजन्त देवा:−......................................................................

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अश्वमेध की प्राणप्रक्रिया−

सृष्टि रचना के संदर्भ में शास्त्रों में वर्णन है कि परमात्मा ने देखा कि सभी पदार्थ निश्चेष्ट हैं तो उन्हें सक्रिय बनाने के लिए उन्होंने स्वयं प्राणरूप होकर उनमें प्रवेश किया। सभी जगह संव्याप्त होने की सामर्थ्य के कारण इस प्राण रूप परमतत्व को ‘अश्व’ कहा गया। वह यज्ञीय भाव से हर पदार्थ में आहुति की तरह प्रविष्ट हुआ। इसलिए यह क्रिया ‘मेध’ कहलायी। यही प्रथम अश्वमेध था। इसी भाव को यजु. 31/15 में इस प्रकार व्यक्त किया गया है।

‘देवाँ यद्यज्ञं तन्वाना अवध्नन् पुरुषं पशुम्।

अर्थात्−’देव’ जिस यज्ञ का विस्तार कर रहे थे, उससे यज्ञ पुरुष ही पशुरूप में सम्बद्ध हुआ।

‘पशु’ का एक अर्थ होता है देखने वाला। परमात्मा सबको देखने वाला है। उसने सृष्टि को देखा तथा उसे सक्रिय करने के लिए स्वयं को प्राणरूप में प्रत्येक घटक के साथ आबद्ध किया। यही प्राण सर्वत्र व्याप्त हो उठा, इसलिए ‘अशु व्याप्नोति’ के अनुसार वह अश्व भी कहलाया। जिस प्रकार आहुति यज्ञाग्नि के साथ एकाकार हो जाती है, उसी प्रकार यह प्राणचेतना सृष्टि के विभिन्न घटकों के साथ एकरूप हो गयी, वह यज्ञीय प्रक्रिया ‘मेध’ कहलायी। इस प्रकार सृष्टि में प्राण संचार की प्रक्रिया को प्रजापति द्वारा किया गया प्रथम अश्वमेध कहा गया।

मेध का अर्थ क्रिया रूप में लिया जाय तो मेरे द्वारा धारण किया गया (मे−धा) भी होता है। परमात्म चेतना सर्वत्र अश्वरूप में संचरित हो रही है। इसे जब किसी पदार्थ अथवा प्राणी द्वारा धारण किया जाता है, तो वह क्रिया मेध कहलाती है। प्राणियों में सक्रिय मेधा शक्ति इसी दिव्य मेध प्रक्रिया की अभिव्यक्ति कही जा सकती है। इस प्रकार यह अश्वमेध प्रक्रिया सृष्टि के विकास की यज्ञीय प्रक्रिया बनी।

पुरुष सूक्त में कहा गया है कि यह तो सृष्टि है वह इसी यज्ञ पुरुष की महिमा से संचालित है−

‘पुरुषएवेदœसर्वं” यद्भतं यच्चभाव्यम्, उतामृतत्वस्येशानी यदन्नेनातिरोहति॥

अर्थात्−जो अब तक हो चुका है और जो आगे संभावित है, वह यह पुरुष ही है। यही पुरुष अमरता का नियंत्रक−स्वामी है तथा अन्य कर्तृत्ववानों के साथ रहता है।

इस प्राण प्रसारक यज्ञीय प्रक्रिया का विस्तार हुआ तो दूसरे चरण में दिव्य चेतना को धारण और उसका प्रसारण करने वाले सूर्य−चन्द्र आदि की उत्पत्ति हुई−

‘चन्द्रमा मनसोजातश्चक्षोः सूर्यो अजायत’। यजु. 31/12

आकर्षण समझा जाना चाहिए। इसी कारण से शास्त्रकारों ने इन्हें शिल्पियों द्वारा ठीक−ठीक तैयार करवाने का निर्देश दिया है।

आधुनिक प्रचलित क्रियाओं में चतुष्कोण, अर्धचन्द्र त्रिकोण, वृक्ष, विषमषडस्र विषमअष्टस्र, पद्म, समषडस्र समअष्टस्र और योनिकुण्ड का उपयोग होता है। इनके चित्र साथ के पृष्ठ पर देखे जा सकते हैं।

आयाम विस्तार की भाँति ही−कुण्ड सिद्धि, और शारदा तिलक में कुण्ड की गहराई का विवेचन प्राप्त होता है। इसके अनुरूप जितना कुण्ड का विस्तार और आयाम हो उतना गहरा प्रथम मेखला तक करना चाहिए। तथा गहराई चौबीसवें भाग में कुण्ड का निर्माण होना श्रेष्ठ है। ‘क्रियासार’ और लक्षण संग्रह के अनुसार एक मेखला वाला कुण्ड अधम, दो मेखला वाला मध्यम और तीन मेखला वाला उत्तम होता है। कुछ विद्वानों के अनुरूप पाँच मेखला वाला कुण्ड उत्तम है।

इन मेखलाओं में सत्त्व, रजस् और तमस् की भावना से तीनों रंग भरे जाते हैं। मेखलाएँ पाँच हों वहाँ पंचतत्व की भावना से रँगने का विधान है।

