देव संस्कृति का मेरुदण्ड है-यज्ञ

November 1992

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साँस्कृतिक परम्पराओं का प्रचलन तत्वदर्शी ऋषियों ने बुद्धिमत्ता, सूक्ष्मदृष्टि, उपयोगिता एवं तथा स्थिति को ध्यान में रखकर ही किया है। ‘यज्ञ’ को देव संस्कृति का मेरुदण्ड स्वीकारने के पीछे उनकी यही समझ रही है। उपयोगिता रहित प्रचलन कर सकना उनके लिए सम्भव नहीं था। प्रमुखता देने के क्रम में भी उन्होंने किसी कृत्य की प्रतिक्रिया एवं उपलब्धि को ही ध्यान में रखा है। यज्ञ को धर्मकृत्यों में श्रेष्ठतम माने जाने में भी उसकी भौतिक एवं आत्मिक उपलब्धियाँ ही प्रधान रही है।

शास्त्रों में भगवान का एक नाम ‘यज्ञ पुरुष’ भी है। शतपथ ब्राह्मण की याो वै विष्णुः उक्ति में या को निश्चित रूप से विष्णु ही माना है। ‘वे’ शब्द में इस प्रतिपादन पर जोर दिया गया है और निश्चित कहा गया है। ऋग्वेद के आरम्भ में यज्ञ को मार्गदर्शक -पुरोहित, सद्गुरु बताया गया है। भजन करने वाले को ‘देव’ संज्ञा देते हुए उस कृत्य की प्रतिक्रिया को रत्नराशि की उपमा दी गई है। वेद वाङ्मय में जितना प्रकाश यज्ञ विद्या पर डाला गया है और यज्ञाग्नि का माहात्म्य बताया गया है उतना और किसी का नहीं। प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ ‘सिद्धान्त शिरोमणि ‘ में कहा है- ‘वेदास्तावद् यज्ञकर्म प्रवृत्तः ‘ अर्थात् -वेदों की प्रवृत्ति यज्ञ कर्मार्थ बताई है। यही बात लगध ज्योतिष में भी आई है-’वेदाहि यज्ञार्थभिप्रवृत्ताः (7 खण्ड)। वेद का ग्राह्मण भाग भी यही बताता है- ‘चत्वारो वैवेदाः तैय।स्तायते’ (गोपथ ब्राह्मण 1/4/24)। केवल यही नहीं अन्यत्र भी यही बताया है ‘यज्ञोवेदेषु प्रतिष्ठितः’(गो. 1/1/38) प्रसिद्ध तार्किक दर्शन न्याय के वात्स्यायन भाष्य में भी यही सूचना मिलती है

‘यज्ञोमन्त्रः वेदस्य विषयः’ (4/1/62)।

सामान्य जीवन के परम्परागत धर्मकृत्यों में यज्ञ

अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है। जन्म से लेकर मरण पर्यंत षोडश संस्कारों के रूप में इस प्रक्रिया का सोलह बार प्रयोग करके जीवन क्रम में से पशु प्रवृत्ति के निराकरण और देव प्रवृत्ति के अभिवर्धन की अपेक्षा की जाती रही है। प्रत्येक पर्व ओर शुभारम्भ में यज्ञ कृत्य की अनिवार्यता मानी गई है। होली वार्षिक यज्ञ है। पाँच आहुतियों का बलिवैश्व यज्ञ दैनिक नित्यकर्म में सम्मिलित रखा गया है। भारतीय धर्मानुयायी का विवाह विधान यज्ञ कृत्य के साथ ही सम्पन्न होता है। पार्थिव शरीर का पूर्णाहुति चिता जलाकर अन्त्येष्टि यज्ञ के रूप में सम्पन्न होती है। इन परम्पराओं पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि जीवनचर्या में या को कितनी गहराई से घुला-मिलाकर रखा गया है। इसी पारस्परिक अविच्छिन्नता ने देव संस्कृति को यज्ञ संस्कृति की गरिमा प्रदान की है।

