प्रबन्ध क्षमता के अवलम्बन से सर्वांगपूर्ण कायाकल्प

December 1988

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कौशल अनेकानेक है। कला की दिशाधाराएं अगणित है। सुयोग और कुयोग का सिलसिला और चलता रहता है। आयुष्य बढ़ती और घटती है अन्धकार और प्रकाश की तरह। सम्पन्नता और विपन्नता का क्रम भी ऐसी ही अनियमित अस्त व्यस्त परिस्थितियों पर निर्भर रहता है। पर जिस सद्गुण में अधिक स्थिरता और अधिक उत्पादन क्षमता है उसका नाम है “सुव्यवस्था” उपलब्धियों का सुनियोजित प्रबंध कर सकने की क्षमता। भौतिक प्रगति के क्षेत्र में यदि इसे सर्वोच्च स्तर की प्रामाणिकता दी जाये तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। सुनियोजन ही है जिसके कारण कम योग्यता और अभाव ग्रस्तता के बीच रहते हुए भी व्यक्ति न केवल प्रसन्न रह सकता है वरन् समुन्नत भी बन सकता हैं।

सुदृढ़ स्वास्थ्य और दीर्घायुष्य बनाने वाली जीवनी शक्ति का भण्डार हर काय कलेवर में विद्यमान है। विषाणुओं को परास्त करने की क्षमता रक्त के श्वेत कणों में इतनी भरी पड़ी है जिसे अजेय कह जा सके। पेट के अपने रासायनिक स्राव इस उच्चकोटि के हैं कि वे भुने सत्तू जैसे शक्तिहीन कहे जाने वाले पदार्थ खाकर भी अपने बलबूते पूर्ण भोजन की आवश्यकता पूरी कराते रह सकते हैं। फिर अस्वस्थता क्यों आ घेरती है अकाल मृत्यु क्यों मरना पड़ता हैं। इसके उत्तर में एक ही उत्तर दिया जा सकता है आरोग्य के नियमों की अवहेलना ही कुछ अपवादों को छोड़कर प्रधान कारण हैं। यदि आरोग्य के अनुबंधों में बंधकर आहार विहार को सुव्यवस्थित रखा जा सके तो अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी निरोग एवं प्रसन्न बना रह सकता है।

देव उद्यान की तरह हरा भरा, फुला फला, शोभा सुषमा से भरापूरा सुगंधित एवं सुरभित है यह अपना संसार, अपना भूलोक। इसे रंगमंच की तरह किसी ने चित्र खचित और मणि मुक्तकों से सज्जित इस स्तर का बनाया है कि इसके कण-कण को निहारते हुए हर घड़ी आनन्द विभोर रहा जा सके। प्रकृति को अपनी शोभा है। उमड़ते बादल, झिलमिलाते सितारे, चहकते पक्षी, हरियाली के बिछे मखमली फर्श, सरिता सरोवरों की हिलोर किसका मन पुलकन से नहीं भर देती। जहाँ सूर्य रोशन गर्मी और चन्द्रमा शान्ति शीतलता बरसाने के लिए अपनी अपनी ड्यूटी देते हो, जहाँ पवन पंखा झलता हो। जहाँ निद्रा की परी अपनी गोदी में सुलाने के लिए रात्रि होते होते दौड़ आती हो, जहाँ की वनस्पतियाँ नन्हे–मुन्ने शिशुओं की तरह खिलती खिलाती हो, जहाँ प्राणीगण सहकार के लिए आगे बढ़कर स्वागत को खड़े रहते हो वहाँ किसी को असुविधा, चिन्ता, हैरानी और विपन्नता से खिन्न रहने की क्या और क्यों आवश्यकता पड़ेगी? इतने पर भी किसी का मन खिन्न विपन्न रता है तो समझना चाहिए कि खोट परिस्थितियों का नहीं, मनःस्थिति में कही से कुछ आँख में घुस पड़ने वाली धूल किरकिरी जैसी किसी अवाँछनीयता का है। दृष्टिकोण के गड़बड़ाने से ही झाड़ी का भूत, रस्सी का सौंप दीख पड़ता हैं। अस्त−व्यस्त मन ही इस सुरम्य उद्यान को जलाते जलाते मरघट जैसा बना देता है और कुकल्पनाओं के भूत पलीत यहाँ नंगे होकर सताने डरने डराने का खेल खेलते हैं।