कुण्ड निर्माण का विषय ज्यामिति, भूमिति, क्षेत्रमिति और वास्तुशास्त्र से अधिक सम्बन्ध रखता है। इस सम्बन्ध में अधिक रुचि रखने वाले जिज्ञासुओं को कुण्डसिद्धि, भविष्य, पुराण, वायु पुराण, अनुष्ठान प्रकाश, पंचरात्र क्रियासार समुच्चय शारदातिलक आदि ग्रन्थों का अवलोकन−अध्ययन करना चाहिए।

कुण्डों की रचना में भिन्नता का उद्देश्य यह है कि काम्यकर्मों की प्रधानता के अनुसार, उद्देश्यों की भिन्नता के अनुरूप, अलग−अलग आकार वाले भिन्न−भिन्न दिशाओं में कुण्ड बनाने से फल सिद्धि शीघ्र होती है। बहवृच परिशिष्टदि ग्रन्थों में कहा है− भुक्तौ−मुक्तौ तथा पुष्टौ जीर्णोद्वारे विशेषतः। सदा होमे तथा शान्तोवृतँ वरु णादिग्मतम् अर्थात्−भुक्ति−मुक्ति पुष्टि, जीर्णोद्धार, नित्य हवन तथा शान्ति के लिए पश्चिम दिशा में वृत्ताकार कुण्ड का निर्माण करना चाहिए। इसी प्रकार दिशा भेद का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए अन्य ग्रंथकारों ने लिखा है−स्तम्भन के लिए पूर्व दिशा में चतुरस भोग प्राप्ति के लिए अग्निकोण में योनि के आकार वाला, मारण के लिए दक्षिण दिशा में अर्धचन्द्र, अथवा नैऋत्य कोण में, त्रिकोण शान्ति के लिए पश्चिम में वृत्त, उच्चाटन के लिए वायव्यकोण में षडस्र, पौष्टिक कर्म के लिए उत्तर में पद्माकृति और मुक्ति के लिए ईशान में अष्टस्र कुण्ड प्रयुक्त होते हैं। इनमें से कुछ विशिष्ट कार्यों के लिए भी प्रयुक्त होते हैं−

पुत्र प्राप्ति के लिए योनिकुण्ड, भूत, प्रेत और ग्रहबाधा विनाश के लिए पंचास्र का प्रयोग होता है।

नित्य नैमित्तिक हवन में यदि हवनकुण्ड के निर्माण की सामर्थ्य न हो−तो शारदा तिलक के अनुसार “नित्यं नैमित्तिकं होमं स्थण्डिलें वासभाचरेत्” अर्थात्−चार अंगुल ऊँचा, एक हाथ लम्बा चौड़ा सुवर्णवर्ण पीली मिट्टी अथवा बालू रेती का स्थण्डिल बनाया जा सकता है। शास्त्रकारों के अनुसार कुण्डमेव विधानस्यात् स्थण्डिलेवा समाचरेत् स्थण्डिल (वेदिका) का वही स्थान है जो कुण्ड का है। शास्त्रों में यज्ञ के द्वारा बताए गए परिणामों को जीवन में चरितार्थ करने के लिए जरूरी है−यज्ञ विधान और उपकरणों की विशेषताएँ भी समझी और व्यवहार में लायी जायँ।

इस दृष्टि से वर्तमान समय में सम्पन्न की जा रही अश्वमेध महायज्ञों की श्रृंखला को अभूतपूर्व कहा जा सकता है। इसे अन्तरिक्ष और दृश्य जगत में नवयुग के अनुरूप वातावरण विनिर्मित करने वाले समर्थ प्रयोग के रूप में लिया जाना चाहिए। एक वैज्ञानिक प्रयोगकर्ता−जिस तरह अपने प्रयोग के सिद्धान्तों, विधानों, उपकरणों, की बारीकियों को समझता और व्यवहार में लाता है। कुछ वैसा ही यह अश्वमेध प्रयोग है। इसमें प्रयोग किए जाने वाले कुण्ड्र मण्डप, कर्मकाण्ड−सभी शास्त्र पद्धति के अनुसार होंगे। इसके परिणाम जहाँ आश्वमेधिक फलितार्थ को साकार करेंगे। वहीं भूल–बिसर चुकी वैदिक प्रक्रियाओं−परम्पराओं को सशक्त शिक्षण भी सम्पन्न होगा। इतना की क्यों−महायज्ञ, में भाग लेने वाले होता गण इस तत्व की जीवन्त अनुभूति कर सकेंगे कि वे वैदिक युग के महर्षिगणों में एक हैं। अनुभूति की यह निधि उन्हें जीवन पर्यन्त ऋषित्व के उदय और विकास के लिए प्रेरित करती रहेगी।

53−अश्वमेधेसर्वादेवता अन्वायत्ताः अश्वमेध में सभी देवता समुपस्थित रहते हैं।

61−राष्ट्रं वा अश्वमेधः − शतञ 13/1/6/3

राष्ट्र अश्वमेध है।


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