चेतना क्षेत्र की अराजकता

December 1988

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बढ़ते प्रदूषण एवं विकिरण, अमर्यादित प्रजनन, महामारियों, प्रकृति प्रकोपों जैसी विभीषिकाओं को जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही है एक संतुलित मनःस्थिति से देखा जाय तो प्रतीत होता है कि ये सभी विग्रह मनुष्य की अपनी करनी से जन्मे है एवं इनकी प्रतिक्रिया अगले ही दिनों इस रूप में प्रकट होगी कि मनुष्यों का ही नहीं, अन्याय प्राणियों का रहना भी इस धरातल पर दूभर हो जायेगा। जब सर्वत्र विष ही विष का भरा पूरा समुद्र हिलोरें ले रहा हो, तो उसके बीच प्राणिसत्ता का अस्तित्व किस प्रकार अक्षुण्ण बना रह सकेगा, यह विचारणीय प्रश्न हैं।

चेतना की शक्ति अपार है। उससे सृजन भी बन पड़ता है। और महाविनाश का क्षण भी देखते देखते सामने आ खड़ा हो सकता है। अद्यावधि प्रगति चेतनात्मक परिष्कार और विकास के ही आधार पर संभव हुई है। यदि वह उद्गम तंत्र लड़खड़ा गया तो फिर न केवल असहयोग जन्य बिखराव होगा, वरन् आक्रामकता के विस्तार की बाढ़ में मानवी सभ्यता के लिए ही नहीं सत्ता के लिए भी संकट खड़ा हो जायेगा। पतन के गर्त में गिरते गिरते उस स्थित तक पहुँचा जा सकता है, जहां से फिर कभी लौटाना संभव न हो।

विज्ञान की एक धारा विकृत बुद्धिवाद बनकर सामने आयी हैं उसने प्रत्यक्षवादी विचारधारा को भी कम उत्तेजित नहीं किया। प्रत्यक्षवादी अर्थात् तात्कालिक लाभ को ही उसके कारण कुछ ही समय उपरान्त अनेक गुने संकटों को अति कष्टपूर्वक वहन करना पड़ा हो। दूरदर्शी विवेकशीलता को अम्गन्य ठहराने वाली, तुरन्त के लाभ को ही सब कुछ समझने वाली संकीर्ण स्वार्थपरता ही प्रत्येक परायण बुद्धिवाद के रूप में एक नया तत्वदर्शन बनकर लोक चेतना को अपने वशवर्ती बनाने में सफल हुई हैं। इसकी क्रिश्स प्रतिक्रिया और परिणति पग-पग पर प्रकट होती देखी जा सकती है। इस प्रत्यक्षवाद को वैज्ञानिक भौतिकवाद से किसी भी प्रकार कम भयंकर नहीं आँका जा सकता। वस्तुओं की अस्त व्यस्तता मानव समाज को प्रभावित तो करती है, पर उतना नहीं जितना कि चिन्तन के गड़बड़ा जाने पर उद्विग्न कर डालते वाले घटाटोप उमड़ते है एवं अर्ध विक्षिप्तता जैसी स्थिित सामने आ खड़ी होती हैं।

