रंगों से विनिर्मित पिण्ड का पोषण देते हैं- रंग

December 1988

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मनीषियों का अभिमत है कि यह समग्र सृष्टि विभिन्न रंगों का समुच्चय है एवं ये वर्ण जीवन व्यापार के संचालन में महती भूमिका निभाते है, चाहे वह मानव हो, जीव-जन्तु हो या वृक्ष वनस्पति। सूर्य की सप्तवर्णी किरणें तो जीवन का आधार है ही, वैज्ञानिकों ने यह भी माना है कि सम्पूर्ण मानवी काया रंगों का एक पिण्ड है। उसकी प्रत्येक कोशिका से रंगीन ऊर्जा तरंगें फूटती रहती है। मेरी एण्डरसन अपनी पुस्तक “कलर हीलिंग” में कहती है कि “रंग ही जीवन है”। उनके अनुसार मानवी काया में रक्त लाल है तो हड्डियाँ मटमैली सफेद। त्वचा का रंग काला, गोरा या गेहुँआ हो सकता है। इसी प्रकार मस्तिष्क, हृदय, फेफड़े, यकृत, आँत, गुर्दे, माँस-मज्जा आदि सभी के अपने अपने रंग है। इसी आधार पर चिकित्सकों ने “कलर अमेजिंग” नामक एक नयी तकनीक विकसित की है, जिसमें विभिन्न वर्णों की सामान्यता-असामान्यता, तरंग दैर्ध्य से शारीरिक मानसिक रुग्णता का निदान निर्धारण किया जाता है। वस्तुतः रंग है क्या? इसका उत्तर देते हुए भौतिक विज्ञानी कहते हैं कि रंगों का यह सारा खेल इलेक्ट्रानों और विकिरणों की तरंगों की न्यूनाधिक लम्बाई के कारण उपजता है। प्रत्येक परमाणु के नाभिक के बाहर चक्कर लगाते इलेक्ट्रॉन विशिष्ट लम्बाई की रेडियो तरंगों को सोखने की क्षमता रखते हैं। ये बाहरी इलेक्ट्रॉन स्थिति विशेरु में उत्तेजित हो उठते है एवं बाहरी कक्षाओं में कूद जाते है। ये स्थितियां तब उत्पन्न होती है जब वे पराबैगनी अल्ट्रावायलेट प्रकाश किरणों को अधिक मात्रा में अवशोषित करने लगते है, यह उत्तेजना की स्थिति थोड़ी देर बनी रहती है, वापस सामान्य स्थिति होती रहती है। इस मध्यावधि में परिवर्तन प्रक्रिया से एक निश्चित तरंग लम्बाई के फोटोन कण उत्सर्जित होते है। इस प्रकार के उत्सर्जित विकिरण की तरंग लम्बाई ही सात रंगों में से किसी एक रंग का निर्धारण करती है जिन्हें मस्तिष्क का विजुअल कार्टेक्स पहचानता तथा मस्तिष्क को यह बता है कि यह कौन-सा रंग है। सूर्य की सप्तवर्णी किरणों एवं प्रकृति के विविध वर्णों का ज्ञान इसी आधार पर होता है।

वस्तुतः यह एक अपने आप में सर्वांगपूर्ण विज्ञान हैं। प्रकाश रश्मियों एवं सप्तवर्णों में से किसे किस स्थिति में चुनना है, यह आज के वैज्ञानिक वर्ग के लिए एक शोध का विषय है। सूर्य किरणें एवं प्रकृति में विद्यमान रंगों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का मत है कि भिन्न भिन्न रंग व्यक्ति विशेष की मन स्थिति के आधार पर अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव डालते है। रंगों को अवसर या ऋतु विशेष के अनुरूप किस प्रकार चुना जाय, इसका आधार पर उनसे उत्पन्न संवेदन प्रतिक्रिया ही हैं।