यज्ञ का भावार्थ-परमार्थ प्रयोजनों के लिए किया गया सत्कर्म। यज् धातु से निष्पन्न या शब्द के तीन अर्थ है (1) देवपूजन (2) संगति-करण (3) दान। इन तीनों ही प्रवृत्तियों को व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष की दिव्य धाराएँ कहा जा सकता है। देवपूजन का अर्थ है- परिष्कृत व्यक्तित्व-दैवी सद्गुणों का अनुगमन। संगतिकरण अर्थात्-एकता सहकारिता-संघबद्धता। दान -अर्थात्-समाज परायणता विश्व कौटुम्बिकता-उदार सहृदयता। इन तीन प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व ‘यज्ञ’ करता है। उसे इन त्रिविध प्रतिपादनों की ज्वलंत प्रतिमा-धवल ध्वजा कहा जा सकता है। ज्ञान-यज्ञ की लाल मशाल को इसी यज्ञाग्नि का प्रतिनिधि समझा जा सकता है इस प्रक्रिया में सद्भावनाओं को सत्कर्मों के रूप में परिणित करने की प्रेरणा है। ज्ञान और कर्म का समन्वय ही प्रगति के आधार खड़े करता है। सत्कर्म को तप और सद्ज्ञान को योग कहा गया है। आत्मिक प्रगति के यही आधार है। भौतिक प्रगति के लिए भी श्रम और शिक्षा को ही प्रधान साधन माना गया है। इनमें यज्ञीय सिद्धांतों को झाँकते हुए देखा जा सकता है।

यज्ञ विशुद्ध रूप में सामूहिक है। इसके एकाकी प्रयोग को निरुत्साहित किया गया है। कम से कम पति- पत्नी तो हो ही। एन. सी. वंद्योपाध्याय ने अपने ग्रन्थ “डेवलनमेण्ट ऑफ पाँलिटिकल थीअरीज” में इस तथ्य को स्वीकारते हुए ऋग्वेद के मण्डल 2 से 9 तक की अनेक ऋचाओं का हवाला दिया है। पश्चिमी मनीषी. ए. बार्थ ने “रिलीजंस आँव इण्डिया “ में यज्ञ को मानव-समाज और प्रकृति के बीच मधुर सम्बन्धों की व्यवस्था बताया है। उन्होंने “सजोश-स्त्ववादिवों नरो यज्ञस्यकेतुमिन्धते॥

मानुषोजनः सुम्नायुर्जुहवे अध्वरे। ऋग्वेद 6/2/3 है और मानव जाति (अग्नि ) को प्रदीप्त करते है और मानव जाति (मानुषों जनः) पवित्र अनुष्ठान में अग्नि का आमंत्रित करती है। मंत्र का हवाला देते हुए बताया हैं सचाई भी यही है-यज्ञीय प्रवृत्ति यह है कि उपयोगी पदार्थों को निज के लिए सार्वजनिक हित के लिए वायुभूत बनाकर बिखेर दिया जाय। वसोधरा में समष्टि में व्यष्टि के समर्पण की ही भावाभिव्यक्ति है।

यज्ञ कृत्य के प्रायः सभी क्रिया−कलाप ऐसे है। जिनमें अनेकों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। पवित्र जलाशयों का जल, पवित्र वनस्पतियों का संग्रह कुण्ड, मण्डप निर्माण आदि में आरम्भ से अन्त तक होने वाले सभी क्रिया-कृत्यों में सामूहिकता-सहकारिता की आवश्यकता पड़ती है। मंत्रोच्चार से लेकर आहुतिदान, परिक्रमा जैसे सभी कृत्यों में एकरूपता समस्वरता का अनुशासन पालन होता है। सामूहिकता का यह तत्वदर्शन ही व्यक्ति को महान बनाता है। विराट् ब्रह्म की कल्पना के साथ-साथ यज्ञावशिष्ट हो खाने का निर्देश है। जो दिए बिना खाता है सो चोर है। देवताओं ने यज्ञ से देवतत्व प्राप्त किया जैसी सूक्तियाँ मिलती है। इन प्रतिपादनों में समाज परायणता की प्रेरणा है। संक्षेप में यज्ञ दर्शन व्यक्तिगत जीवन में चरित्रनिष्ठा और लोक व्यवहार में -समाज निष्ठा के आदर्श को अपनाए जाने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति और सुख शांति का यही एक मार्ग है।