आदर्शों का निर्वाह और असीम सुखोपभोग की आतुर लालसा का उद्वेग एक स्थान पर एक साथ रह नहीं सकते। जहाँ एक रहेगा वहाँ दूसरे को पलायन करना पड़ेगा। अन्धकार और प्रकाश साथ साथ रहने के लिए कहाँ सहमत होते हैं विवशता का दबाव ही एक सीमा तक परस्पर एक दूसरे को सहन कर पाता है। अनियंत्रित लिप्सा तात्कालिक लाभ के लिए कहा सहमत होते है। विवशता का दबाव ही एक सीमा तक परस्पर एक दूसरे को सहन कर पाता है। अनियंत्रित लिप्सा तात्कालिक लाभ के लिए बड़े से बड़ा अनर्थ करने में भी नहीं हिचकती। यहाँ तक कि आत्मघात तक उस उन्माद में अनदेखा बनकर रह जाता है नशे वालों की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक पारिवारिक, आर्थिक हर दृष्टि से कैसी दुर्दशा होती है। इसकी जानकारी प्रायः सभी को होती हैं। पर तत्काल मिलने वाली मस्ती को अपनाये बिना उस प्रकार के व्यसनियों से रहा नहीं जाता। दूर की बरत कौन सोचे। परिणाम का अनुमान लगाने की फुर्सत किसे मिलें निषेध और विरोध अपनी लकीर पीटते रहते हैं पर नशे के व्यवसाय एवं नशेबाजों के समुदाय में दिन दूरी रात चौगुनी वृद्धि होती जाती है। विवेक को तिलांजलि देने के उपरान्त उन्माद की तृप्ति ही एक मात्र अवलम्बन बन जाती है। दूसरों को दुष्परिणाम भुगतते देखकर भी आवेशग्रस्तों की आंखें नहीं खुलती।

जीभ के चटोरेपन में हाथों हाथ स्वाद चखने का मजा आता हैं। इस प्रसंग में अत्यधिक मात्रा में अभक्ष्य उदरस्थ किये जाते है। अपच उसी का प्रतिफल है। वह अपच जो कुछ ही दिनोँ में पेट में सड़न भरी विषाक्तता उत्पन्न करके रक्त विकार से लेकर अनेकानेक रोगों का निमित्त कारण बनता है। कई बार तो दुष्परिणाम और भी जल्दी सामने आ खड़े होते है। उल्टी, दस्त, उदरशूल जैसी व्यथाएं चटोरे लोगों को अक्सर हाथों हाथ ही होते ही देखी जाती हैं भारी पेट लेकर चलना, काम करना, गहरी नींद सोना कठिन हो जाता है। फिर भी जिव्हा के स्वाद को ललक इतनी प्रचण्ड रहती हैं के स्वाद के नाम पर विष भक्षण करना पड़े तो भी अपनी हरकत से बाज न आये। लोग प्रायः एक चौथाई जिन्दगी इस चटोरेपन के कारण ही गवाँ बैठते है। जितने दिन जीते है वे भी रुग्णता और दुर्बलता से आये दिन कराहते हुए ही ज्यों त्यों कर गुजारते हैं।

कामुकता अपने ढंग का एक दूसरा उन्माद है। जिसकी चसक और ललक होश संभालने से लेकर मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ती। यह जीवन रस को निचोड़ते रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं यह अपने ओजस की फुलझड़ी जलाकर चित्र विचित्र तमाशा देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। दाद खुजाते खुजाते रक्त निकल आता है पर खुजाने वाले हाथ रुकते कहा हैं। कुत्ता सूखी हड्डी चबाकर अपने मसूड़े छील लेता है और घावों से टपकने वाले खून को चाटकर समझता है कि सूखी हड्डी बड़ी रसदार और जायकेदार है यौनाचार तो कुछ क्षण के लिए ही अवसर मिलने पर संभव होता है पर अश्लीलता का विषम ज्वर तो मस्तिष्क को हर घड़ी आन्दोलित करता रहता हैं ऐसे रंगीन सपने गढ़े और कल्पनालोक में फिल्माये, दिखाये जाते हैं, मानो अब तब में वह प्रत्यक्ष ही होने जा रहा हो यह हवस कुदृष्टि को जन्म देती है, भगिनी पुत्री जैसी पवित्रता विमोहित हो जाती है और संसार भर की युवतियां मात्र ऐसी ही अपना समर्पण करने की प्रतीक्षा कर रही हो। इस ललक से यौनाचार से अधिक घातक और अहर्निशि विषमज्वर की तरह चढ़ा रहने वाला बुखार मानसिक दक्षता को खोखला करके ही रहता है। शरीर तो समय कुसमय निचुड़ता ही रहता है। चरित्र की दृष्टि से भी आचरण पर पशुओं जैसा बन पड़ता है। इस अनर्थ का देखते हुए भी संयम बरतने की सूझ उभरती नहीं। वैयक्तिक और सामाजिक जीवन इसी कारण एहाय भार से दबता जाता है। राष्ट्रीय प्रति तो बन ही कैसे पड़े विकास के जितने साधन जुड़ पाते हैं उनसे अनेक गुने अभ्यागत पहले ही हाथ पसारे अपनी माँगे व्यक्त करते हुए देखे जाते हैं।