प्रकृति के अनुरूप ही रंगों के प्रति आकर्षण विकर्षण होता है किसी को लाल रंग के कपड़े पहनने से चक्कर आने लगते है तो किसी को काले कपड़े पहनने से मानसिक अवसाद आ घेरता हैं। मनःचिकित्सक इस प्रतिक्रिया के आधार पर उन्हें उपयुक्त सुझाव देते है। यू.सी.एल.ए. के मूर्धन्य चिकित्सा विज्ञान डॉ.हाँस का कथन है कि प्रयोग परीक्षणों के आधार पर यह तथ्य सामने आया है कि प्रमादी अल्प मन्दताग्रस्त विद्यार्थियों के कमरों में लाग रंग पुतवा देने से उनकी कार्यक्षमता भी बढ़ी तथा उनमें स्फूर्ति उत्साह के साथ-साथ उनकी बुद्धिलब्धि में भी वृद्धि हुई। चपल चतुर प्रकृति के विद्यार्थियों पर इसी प्रकार उन्होंने हल्के नीले व आसमानी रंग का प्रयोग किया। इससे शामक प्रतिक्रिया हुई और उनकी चंचलता घटी, तनाव में कमी आयी। सामान्य प्रकृति के मनोविकार ग्रन्थि रहित व्यक्तियों में हल्का पीला वासन्ती था। लेक रंग प्रयुक्त करने पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पाई गयी।

स्टेनफोर्ड रिसर्च सेण्टर के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. अलबर्ट काहन का मत है कि कई मनोविकार ग्रस्त, तनाव पीड़ित बेचैन व्यक्तियों का उपचार मात्र उनके आसपास के रंगों को बदलकर किया जा सकता है। साथ ही वे यह भी कहते है कि भलीभाँति मनोविश्लेषण कर यदि सही रंग सबको पहले से ही सुझा दिये जाये तो अनेकों मनोरोगों को को टाला जा सकता है। सही रंग के चुनाव में त्रुटि भी बहुसंख्यक व्याधियों के कारण हो सकती, यह एक चौंकाने वाला तथ्य है।

रंगों के आधार पर मनोविज्ञान परक विश्लेषण कैसे संभव है इसे लक्ष्य बनाते हुए पश्चिम जर्मनी के ख्यातिप्राप्त मनःचिकित्सक डॉ. मैक्सल्यूसर ने व्यक्तित्व विश्लेषण की एक पद्धति विकसित की है जिसमें कुल आठ रंगों में से व्यक्ति को अपनी पसन्दगी नापसंदगी के अनुसार रंग चुनने होते हैं। ये आठ रंग है, जामुनी, नीला, हरा, लाल, पीला, कत्थई, भूरा और काला। डॉ. ल्यूसर के अनुसार नीला रंग शाँतिपूर्ण सात्विक प्रभाव के कारण शान्त, सौम्य, सतोगुणी व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता हैं। हरा रंग सक्रियता, काम के प्रति गहरी आसक्ति और गतिशीलता का द्योतक है। ऐसे व्यक्ति जो हरा रंग पसन्द करते हैं, जीवन में खतरा मोल लेकर कार्य करते हैं व कर्मठता के बलबूते ऊँचे उठते चले जाते है। इसी प्रकार लाल रंग स्फूर्ति और आवेश का प्रतीक है। ऐसे व्यक्ति उत्साही तो होते हैं किन्तु बहुत शीघ्र आवेशग्रस्त हो जाते हैं। पीला रंग प्रफुल्लता, हल्की-फुल्की मस्ती भरी जिन्दगी का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे व्यक्ति अल्हड़ काम में रस लेने वाले किन्तु कभी चिन्तित न होने वाली प्रकृति के होते हैं।

जामुनी रंग मानसिक अपरिपक्वता, कच्चेपन एवं बचकानेपन का द्योतक है। जबकि कत्थई रंग इन्द्रिय लिप्सा भोगो में रुचि तथा असंयम का प्रतीक हैं। भूरा रंग तटस्थता और निरपेक्ष भाव का परिचायक है जब कि काले रंग को पसंद करने वाले अधिकाँश व्यक्ति निषेधात्मक चिन्तन के होते हैं। जैसे ही उनकी बाह्य परिस्थितियों से इस रंग के प्रभाव को हटा दिया जाता है, इनमें विधेयात्मक वृत्ति उभरने लगती है।