मन को यदि दिशा विहीन घोड़े की तरह किधर भी बेहिसाब दौड़ पड़ने से रोका जा सके तो वह शत्रु न रहकर मित्र भी बन सकता है। आरोपित विपन्नताओं के स्थान पर संपन्नताओं के अम्बार लग सकते है। छिद्रान्वेषण यदि हर सके तो गुणग्राहकता के उदय होते ही यह सब कुछ शुभ, सुन्दर और सहयोग में निरत ही देखा जा सकेगा। यह अपना मन ही है जो रंगीन चश्मा पहन कर अपनी सृष्टि में स्वयं इच्छित रंग का आरोपण करता हैं चश्मा उतरे तो यथार्थता दीखे। नरक जैसे डरावने भ्रम जंजाल अनगढ़ ही बुनता और उनमें अपने आपको फंसाकर रोता कलपता रहता है।

यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि विप्र नेताओं के पीछे सारा खोट कसूर अपना ही होता है। दूसरे कोई उसमें दोषी नहीं होते। विपरीत परिस्थितियों की उनमें कोई साझीदारी नहीं होती स्पष्ट हैं कि यह संसार गुण दोषमय बना हुआ है। यहाँ प्रकाश भी है और अंधेरा भी। सर्दी और गर्मी की तरह अनुकूलताएं और प्रतिकूलताएं भी आती जाती रहती हैं। उन सबको सुधार या बदल सकना अपने बस की बात नहीं। परिवर्तन प्रयासों से एक सीमा तक ही सफलता प्राप्त हो सकती है। सब कुछ अपनी इच्छा के अनुरूप ही बन कर रहे यह संभव नहीं दूसरों को अपने से सहमत करने के लिए एक सीमा तक ही समझाया या दबाया जा सकता है। ऐसी सर्व शक्तिमान सत्ता किसी को भी प्राप्त कि जो कहना न माने उसे तोप के गोले से उड़ा दिया जाय। यहाँ तालमेल बिठाकर चलने का ही एक सरल ओर संभव तरीका हैं। अनौचित्य के प्रति हम असहयोग का अधिक से अधिक विरोध का ही प्रदर्शन कर सकते हैं। संघर्ष सिद्धांततः जो अच्छा है, पर उससे आक्रमण प्रत्याक्रमण का विरोध प्रतिरोध का सिलसिला चल पड़ता है जो नई समस्याएं उत्पन्न करने के अतिरिक्त भारी भी पड़ता है। इससे भी यह निश्चित नहीं होता कि जैसा चाहा गया है वैसा ही प्रतिफल निकलेगा। एक उलझन सुलझाने के स्थान पर नई दस उलझने खड़ी कर लेने में आक्रोश को तो एक सीता तक हलका किया जा सकता है पर समस्या का इच्छित समाधान निकल सके, इसकी संभावना कम ही रहती है। वस्तु स्थिति को समझते हुए बुद्धिमानी इसी में रहती हैं कि तालमेल बिठाये रखा जाय और विचार विनिमय द्वारा पूरे या आँशिक समाधान का कोई स्वरूप बनाया जाये। इसी में व्यावहारिकता भी है और बुद्धिमता भी।