साधन, ठाठ बाट, फैशन, श्रृंगार में अमीरी और अहमन्यता की पूर्ति मानने वाली ना समझी आर्थिक भार इतना अधिक बढ़ा देती है कि उनकी आपूर्ति ईमानदारी की सीमित कताई से बन ही नहीं सकती। इस पर भी कुरीतियों और अन्ध विश्वासों की मार जो धूमधाम वाली शादियों के रूप में जब चलती है तो अर्थ संतुलन की पूरी तरह समाप्त कर देती है। श्रम से जी चुराने की, काम में हेठी मानने की, आलस्य प्रमाद में बड़प्पन अनुभव करने वालों की बिरादरी यदि सदा सदा के लिए गरीबी के चंगुल में फंसी रहे तो इसमें आश्चर्य ही क्या? आमदनी बढ़ने की बात सोचना उचित है। पर अपव्यय के स्वभाव का अंब ने रहने पर तो कुबेर का खजाना भी खाली हो सकता है। प्रस्तुत अदूरदर्शिता को व्यापक गरीबी के कारणों में से सबसे प्रमुख और बड़ा माना जा सकता है। मर्यादाओं और वर्जनाओं का अंकुश उतार फैंकने के उपरान्त गगनचुंबी लिप्सा, लालचों महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए एक ही मार्ग रह जाता है - अनाचार। उसके असंख्यों आकर प्रकार हैं। दुर्बल स्तर के व्यक्त चोरी, उठाईगिरी, ठगी, जुआ, प्रपंच पाखण्ड जैसे जाल जंजाल रचते रहते है। भिक्षा माँगने से लेकर विश्वासघात करने तक में नहीं चुकते, पर जो समर्थ है,उनके लिए तस्करी, डकैती, हत्या, गिरोबन्दी, दादागिरी करने के द्वार खुले रहते हैं वे आतंकवादी आक्रमणकारी बनने से लेकर अपहरण और हत्याकाण्ड तक में कोई कसर नहीं रखते। इनके अन्तर्प्रान्तीय, अन्तर्राष्ट्रीय माफिया गिरोह तो ऐसे ऐसे कुकृत्य करते है जिनके विवरण सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है। जो सजातीय मनुष्यों पर दया नहीं कर सकते उनके लिए पशु पक्षियों और जलचरों की चटनी बना लेना बांये हाथ का खेल ही हो सकता है। निर्दयता ही प्रकारान्तर में अपराधवृत्ति है जिसे मानवी गरिमा गँवा बैठने के उपरान्त ही अपनाया जा सकता है। आखिर यह सब है क्या? इसके उत्तर में एक ही बात कही जा सकती है। तात्कालिक लाभ को प्रधानता देने वाला प्रत्यक्षवाद को लोक मान्यता मिलना। इसने कर्मफल, नीतिधर्म, लोक-परलोक, कर्तव्य, औचित्य सभी को उठाकर ताक पर रख दिया है। रिश्वत से लेकर मिलावट तक के असंख्य वेशधारी अपराध इस एक ही कन्दरा से निकलने वाले टिड्डी दल है। पागल क्या नहीं करता है? विवेक के पलायन पर जाने पर मनुष्य समझदार दीखते हुए भी वस्तुतः भावना क्षेत्र का उन्मादी ही कहा जा सकता है। तथ्यतः यह सब प्रत्यक्षवाद की तूती बोलना ही कहा जायेगा।