डॉ. ल्यूसर सामान्य व्यक्तियों एवं असामान्य मनोविकारग्रस्त रोगियों से अपनी पसन्द के रंग चुनने को कहते है। प्राथमिक चुनाव के आधार पर इस रंग के प्रति संवेदनशीलता का परिचय मिलता हैं। उसके साथ ही चुना गया द्वितीय वरीयता का रंग उसकी पसंदगी मनोवृत्ति को स्पष्ट कर देता है। ना पसंदगी अर्थात् इस क्रम में रखे गये अन्तिम वर्ण इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि उस व्यक्ति को किन कितनी वृत्तियों से परहेज है।

पाश्चात्य जगत में रंग विज्ञान के मनोवैज्ञानिक पक्ष के प्रति रुचि जागी तो है, पर है वह मूलतः मनुष्य की अंतःवृत्ति पर आधारित। कार्ल गुस्ताव, जुँग, एडलर एवं मैस्लो जैसे प्रख्यात मनोवैज्ञानिकों ने उपरोक्त परीक्षण के प्रति अपना मत व्यक्त करते हुए इसे सतही प्रभाव वाला बताया था, क्योंकि यह निर्णय मस्तिष्क की उथली परतों द्वारा लिया गया होता है। विशेष कर कार्ल जुँग इस विषय पूर्वार्त मनोविज्ञान के प्रति संकेत करते हुए कहते हैं कि देवी देवताओं, पंच तत्वों के प्रतीक एवं सूर्योपासना, अग्नि आराधना के पीछे मूलतः वर्ण विज्ञान के सिद्धान्त हैं। मानव मूलतः श्रेष्ठ वृत्तियों वाला है तथा वह उन्हीं को उत्तेजना देने वाले आयामों को बहिरंग में ढूंढ़ता है। आधुनिक तड़क भड़क में श्रेष्ठता को बढ़ावा देने वाले पक्ष तो गुम हो गये है एवं “विजुअल पाल्यूशन” को जन्म देने वाले चटकीले उत्तेजक तत्व बहिरंग में प्रचुरता में है। इन्हीं कारण चिन्तन को निषेधात्मक फटक मिलती रहती है। सतत् ऐसे पोषण से तनाव, बेचैनी का होना स्वाभाविक है।

पिछले दिनों चिकित्सा विज्ञान की एक नवीनतम धारा “‘फोटोमेडिसन” के नाम सामने आयी है। इसमें शरीर की प्रतिरक्षा परत को सबल एवं सशक्त बनाने के लिए पराबैगनी किरणों का प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिक का मत है कि दीर्घ तरंग दैर्ध्य वाली ये अल्ट्रावायलेट किरणें शरीर वमन के एन्जाइम, हारमोन्स में सक्रियता लाकर जीवनी शक्ति से जुड़ी कोशिकाओं की संख्या व सामर्थ्य बढ़ाती है।

जैव अणुओं की फोटोकेमिस्ट्री को समझने, कोशिकाओं में लैसर प्रकाश पहुंचाने और ऊतकों की दृश्य क्षमता को पूर्ण रूपेण विकसित करने में वैज्ञानिकों को अब महत्वपूर्ण सफलता मिल रही है। जैसे-जैसे माँलिक्यूलर बायोलॉजी के सूक्ष्मतर आयाम सामने आते जा रहे हैं, वैज्ञानिक रोगों के मूल कारणों तक पहुंचने में समर्थ हो अपनी चिकित्सा उसी स्तर पर करने में सक्षम हो रहे हैं। यह एक क्राँतिकारी उपलब्धि कही जा सकती है।