यज्ञ की प्रतीक प्रतिमा में सन्निहित सूक्ष्म प्रेरणाओं की व्याख्या करते हुए व्यक्ति को पवित्र और समाज को समर्थ बनाने का शिक्षण जितना इसमें है-उतना अन्यत्र कही नहीं। यज्ञाग्नि की कितनी ही विशेषताएँ है- (1) सदा गरम अर्थात्-सक्रिय रहना (2) ज्योतित अर्थात् -अनुकरणीय बनकर रहना (3) संपर्क में आने वाले को अपने जैसा बना लेना (4) उपलब्धियों का संग्रह न करके वितरित करते रहना (5) लौ-ऊँची रखना-चिंतन और स्वाभिमान को नीचे न गिरने देना। यज्ञाग्नि की यही सद्गुण सामर्थ्य ऋग्वेद-7/1/7-7/11/1, अथर्ववेद -5/12/2, शतपथ ब्राह्मण 3/7/4/10, शांखायन ब्राह्मण 3/7 महाभारत 7/7/10 में वन्दित की गई है। इसे देवमुख कहकर वर प्रदाता माना गया है। स्वर्ग तक आत्मा को पहुँचाने वाला वाहन क्या हो सकता है? इस प्रश्न को उत्तर देते हुए शास्त्रों ने कहा है-यज्ञाग्नि। अथर्व 18/4/2, ऐतरेय ब्राह्मण 1/2/10, शतपथ ब्राह्मण 12/4/1/7 में इसी कम का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। हो भी क्यों न? इन पाँच विभूतियों का महत्व समझने और व्यवहार में उतारने की प्रक्रिया चल पड़े तो मानव-जीवन देवत्व-स्वर्ग अनुदानों-वरदानों से भरा-पुरा दिखने लगेगा।

शतपथ ब्राह्मण के 1/10/14 में कहा गया है-यज्ञों भुवस्य नाभि:− अर्थात्- यज्ञ संसार की धुरी है। उसी के सहारे विश्व ब्रह्माण्ड का गतिचक्र घूमता हैं यज्ञ का तत्वदर्शन उदारता, पवित्रता सहकारिता का त्रिवेणी पर केन्द्रित है। यही तीन तथ्य ऐसे है जो इस विश्व को सुखद, सुन्दर और समुन्नत बनाए हुए है। ग्रह नक्षत्र पारस्परिक आकर्षण में बँधे हुए ही नहीं हैं, एक दूसरे को महत्वपूर्ण आदान-प्रदान भी करते है। परमाणु और जीवाणु जगत भी इन्हीं सिद्धान्तों के सहारे अपनी गतिविधियाँ सुनियोजित रीति से चला रहे है। सृष्टि, संरचना, गतिशीलता और सुव्यवस्था में संतुलन - इकोलॉजी का सिद्धान्त ही, सर्वत्र काम करता हुआ दिखाई पड़ता है। हरियाली से प्राणि -पशु निर्वाह, प्राणि शरीर से खाद का उत्पादन, खाद उत्पादन से पृथ्वी को खाद-खाद से हरियाली यह सहकारिता चक्र घूमने से ही जीवधारियों की शरीर यात्रा चल रही है। समुद्र से बादल, बादलों से भूमि में आर्द्रता-आर्द्रता से नदियों का प्रवाह नदियों से समुद्र की क्षतिपूर्ति यह जलचक्र धरती और वरुण का संपर्क बनाता और प्राणियों के निर्वाह की उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। शरीर के अवयव एक दूसरे की सहायता करके जीवनचक्र को घुमाते है। समाज संरचना के आधार पर अर्थतन्त्र, शासनतन्त्र तथा दूसरे प्रगतिक्रम चलते है। यह यज्ञीय परम्परा ही है, जिसके कारण जड़ और चेतन दोनों ही अपना सुव्यवस्थित रूप बनाए हुए है। इसी से यज्ञ तत्व को विश्व की नाभि-धुरी कहा गया है।

