चार चरणों में सम्पन्न होगा अभिनव अश्वमेध

November 1992

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अश्वमेध आयोजन से प्रायः एक वर्ष पूर्व एक घोड़ा छोड़ा जाता था उसके माथे पर एक जयपत्र बाँधने की परम्परा थी। जिसका अर्थ होता था जो उन आदर्शों परम्पराओं से सहमत न हो जिनका अनुपालन एक सुसंस्कृत समाज करता है वे भी या तो बात मानें या युद्ध के लिए तैयार हों। यह एक प्रकार से दुष्प्रवृत्तियों के निवारण की शाक्त परम्परा थी। हिन्दू कुश से लेकर कन्याकुमारी तक और बंगाल की खाड़ी से उस छोर तक जहाँ इन दिनों पाकिस्तान का पश्चिमी भाग स्थित है समूचा देश एक जैसी साँस्कृतिक मान्यताओं में संगठित था। इतने विशाल भू भाग में एक सी संस्कृति विश्व में कहीं भी देखने को नहीं मिलती। यह एक प्रकार से सामाजिक शांति और सुव्यवस्था का उपक्रम था जो कालान्तर में लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो गया।

इस युग की परिस्थितियाँ जहाँ एकदम उलटी-पुलटी हैं वहीं दो तथा बहुत अनुकूल और आशाजनक हैं (1) आज की अनियंत्रित भौतिक लिप्साओं ने जन जीवन को इतना अशांत और तनावग्रस्त कर दिया है जिससे हर कोई छुटकारा पाना चाहता है (2) आज और कुछ हो या न हो पर विचार करने की मानवीय सामर्थ्य सुनिश्चित रूप से विकसित हुई। देव संस्कृति के लिए यही दो परिस्थितियाँ सर्वथा पक्षधर है जिससे उसे घर-घर प्रतिष्ठित करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। युग की परिस्थितियां उलटी हैं इसलिए व्यवस्था को भी उलट कर परिस्थितियों को सीधा करने का चार अध्यायों वाला कार्यक्रम निर्धारित किया गया है। पहले लोगों को आदर्शों पर चलने के लिए बलपूर्वक सहमत किया जाता था आज आने वाली पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य, पीड़ा और पतन के नाम पर वही कार्य करुणा जगाकर किया जाएगा।

(1) पहला कार्य लोगों का ध्यान व्यक्ति परिवार और सामाजिक जीवन में व्याप्त बुराइयाँ, पीड़ा और पतन की परिस्थितियों की ओर खींचकर उन्हें बुराइयाँ छोड़ने और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए सहमत करना है (2) सत्प्रवृत्तियों की फसल भविष्य में मुरझाने न पाए उसके लिए रचनात्मक उपायों का विस्तार करना (3) इन परिस्थितियों का नियमन नियंत्रण करने वाले समूचे तंत्र को जीवन्त बनाना (4) सत्प्रवृत्तियों पर औद्वत इस कारण जीतता है क्योंकि देवत्व संगठित वही होता इसलिए सुगढ़ और संगठित शक्ति का प्रदर्शन। इन चारों तथ्यों की पूर्ति के लिए समूचा अश्वमेध तंत्र चार भागों में पूर्ण होगा। इस समूची प्रक्रिया का नाम “देवसंस्कृति दिग्विजय अभियान है” अश्वमेध यज्ञ तो उसका मात्र चौथा प्रदर्शन पूरक भाग है

(1) ग्राम प्रदक्षिणा - सर्वप्रथम जहाँ अश्वमेध होना है वहाँ उस क्षेत्र या प्रदेश सभी मूर्धन्यों की गोष्ठी सम्पन्न की जाती है उन्हें ताल्लुका, सहसील स्तर अथवा पंचायत स्तक तक की क्षेत्रीय जिम्मेदारियाँ बाँटी जाती हैं। एक केन्द्रीय कार्यकारिणी बना दी जाती है जो समूची अश्वमेध व्यवस्था का संचालन करती है।