सामाजिकता, नागरिकता, नितिनिष्ठा, उदारता, न्यायशीलता और समाज-मर्यादा आदि सभी मानवी विशेषताओं को वस्तुतः शालीनता के ही विभिन्न पक्ष और प्रयोग के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। जब मनुष्य नितान्त स्वार्थपरायण हो जाये और उसने क्षुद्रतम संकीर्णता अपना ली तो फिर मत्स्य न्याय अपनाना या उसका शिकार करना ही एक मात्र नियति रह जाती हैं यह पशुओं की भी गुजरी स्थिति है। पशुओं पर प्रकृति का अंकुश तो रहता है, वे उसे तोड़ने की सर्वथा स्वतन्त्र जो ठहरा। किसी नियम मर्यादा का पालना करना - न करना पूरी तरह इसकी स्वेच्छा पर निर्भर है। वह ईश्वर से लेकर, समाज शासन के तथाकथित अंकुशों को पूरी तरह अंगूठा दिखा सकता है। फिर कभी कुछ खामियाजा भी भुगतना पड़ा तो निर्लज्जों का इतने में क्या बनता - बिगड़ता है?

यहीं हैं वे सब कारण जिसके कारण न नीतिनिष्ठा बची है, न सामाजिक मर्यादा। धर्म कर्तव्य जैसी बातें तो मनोविनोद की चर्चा भर बनकर रह गई हैं, उन्हें व्यवहार में उतारने की आवश्यकता कौन समझता है? स्पष्ट है कि इस स्तर की मनःस्थिति के रहते परिस्थितियाँ ऐसी रह ही नहीं सकती जिसमें सुख चैन से रहा और रहने दिया जा सके।

शारीरिक रुग्णता, मानसिक उद्विग्नता, आर्थिक अभावग्रस्तता, पारिवारिक विश्रृंखलता, सामाजिक अराजकता के रहते आशंका, अनिश्चितता और आतंक का ही माहौल सर्वत्र छाया रह सकता है। जिस-तिस बहाने उपद्रव और विग्रह उभरते ही रहेंगे। आपसी असहयोग बना रहे, आन्तरिक असंतोष भरा रहे तो बाहरी क्षेत्र की सुविधाएं किसी का क्या हित साधन कर सकती हैं? समाचार सुनने का, पढ़ने का जब भी अवकाश मिलता है तो अनर्थों की ही तूफानी बाढ़-सी आई लगती है, संदेह होता है कि देव निवास कहा जाने वाला धरातल कहीं भूत-प्रेतों की भयावह दुनिया में तो नहीं बदल गया। ऐसी दशा में शान्ति और प्रगति की योजनाएँ बनाना एक स्वप्न संसार गढ़ लेने के समतुल्य ही माना जायेगा।

ऐसे ही वातावरण की प्रतिक्रिया प्रकृति को कुपित करती है और ऐसी देवी प्रकोपों की झड़ी लगाती है जिनके कारण न पूरी तरह जीते रहना बना पड़े और न सर्वथा मर जाना ही संभव हो। इसे साँस चलना रोक देने वाली, घुटन जैसी स्थिति कहा जाये तो अत्युक्ति होगी। इन दिनों हम सब ऐसे ही माहौल में रह रहे हैं। जब-तब इस संदर्भ में बड़े विस्फोट भी फूटते हैं, तब चौंकते है कि यह अनर्थ हम सब को काल के गाल में न झोंक दे।

भविष्य की विभीषिकाओं की अक्सर भविष्यवाणियाँ होती रहती हैं, उनके पीछे विद्यमान कारणों में बढ़ता हुआ प्रदूषण, उभरता अभाव, उद्भिजों जैसा प्रजनन, सामाजिक सद्भावों का विगठन ही नहीं, एक अत्यन्त सबल कारण यह भी है कि मनुष्य ने अपने भावात्मक, चिन्तनपरक, चारित्रिक एवं उदार सहकारिता के अनुबंधों को तिलांजलि देते हुए ऐसी संस्कृति अपना ली है, जिसे बौद्धिक प्रत्यक्षवाद पर अवलम्बित मानवी सत्ता के हर पक्ष में घुस पड़ी अराजकता ही कहा जा सकता है।


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