गड्ढों वाली ऊबड़−खाबड़ सड़कों पर मोटर जैसे वाहन तभी चल पाते है ज उनके स्प्रिंग लचकदार हो। ताली दोनों हाथ से बजती है। एक हाथ उसके लिए तैयार न हो तो दूसरा चाहते हुए भी टकरा नहीं सकता। अनिवार्य संकट आ खड़ा होने पर तो दो देशों की सेनायें भी एक दूसरे के सामने डट जाती है, सामान्य जीवन में तो आये दिन सुलह सफाई की नीति अपनाकर ही चलना पड़ता है। अन्यथा उलझते उलझाते रहने पर और कोई सृजनात्मक प्रयास बन पड़ना और प्रति की दिशा में आगे बढ़ सकना बन ही नहीं पड़ेगा। विग्रहों को इसी नीति के अनुसार टलाया जाये और सुधार दूसरों का बन ही पड़ेगा यह अनिश्चित मानकर अपनी भूलों को सुधारते रहने का एक पक्षीय फैसला करना चाहिए।

मन को खिन्न करने वाले प्रसंगों की यथा संभव उपेक्षा करनी चाहिए ओर वह सोच खोजनी चाहिए जिसके आधार पर मनोबल बनाये रहने वाली, संतुलन बनाये रहने वाली स्थिति बनी रहे। भूतकाल की अनुपयुक्तताओं को भूलकर हमें उज्ज्वल भविष्य की संरचना पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। जो उपलब्ध है उस पर संतोष किया जाय और आगे अधिक प्राप्त करने के लिए आतुर व्याकुल होने की अपेक्षा उस दिशा में योजनाबद्ध रीति से क्रमिक गति से आगे बढ़ा जाये।

अमीरों के साथ तुलना करने पर अपनी स्थिति गरीबी जैसी प्रतीत होती है और गरीबों के साथ माप करने पर अपनी स्थिति आज भी कही अच्छी प्रतीत होती हैं संतोष का सुख पाने लिए यही नीति अपनानी चाहिए। प्रयत्न अच्छे से अच्छे के लिए किया जाय पर तैयार बुरे से बुरा घटित होने के लिए भी रहा जाय। असफलता का प्रभाव इतना न पड़ने दिया जाय कि वह निराशा बनकर ऊपर आ चढ़े और भविष्य की आशा को ही धूमिल कर दे। हमें खिलाड़ियों की तरह जीवन का खेल खेलना चाहिए। जिसमें हार और जीत को हलके मन से लिया जाता है और हर स्थिति में उत्साह बनाये रखा जाता है। हंसती हंसाती हलकी फुलकी जिन्दगी ही सफल और सुखद मानी जाती हैं।

गड़बड़ाती हुई मशीन गड़बड़ाती हुई मशीन को ठीक करने से पहले मिस्त्री यह जाँच पड़ताल करता है कि कहाँ क्या नुक्स आ जाने से मशीन बन्द हुई है। ठीक करने का क्रिया−कलाप इसके बाद ही चलता है। चिकित्सक रोग का करण जानते और इसके बाद इलाज आरंभ करते है। सब कुछ ठीक ठाक रहने पर भी यह देखभाल होती रहती है कि अगले दिनों किसी अड़चन की आशंका तो नहीं। कारण भूतकाल में छिपे मिलते हैं। गड़बड़ी वर्तमान में दीख पड़ती हैं आशंका का अनुमान भविष्य के सम्बन्ध में लगाया जाता है। सड़क पार करते समय सामने ही नहीं दांये बाँये देखकर भी चला जाता है। ठीक इसी प्रकार शरीर और मन की वर्तमान स्थिति के संबंध पिछली गलतियों, अब की आदतों और अगले दिनों घटित हो सकने वाली आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय करना पड़ता हैं कि किस सुधार परिवर्तन की आवश्यकता है और उसे किस प्रकार कार्यरूप में परिणत किया जाना चाहिए। व्यवस्था बुद्धि इसी को कहते है। जो मात्र तात्कालिक स्थिति को ही नहीं, उससे जुड़े हुए भूतकालीन तथ्यों पर भी ध्यान देती है और उनमें जो हेरफेर करना हो तो उसे करने के लिए बिना समय गंवाये कदम उठाती है। भविष्य को और भी अधिक अच्छा बनाने के लिए यह निर्धारण भी किया जाता हैं कि अधिक महत्वपूर्ण को पाने के लिए क्या मूल्य चुकाना पड़ेगा और उसे जुटाने के लिए क्या तारतम्य बिठाना पड़ेगा। इस प्रकार के समग्र चिंतन को ही व्यवस्था कहते हैं, भले ही वह किसी भी प्रयोजन के लिए अपनाई गई हो।