यज्ञ का भौतिक विज्ञान भी है। वायुशोधन की -दुर्गन्ध को दमन करने की यह प्रक्रिया मनुष्य की सबसे बड़ी खुराक प्राणवायु के परिशोधन में महत्वपूर्ण योगदान कराती है। आज जब पर्यावरण समस्या ने विश्व संकट का रूप धारण कर लिया है तो परिशोधन के प्रमुख अस्त्र यज्ञोपचार की ओर से प्रखर बनाना होगा। मनीषी एम. मोनियर के ग्रन्थ ‘एन्शिएन्ट हिस्ट्री आँव मोडिनि’ के अनुसार रोग कीटाणुओं को मारने की जितनी शक्ति यज्ञ ऊर्जा में है, उतनी सरल व्यापक और सस्ती पद्धति अभी तक नहीं खोजी जा सकी है। इसके द्वारा प्राचीनकाल में शारीरिक व्याधियों एवं मानसिक आधियों के शमन में सफलतापूर्वक प्रयोग किए जाने के प्रमाण अथर्व 12/31/31, 4/37, 1/18,19/38/12,5/29, 6/111 तथा ऋग्वेद 3 रु11, 20/96, 10/169 आदि स्थानों पर देखें जा सकते है। यज्ञ चिकित्सा के ये विस्मृत प्रयोग फिर से दुहराए जा सके, तो ऐसे सत्परिणामों की पूरी-पूरी सम्भावना है कि शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों को भी सफल उपचार किया जा सके।

भौतिक विज्ञान से कहीं अधिक सशक्त और समर्थ है-सूक्ष्म विज्ञान उसके तत्वज्ञान और विधि-विधान में ऐसे तत्व विद्यमान हैं जो सूक्ष्म जगत के अदृश्य वातावरण में देवत्व में देवत्व की मात्रा बढ़ाते है। उससे सर्वजनीन सुख-शान्ति में अदृश्य सहायता मिलती है। वायु शोधन की अपेक्षा वातावरण का निर्माण यज्ञों का प्रमुख प्रयोजन है। पवित्र वेद मंत्रों का सस्वर उच्चारण-विश्व चेतना में पवित्रता के तत्व भरने वाले दिव्य कम्पन उत्पन्न करता है। सामान्य आग को यज्ञाग्नि -देवाग्नि बनाने का कार्य अध्वर्यु, उद्गाता जैसे विशिष्ट याजकों की श्रद्धा-संकल्प-शक्ति करती है। पवित्र हवन-द्रव्यों के जलने से उत्पन्न हुई ऊर्जा से सूक्ष्म जगत में उपयोगी परिवर्तन होते है। एकरूपता, समस्वरता सहक्रिया की शक्ति सर्वत्र स्वीकारी जाती है। यज्ञ में ऐसे-ऐसे अनेकानेक आधारों का समन्वय है- जिनका सम्मिलित प्रभाव वातावरण में ऐसे उपयोगी तत्वों का समावेश करता है। जो अविज्ञात रूप से विश्वकल्याण की भूमिका सम्पन्न कर सके।