जिन तैंतीस हजार लोगों ने शपथ समारोह के समय समयदान दिया है उन सबका इस कार्यक्रम में नियोजन के पश्चात उन्हें इन क्षेत्रीय केन्द्रों पर आवश्यक विज्ञप्तियों तथा प्रचार सामग्री एवं उपकरणों सहित भेजा जाता है। स्थानीय लोग पहले से ही ग्राम प्रदक्षिणा केरुट और तिथियाँ निर्धारित कर लेते हैं, उसी के अनुसार यह परिव्राजक गाँव-गाँव पहुँचकर देवसंस्कृति की स्थापना का पावन कार्य सम्पन्न करते हैं।

स्थानीय समयदानी और शांतिकुंज से गये परिव्राजक चार-चार या पाँच-पाँच की टोलियों में विभक्त होकर साइकिलों से निकलते हैं। गीत गाते नारे लगाते हुये ये लोग एक दिन में एक दो या तीन गाँवों की प्रदक्षिणा करते है। पहले गाँव में गीत गाते हुये प्रदक्षिणा लोगों को सायंकाल पूर्व निर्धारित स्थान पर सम्मिलित होकर दीपयज्ञ में भाग लेने और अश्वमेध का संदेश सुनने के लिये आमन्त्रित किया जाता है फिर गाँव के किसी पवित्र स्थान पर मिट्टी पूजन करने का प्रावधान है। इसी स्थान से थोड़ी सी रज लेकर अश्वमेध यज्ञ के कुँड बनाने के लिये भेजी जाती है। इसी स्थान पर वृक्षारोपण होता है। गाँव वालों से यह प्रार्थना की जाती है। इसी स्थान पर वृक्षारोपण होता है। गाँव वालों से यह प्रार्थना की जाती है कि वे उस स्थान पर एक संस्कार चबूतरा या ग्राम देवता की स्थापना कर लें जहाँ पर्व त्योहार सार्वजनिक उत्सव ओर बच्चों के संस्कार सम्पन्न कराने का क्रम प्रारम्भ किया जाय इससे संस्कारों के प्रचलन की एक व्यवस्थित श्रृंखला प्रारंभ हो जायेगी। वहाँ प्रज्ञा मंडल भी स्थापित होंगे ताकि यह संस्कार मात्र उत्सव होकर न रह जायें अपितु उनके द्वारा व्यक्तित्व परिष्कार के उद्देश्य पूरे किये जा सके। आने वाली पीढ़ी को जीवन दर्शन का व्यावहारिक प्रशिक्षण मिलता रहे।

सायंकाल दीप यज्ञ होगा। उसमें उपस्थित जन समुदाय से देव दक्षिण माँगी जायेगी। देवदक्षिणा अर्थात् अपने जीवन की किसी एक बुराई का परित्याग और एक अच्छाई का वरण। यह संकल्प वे लिखित देंगे ताकि पीछे उन्हें सतत् अनुपालन की प्रेरणा भी दी जाती रहे। इसी सभा में अश्वमेध के आमंत्रण भी दिये जायेंगे।

ग्राम पूजन और दीपयज्ञ के बीच के खाली समय में देव स्थापनाएं संपन्न होगी। देव स्थापना का उद्देश्य घरों में उपासना के माध्यम से श्रद्धा का बीजारोपण है। अपेक्षा यह की जायेगी कि प्रत्येक गृहस्थ अपने घर में किसी पवित्र स्थान को उपासना स्थल बनावें वही सद्ज्ञान सद्विवेक की अधिष्ठात्री भगवती गायत्री का चित्र स्थापित करें। गायत्री उपासना व्यक्तिगत या सभी पारिवारिक जन सामूहिक रूप से करें। मंत्र जप करने की स्थिति न हो तो चालीसा का पाठ किया जा सकता है वह भी न बन पड़े तो हर सद्गृहस्थ स्नान के बाद उस स्थान पर अगरबत्ती लगाकर गायत्री माता का नमन वंदन भर कर लिया करें यह क्रिया प्रतिदिन घर के छोटे बच्चे देखेंगे तो उनमें श्रद्धा का बीजारोपण होगा। श्रद्धा सामाजिक सुव्यवस्था का मूलाधार है। व्यक्तित्व को दर्शन की गहराइयों तक ले जाने में भी श्रद्धा ही समर्थ है। अतएव आयोजन का प्राण है। उसके दूरगामी परिणाम सुनिश्चित समझे जाने चाहिये इसलिये समयदान का अधिकांश नियोजन इस प्रदक्षिणा कार्यक्रम में किया गया है।