घर में रोज बुहारी लगाई जाती है। उपयोग में आने वाली वस्तुओं को सही स्थिति में रखने के लिए उन्हें हर दिन झाड़ा पोछा जाता है। शरीर और मन चूँकि जीवन का समूचा भार वहन करते हैं उसके लिए उनमें उत्पन्न होती रहने वाली गड़बड़ियों को बिना आलस्य किये सुधारते रहने की आवश्यकता है। घोड़े से लम्बी अवधि तक काम लेना हो तो उसके चारे दाने का प्रबंध तो करना ही पड़ता है साथ ही उसे सर्दी, गर्मी, गन्दगी से बचाने की भी सतर्कता रखनी होती है। शरीर और मन दोनों को साधना दो हाथों या दो घोड़ों को साधने की तरह है। इनके गड़बड़ा जाने पर अपनी समूची क्षमताएं अस्त−व्यस्त हो जाती हैं। प्रति करना तो दूर यथा स्थिति बनाये रहना और अवगत से बचना तक कठिन हो जाता हैं। अन्याय जिम्मेदारियों को वहन करते हुए जिस प्रकार जीवनचर्या चलाई जाती है तो उसी में एक अति महत्वपूर्ण पक्ष यह भी जुड़ा रहना चाहिए कि आरोग्य की स्थिति ठीक है या नहीं। भूख, नींद और मल विसर्जन के तीनों कार्य यथावत हो रहे हैं या नहीं। मन उत्साह, साहस ओर उल्लास की तीनों विशेषताओं को अपने स्थान पर ठीक से रखे हुए है या नहीं। यदि नहीं तो उपेक्षा में समय गंवाने की अपेक्षा तुरन्त उनके उपचार में लगना चाहिए।

यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि चिकित्सकों की सहायता से आरोग्य सुधार में नगण्य जितना ही समाधान होता है। सुधारना तो अपने आप को ही, निज का आहार-विहार व्यवस्थित करने के रूप में ही करना पड़ता है। नियमितता, अपनाना, संयम बरतना और स्वच्छता के लिए स्फूर्ति बनी रहना ऐसा प्रयास है,जिसके आधार पर खोये स्वास्थ्य को फिर से पाया जा सकता है। अच्छा हो तो उसे और भी अधिक अच्छा बनाया जा सकता हैं।

मन के सम्बन्ध में भी यही बात है। दूसरों की ओर से जो अवाँछनीयता बरती गई है उसका प्रतिशोध लेने की अपेक्षा यह सोचना चाहिए कि अपनी ढाल कैसे मजबूत की जाय, जिस पर किसी आक्रमणकारी का प्रहार कारगर न हो सके। इसी प्रकार अपने संतुलन को बनाये रहकर यह सोचना चाहिए कि आगत असुविधाओं से निपटने का क्या उपाय हो सकता है और उसे वर्तमान परिस्थितियों में किस आधार पर, किस सीमा तक निरस्त किया जा सकता है। इतने पर भी यदि कुछ संकट आ ही खड़ा हो तो इतना धैर्य और साहब संजोये रहना चाहिए कि आगत आपदा से हंसते हंसाते किसी प्रकार निबट लेने का उपक्रम बन सके। अपनी स्थिति सुधार लेना बाहर की अनेकों प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदल लेने का एक महत्वपूर्ण गुरुमंत्र है। यही शारीरिक व मानसिक कायाकल्प का रहस्य है व महामानव बनने की कुँजी भी।


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