इस प्रक्रिया का समष्टिगत व्यापक प्रभाव पर्जन्य वर्षा के रूप में होता है। पर्जन्य का मोटा अर्थ होता है-बादल। सूक्ष्म अर्थ होता है-प्राण वर्षण। प्राचीनकाल के यज्ञ युग में सर्वत्र विपुल वर्षाएँ होती थी। इससे यज्ञकर्म और मेघवर्षा की परस्पर संगति बैठती है। जब-जब दुर्भिक्ष निवारण के लिए मेघ वर्षा के निमित्त विशिष्ट अग्निहोत्र प्रयोग हुए है और बहुत बार सफल भी हुए है, पर वस्तुतः पर्जन्य इससे आगे का प्राणतत्व है जो यज्ञ के माध्यम से आकाश में उत्पन्न होता है। तथा बादलों के माध्यम से धरती पर बरसता है। इस पर्जन्य प्राण वर्षा से सृष्टि के समस्त जड़-चेतन को नव जीवन एवं समर्थ उल्लास प्राप्त होता है। घास-पात औषधियाँ, जल, अन्न आदि इस पर्जन्य से विशिष्ट परिपोषण प्राप्त करते है। उनका सामर्थ्य स्तर कहीं और अधिक बढ़ जाता है। फलतः इन्हें जो भी पशु या मनुष्य प्रयोग करते है, उनकी प्रखरता कहीं अधिक बढ़ जाती है। यह उपलब्धि सर्वतोमुखी प्रगति में हर दृष्टि से महत्वपूर्ण सिद्ध होती है।

जितनी व्यापक मनुष्य की जिन्दगी, स्वयं में यह सृष्टि है, उतनी ही व्यापक यज्ञ का दर्शन और इस प्रक्रिया से होने वाली उपलब्धियाँ है। समूची मानव-जाति के जीवन से इसकी अभिन्नता सिद्ध करते हुए भगवान गीता में कहते है-

सह यज्ञाः प्रजाः सृष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽसितवष्ट कामधुक्॥ देवान् भावयतानेन, तो देवाभावयन्तु वः॥ परस्पर भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥ (3/10रु11)

अर्थात् प्रजापति ने मनुष्य और यज्ञ को साथ-साथ उत्पन्न किया और कहा इस यज्ञ के द्वारा तुम लोग उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करो, यह यज्ञ तुम लोगों को मनोवाँछित फल प्रदान करे। इसके द्वारा तुम लोगों को मनोवाँछित फल प्रदान करे। इसके द्वारा तुम लोग देवताओं का संवर्धन करो, देवता तुम लोगों को संवर्धित करेंगे। इस प्रकार पारस्परिक संवर्धन से तुम लोग परम मंगल प्राप्त करोगे।

शास्त्रकारों का तो यहाँ तक कहना है-

यस्य राष्ट्रे पुरे चैव भगवान यज्ञ पुरुषः। ज्यतये स्वेन धर्मेण जनैः वर्णाश्रमन्वितैः। तस्य राजा महाीग गाय«यै परितुष्यति विश्वात्मा तिष्ठतो निज शसने। तस्मिंस्तुष्अ किमप्राप्यं जगतमीश्वरेश्वर।

अर्थात् -जिस देश या नगर के निवास धर्म का पालन करते हुए या पुरुष को प्रसन्न करते है वहाँ गायत्री माता का अनुग्रह बरसता है, और सुख, शान्ति बढ़ती है।

पद्य पुराण सृष्टि 3/124 में कहा गया है-

यज्ञेनाप्यायिता देवाँ वृष्ठयुत्यर्रोण मानवः। आप्यायनं वै कुर्वन्ति यज्ञाः कल्याण् हेतवः।

यज्ञ में प्रसन्न हुए देवता मनुष्यों, पर कल्याण की वर्षा करते है।

संक्षेप में यही कहा जा सकता है-यज्ञ प्रक्रिया के सत्परिणाम व्यापक और विपुल है। इन दिनों जो अश्वमेध महायज्ञ का उच्चस्तरीय प्रयास किया जा रहा है उसमें युगक्रान्ति के स्थूल और सूक्ष्म स्तर के उन सभी तत्वों का समावेश है, जो जनमानस को, व्यापक वातावरण को, परिष्कृत करके उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकेंगे।


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