2 संस्कार महोत्सव -इस देश में महापुरुषों की एक लम्बी श्रृंखला प्राचीन काल से चली आ रही है उसका एक मात्र कारण हमारी देवसंस्कृति में संस्कारों का प्रचलन रहा है। सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने देखा मनुष्य जीवन ने मनुष्य शरीर पर पी.एच.डी. की है मैं दि अननोन नाम से छपी इस उपाधि में मनुष्य शरीर को प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट कृति निरूपित किया गया है। यह संभावना व्यक्त की गई है कि शरीर की समूची शक्तियों का जिस दिन पता चलेगा लोग यह देखेंगे, आश्चर्य करेंगे इस पिंड में किस तरह परमात्मा ने समूचा ब्रह्माण्ड उतार दिया है। अपने ही भीतर सुरक्षित शक्तियों के अपार सागर से अनभिज्ञ मनुष्य कीड़े मकोड़ों जैसा निरीह जीवन जीता है। यह जितना मनुष्य के लिये अपमान जनम है उससे अधिक परमात्मा के लिये।

उसकी कृति कलंकित न हो जाय इसलिये अपने ऋषियों ने मनुष्य जीवन पर गम्भीर दृष्टि डाली उसकी मनोवैज्ञानिक और तात्विक समीक्षा की तो पता चला माँ के पेट में रजवीर्य की स्थापन से लेकर मृत्युपर्यंत जीवन में कुछ बहुत विशिष्ट मोड़ आते है। उन अवसरों पर उचित मार्गदर्शन और व्यवहार न मिलने से बच्चे दिग्भ्रान्त होते और जीवन लक्ष्य से भटक जाते है। शास्त्रकारों ने ऐसे 40 मोड़ों को तलाश उनमें से 16 को प्रमुख मानकर षोडश संस्कारों का प्रचलन किया। जिस तरह उपवन के पौधों और जंगली पेड़ों में एक मूलभूत अंतर होता है। उद्यान के वृक्ष स्वस्थ, सुडौल और अधिक फल देते हैं, जब कि जंगली पेड़ों की डालें, तने सब अनगढ़ और अव्यवस्थित होते हैं। सह अंती देखभाल करने वाले माली के पुरुषार्थ की प्रतिफल होता है। वह न केवल समय पर खाद पानी देता है, अपितु काट छाँट भी करता रहता है। संस्कार परम्परा भी व्यक्तित्व को निखारने की ऐसी ही स्वस्थ कला है। जो चिन्ह पूजा के रूप में चल तो आज भी रही है, पर उनसे जुड़े लोकशिक्षण ने अब मात्र कर्मकाण्ड या खाने पीने मौज मनाकर संस्कार सम्पन्न करने की कुरुचि का रूप धारण कर लिया है, अतएव उनका कुछ प्रतिफल नहीं निकल पाता

परम पूज्य गुरु देव ने संस्कारों को अति व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया है। गर्भाधान और जातवेद जैसे आज की परिस्थितियों में प्रायः असंभव संस्कारों को तो छोड़ दिया है पर जन्मदिन, विवाह दिवसोत्सव, दीक्षा एवं श्राद्ध संस्कार जोड़ दिये हैं। इससे प्राचीन काल की सभी अपेक्षित आवश्यकतायें पूर्ण हो जाती हैं। पाँच माह की अवस्था में भ्रूण का मस्तिष्क भाग बनना प्रारम्भ होता है। यह एक तरह का शरीर का राज्याभिषेक पर्व है। पाँच माह में पुँसवन मनाने की परम्परा इसीलिए पड़ी। बीज को संस्कारित कर देने से पौधे स्वस्थ होते हैं। यही इनका उद्देश्य है। हिन्दू धर्म कोश के अनुसार गर्भाधान, पुँसवन, सीमांतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह संस्कार और अन्त्येष्टि किये हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सभी संस्कार उस आयु और अवस्था में सम्पन्न होते हैं जब उस तरह के विशेष मार्गदर्शन, प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए बच्चे के शरीर का “हारमोनिक विकास 8 से 13 वर्ष की आयु में होता है। यह आयु जीवन का सबसे नाजुक मोड़ होती है। इसी आयु में अधिकाँश बच्चे बिगड़ते हैं अतएव इसी आयु में यज्ञोपवीत या व्रत−बंध रखा गया। दीक्षा, शिखा स्थापन, जन्मदिन संस्कार एवं विवाह दिवसोत्सव पूज्य गुरु देव ने इन्हें बहुत महत्व देने की दृष्टि से आज की परिस्थितियों में विशेष मार्गदर्शन के रूप में जोड़े। यह व्यक्तित्व को सशक्त, समर्थ और प्रखर बनाने के अभूतपूर्व प्रयोग हैं। इसी कारण इन्हें देवसंस्कृति दिग्विजय को एक प्रमुख रचनात्मक कदम के रूप में जोड़ा गया है।