बैलमैन रिसर्च लेबोरेट्री के अनुसंधानकर्ताओं ने अपनी शोध का केन्द्र बिन्दु लेसर किरणों को बनाया है जो मानवी ऊतकों से गहरा संबंध रखती है। शरीर में कुछ ऊतकों को संरचना विशिष्ट प्रकार की होती है जो निश्चित तरंग दैर्ध्य के विकरण को सोखती है। वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके है कि लैसर किरणें भिन्न-भिन्न ऊतकों को किस तरह प्रभावित कर उन्हें सामान्य स्थिति तक ले आती हैं। विशिष्ट प्रकार के लैसर युक्त प्रकाश उत्सर्जन को नाड़ी स्पंदनों के साथ घुलाया मिलाया जाता है जो एक सेकेंड के एक अरबवें भाग के अंदर शरीर में क्रियाशील हो जाता है एवं अपने पेनिट्रेटिंग पॉवर (बेधक शक्ति) के कारण एक विशिष्ट कोशिका के एक विशिष्ट गुण सूत्र तक पहुंच कर प्रभाव दिखाने की क्षमता रखता है। सूर्य किरणें जिस प्रकार क्रोमोफोर प्रक्रिसर द्वारा अपना प्रभाव दिखाती है, उसी प्रकार लेसर थेरेपी में प्रकाश ऊर्जा को ताप ऊर्जा में बदलकर असामान्य कोशिकीय गठनों को नष्ट कर अनुवांशिकीय प्रक्रिया पर रोकथाम लगायी जा सकती है एवं रिकाम्बीनेन्ट डी. एन. ए. की म्यूटेशन पद्धति द्वारा असाध्य माने जाने वाले रोगों से मुक्ति पायी जा सकती है। ऊर्जा को सुव्यवस्थित कर देना व कोशिका निर्माण प्रक्रिया का संयोजन ही इस चिकित्सा का लक्ष्य होता है जिससे एण्डार्फिन्स जैसे मानसिक हारमोन्स को प्रभावित कर विषाद-अवसाद, चिंता-तनाव आदि मनोविकारों से भी छुटकारा मिल सकता है एवं प्रतिरक्षा प्रणाली को उत्तेजित कर एलर्जी ल्यूकीमिया तथा एड्स जैसी भयावह महामारी से भी निपटा जा सकता है।

गत पाँच वर्षों की स्थिति पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता हैं कि प्रकाश के अभाव में पश्चिम के विकसित देशों में विन्टर डिप्रेशन (शीत अवसार) की स्थिति उत्पन्न होती चली जा रही है जिसे सीजनल अफैक्टिव डिस-आर्डर (एस.ए.डी.) के नाम से पुकारा जाने लगा है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति में निस्तेजता एवं निष्क्रियता का होना स्वाभाविक ही हैं। बारह घंटे साते रहने के बावजूद भी अनिद्रा रोग निरन्तर पीड़ा पहुंचाता रहता हैं अधिक खाने पीने की ललक उन्हें सतत् लगी रहती है, विशेष रूप से वसायुक्त पदार्थों को खाने की। इससे मोटापा जन्म लेता है, साथ ही आलस्य प्रसाद भी। ऐसा रोगी अपने ऊपर सौंपे हुए कार्यों को भी भली प्रकार पूरे नहीं कर पाता। इस विन्टर डिप्रेशन के पीछे वैज्ञानिक को एक ही तथ्य हाथ लगा है कि शरद ऋतु के समय दिन में सूर्य प्रकाश शरीर को कम मिल पाता है जिसके फलस्वरूप पीनियल ग्रन्थि का सक्रियता बढ़ती और मस्तिष्क में अवस्थित मेलाटोनि हारमोन स्राव की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है। इस हारमोन का स्राव सघन अंधकार में भी होता है। जो अवसाद का मूल कारण बन जाता हैं।

वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि कृत्रिम रूप से पराबैगनी प्रकाश पहुंचा कर अथवा सूर्य सान्निध्य में रखकर जैविकीय घड़ी (सर्केडियन दिम या बायोलॉजिकल क्लाँक) के असंतुलन को ठीक कर इस अवसाद से निपटा जा सकता है।

वर्ण चिकित्सा की उपयोगिता एवं प्रभावोत्पादकता से इंकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः पिण्ड जिन रंगों से विनिर्मित है, उनकी उसे सतत् आवश्यकता रहती है। उनकी पूर्ति नियमित होती रहे, इसी निमित्त सूर्य किरण चिकित्सा का सारा सरंजाम बुना गया है। मनोरोगों से ग्रस्त प्रदूषण पीड़ित आज की मानव जाति के लिये तो इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई हैं।


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