जहाँ अश्वमेध होंगे वहीं दो−दो दिन के संस्कार महोत्सव होंगे। यह प्रचार प्रधान और अश्वमेध से जुड़े हुए होंगे। इन के अधिकाँश क्रिया कलाप ग्राम प्रदक्षिणा के समान ही होंगे अन्तर केवल इतना होगा कि यह कस्बों व नगरों में सम्पन्न होंगे। यहीं दोनों दिन प्रभात फेरी होगी। सत्प्रवृत्ति संवर्धन, दुष्प्रवृत्ति निवारण संकल्प, दीपयज्ञ यथावत होंगे। देवस्थापना थोड़ा भिन्न होगी। सामूहिक संस्कारों का प्रतिपादन प्रधान प्रदर्शन जुड़ा होने से इनका नाम संस्कार महोत्सव रखा गया है उद्देश्य यह रखा गया है कि संस्कारों की वैज्ञानिकता को लोग समझें भी अपनायें भी।

(3) तीर्थ परिक्रमा−प्राचीन काल में हमारे तीर्थ और देवालय मानवीय मेधा को धर्मपरायण बनाये रखने का दायित्व निवाहते थे। वहाँ न केवल उपासना, कथा−कीर्तन सत्संग के प्रावधान नियत थे अपितु आरण्यक परम्परा की अन्तर्मुखी योग साधनाएँ भी कराई जाती थीं। इनका संचालन सिद्धों, समर्थों एवं विद्वान तत्वदर्शियों के हाथ हुआ करता था। “अश्वमेध” की एक परिभाषा−मानवीय बौद्धिक क्षमता को शक्तिशाली बनाए रखना भी होता है वह अध्यात्म से ही संभव है। सभी जानते हैं कि सूर, मीरा, नानकदेव, कबीर बहुत पढ़े नहीं थे। कबीर तो अनपढ़ थे पर उनके बोधात्मक साहित्य सृजन की व्याख्या करने में आज का योग्यतम बुद्धि कौशल भी समर्थ नहीं है। यह उनके आध्यात्मिक चिन्तन का ही प्रभाव था। यह कार्य प्राचीन काल में तीर्थों देवालयों द्वारा सम्पन्न होते थे। पर आज तो उनका स्वरूप मात्र व्यावसायिक रह गया है। कहीं−कहीं तो पंडाओं का आतंक इतना अधिक है, कि वहाँ एक बार हो आने वाला फिर कभी दुबारा उधर मुड़कर नहीं देखता। इतना ही नहीं, वह उल्टा प्रचार भी करता है ताकि जिस संकट से वह गुजर कर आयु हैं उस चंगुल में दूसरे लोग न पड़े।

स्थिति चिन्ताजनक है तथादि तीर्थों की उपयोगिता अपने स्थान पर यथावत स्थिर है। उन्हें अपनी दिशा बदलने के लिए सहमत करने के उद्देश्य से तीर्थ परिक्रमा कार्यक्रम को अश्वमेध के तीसरे चरण के रूप में समाविष्ट किया गया है। इस के लिए एक स्थान से तीन चार गाड़ियाँ गाते बजाते नारे लगाते चलेंगी, तीर्थों में पहुँचेगी। उनका पूजन करेंगी। अश्वमेध के लिए जल रज संग्रह करेंगी। रात में जहाँ विश्राम होगा वहाँ दीपयज्ञ होगा, वहाँ उपस्थित लोगों को कथा कीर्तनों, प्रवचनों के माध्यम से तीर्थों का महत्व समझाया जायेगा उन्हें कुछ न कुछ रचनात्मक क्रिया−कलाप चलाकर जन श्रद्धा का सम्मान करने के लिए सहमत किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि धर्मतंत्र आज भी साधनों की दृष्टि से इतना समर्थ है कि देशभर की शिक्षा, स्वास्थ्य की आवश्यकताओं को अकेले यही सम्पन्न कर सकता है स्कूलों, अस्पतालों की परिपूर्ण संख्या चलाने की क्षमता इनके पास है। यह प्रयास किया जाएगा कि देवालय अपनी गरिमा समझें और उसका निर्वाह भी करें।

(4) सहस्रवेदीय अश्वमेध यज्ञ − इतना सब सम्पन्न होने के पश्चात् अश्वमेध यज्ञ होगा। इन यज्ञों का अनुशासन, संचालन धार्मिक कर्मकाण्ड, स्थापनाएँ, सामग्री, संरचना कुँडों के आकार प्रकार सभी अन्य यज्ञों से भिन्न प्रकार के होते हैं। इनमें न केवल ग्रहविज्ञान, ज्योतिष अपितु तंत्र का भी गोपनीय समावेश रखा गया है। यह एक प्रकार से देवताओं की मिन्नत नहीं, उनसे माँगा जाने वाला कानूनी अधिकार है। उन्हें इसके लिए प्रसन्नतापूर्वक बाध्य करने का नाम अश्वमेध है। इन यज्ञों के सम्बन्ध में जितनी भी फलश्रुतियाँ गाई गई हैं वे अकाट्य है, पर ये कार्य उतने क्षमता एवं साधन साध्य भी हैं, इसलिए प्राचीन काल में यह आयोजन एक सौ राजा मिलकर करते थे। इस युग में प्रजा की संगठित शक्ति का नाम ही राजा है। यह संगठन शक्ति धर्म से जुड़कर सामर्थ्यवान् बन गई है। इसके कुछ विधान कहीं भी व्यक्त नहीं किए जा सकते इसलिए सम्पूर्ण नियंत्रण शान्तिकुँज के तत्वावधान में रखा गया है। इन दिनों एक “आश्वमेधिक विभाग“ ही स्थापित किया गया है जो प्राचीन काल से लेकर अब तक की समूची व्यवस्थाओं का संकलन भी कर रहा है। प्रशिक्षण भी दे रहा है और समूची विधि व्यवस्था का संचालन भी कर रहा है। यज्ञकुँड भिन्न प्रकार के होंगे। विशिष्ट, अतिथियों, विशिष्ट साधनाएं सम्पन्न करने वाले प्रयोजकों, इस समूचे अश्वमेध अभियान को सेवायें देने वाले परिजनों, उनके सम्बन्धियों तथा सामान्य महिला पुरुष याजकों, अनुयाजकों के लिए यज्ञकुंडों की प्रथक व्यवस्था रखी गई है। देवपूजन के यजमान विशिष्ट लोग होंगे। इस सबके लिए आवश्यक जानकारियाँ परिपत्र, प्रवेशपत्र आदि के लिए शान्तिकुँज हरिद्वार और अलग−अलग उन स्थानों से संपर्क साधा जा सकता है, अयं यज्ञों देवया अयं मियेध। − ऋग्वेद 1/188/4

‘यह यज्ञ देव (परमात्मा) तक ले जाने वाला है। यह पवित्र है और पवित्र करने वाला है।

‘अश्वमेधेन यजते सर्वान्कामानाप्नोती सर्वाव्युष्टीर्व्यश्नुते।’ − शाँखायन श्रौतसूत्र 6/1/1

अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान या उसमें सम्मिलित होने का प्रतिफल सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति के रूप में प्राप्त होता है। जहाँ यह अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न होने जा रहे हैं। अभी वर्ष 94 तक के आयोजनों की घोषणा हुई है 5−6−7 नवम्बर 95 को परम पूज्य गुरु देव द्वारा पूर्व घोषित युग सन्धि महापुरश्चरण की प्रथम पूर्णाहुति उनकी जन्मभूमि आँवलखेड़ा में होगी। शेष अश्वमेधों का निर्धारण उसके बाद होगा। विश्वास किया जाना चाहिए चार चरणों में सम्पन्न होने वाला यह अश्वमेध अभियान धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष−जीवन के इन चारों

पुरुषार्थ से समूचे राष्ट्र को समर्थ बनाएगा। इनमें भाग लेने वाले स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेंगे।


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