सभ्यता का श्री गणेश

December 1988

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चुस्त और दुरुस्त रहना सभ्यता का श्री गणेश माना जाना चाहिए। शरीर से चुस्त और मन से दुरुस्त यह अभ्यास उसी प्रकार किए कराये जाने चाहिए जैसे कि आहार विहार, निद्रा, स्नान मलमूत्र विसर्जन जैसे कार्यों के सम्बन्ध में किए जाते हैं। उसमें कमी या गड़बड़ी तभी आती है जब व्यक्ति जागरूकता की मौलिक विशेषता से अपने आपको वंचित किए रहता है। तन्द्राग्रस्त व्यक्ति के सभी काम अटपटे होते है। गहरी नींद में सोया हुआ व्यक्ति अपनी जगह सही होता है। पूर्ण जाग्रत स्थिति में व्यक्ति मुस्तैदी के साथ अपने काम पूरे करते हुए अभीष्ट उपलब्धियां अर्जित करता है। मध्यवर्ती स्थिति बुरी होती है। उसमें अर्द्धजागृत और अर्द्धप्रसुप्त जैसी अवस्था में शरीर क्रिया और मनः चेतना किसी प्रकार घिसटती भर रहती है।

ऐसी स्थिति में प्रकारान्तर से नशे की खुमारी में डूबे मनुष्य के समतुल्य समझा जा सकता है। खुमारी में व्यक्ति उस विचित्र स्थित में होता है जिसे न तो जागता कहा जा सकता है और न सोया हुआ। उस स्थिति में उसकी विचित्र हरकतें देखकर लोगों को आश्चर्य होता है कि उसे क्या कहा जाय? क्या माना जाय? आलसी और प्रमादी प्रायः इस प्रकार की अपनी आदतें बना लेते हैं। मादक पीने वाले किस कोने में विचित्र सनकों में सनकते रहते हैं। यह सनकीपन की बढ़ी चढ़ी स्थिति है जो तुरन्त अखरती और पकड़ में आती हैं परंतु उससे हलके स्तर का सनकीपन और भी होता हैं। उसमें डूबा हुआ व्यक्ति सामान्य कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को भी भूल जाता है। इन्हें एक विचित्र प्रकार का नासमझ या सनकी कह सकते है, जो मानवोचित रीति नीति अपनाने में प्रमाद बरतते और असभ्य स्तर के बन जाते हैं।

अर्थोपार्जन इन दिनों प्राथमिकता प्राप्त किए हुए है। पर उसमें भी खरीदने वाले ग्राहक से, मंगाने वाले स्टाँस्टों से, दुकान सम्हालने वाले कर्मचारियों से व्यवहार तो करना ही पड़ता हैं। जो अनगढ़ स्वभाव अभ्यास में जुड़ा रहता है वह सभी संपर्क में आने वालों को भड़काता है। उनके साथ मधुर संबन्ध रहने में अनगढ़ता एक बड़ी कठिनाई बन कर राह में आ जाती है। यही बात पर गृहस्थ के सम्बन्ध में है। परिवार वालों के साथ उपेक्षा कटुता या तिरस्कार भरा व्यवहार किया जाये तो वे यथा संभव बचते रहने का प्रयत्न करते हैं। विवाद खड़ा करने या कटुता से बचने के लिए उन्हें और कोई उपाय सूझता ही नहीं। वे हटे हटे कटे कटे रहते हैं। फलतः हंसने-हंसाने, विचार विनिमय और सुव्यवस्था बनाने अवसर ही हाथ से चल जाता है। दोनों पक्षों के बीच ऐसी खाई पड़ती और बढ़ती जाती है जिसके कारण एक घर में रहते हुए एकौके में खाते हुए भी सराय में ठहरने वालों की तरह सब कुछ पराया, हीन अनचाहा ही दीखता रहता है।

कारखानों दफ्तरों में भी यही ढर्रा चल रह हो तो समझना चाहिए कि साधन, सहयोग के अभाव में उत्पादन घटेगा। जो काम चल रहा होगा उसमें असंख्यों भूले होती रहेगी। परस्पर साधन सम्मान की मनःस्थिति न रहने पर उपेक्षा तो बरती जायेगी ईर्ष्या भी पनपती रहेगी और अवसर मिलने पर चोट किये बिना भी न रहेगी। ऐसे लोग दफ्तर, कारखाने मालिकों के लिये, मजदूरों के लिए, ग्राहक के लिए, संबंध रखने वालों के लिए भारभूत ही बनकर रहते है। भीतरी असन्तोष के कारण कोई किसी को सन्तोष दिलाने की स्थिति में नहीं रहता। मात्र सभ्यता के अभाव में लोग समस्याओं के तिल का ताड और राई का पहाड़ बना लेते है।

विज्ञजन सदा से इस बात के लिए चिंतित और प्रयत्नशील रहे हैं कि जन जन को मनुष्यता की मर्यादा में प्रवेश करने का पाठ शिष्टाचार के रूप में पढ़ाया जाये। यदि यह बीजारोपण सही प्रकार संभव हुआ तो व्यक्ति निखरेगा।उसके अन्दर विद्यमान अनेकानेक क्षमताओं, दक्षताओं को विकसित होने का अवसर मिलेगा। फलतः वह जो भी कार्य हाथ में लेगा उसे सही ढंग से करने और सफलता के ऊंचे स्तर तक जा पहुंचने का सुयोग क्रमशः मिलता चला जायेगा। यदि यह मौलिक कमी बनी रही तो स्थिति ऐसी ही बनी रहेगी जैसे अच्छा बीज न बोए जाने पर खाद पानी आदि की व्यवस्था करते रहने पर भी निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ ही नहीं लगता।

किसी का व्यवसाय कुछ भी क्यों न हो, हर हालत में लोगों के संबंध रखना ही पड़ेगा। इसके लिए चुस्त दुरुस्त ही आदतों का बना रहना आवश्यक है। अन्यथा लोग तिरस्कार करेंगे, मूर्ख बनायेंगे, घाटा देंगे ओर असहयोग जन्य अनेकानेक प्रत्यक्ष परोक्ष कठिनाइयों के निमित्त बनेंगे। दोषारोपण दूसरों पर भी किया जा सकता है। पर अपने को सर्वथा निर्दोष मानना और दूसरों को ही सारी गड़बड़ी का कारण मानना एक ऐसी बुरी आदत है जिससे अवरोध का समाधान तो निकला ही नहीं, उल्टी उलझने और भी अधिक उलझ जाती हैं।

मानवी प्रतिभा में प्रवेश करते ही सके साथ जुड़े हुए आरंभिक कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को समझना और अपनाना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसके बिना जीवन के किसी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकना तो दूर सभ्य समाज का सदस्य कहना सकना भी कठिन है। उस अभाव में उपेक्षा भर्त्सना और अवनति के अतिरिक्त कुछ पल्ले नहीं पड़ता। इस तथ्य को जिम्मेदारी आरंभ होने से लेकर मरण काल तक स्मरण रखना चाहिए। अपने आपको तो इस स्तर का बनाना ही चाहिए साथ ही जिन किन्हीं के साथ अपनी सघनता हो उसे भी उसी अनुपात में सहमत ही नहीं बल्कि बाधित भी करना चाहिए कि उसे अपन लोक व्यवहार में शिष्टाचार का गहरा पुट लगाए रहने की विद्या अपनानी चाहिए।

प्राचीनकाल में यह प्रकरण हर किसी को समझदारी का उदय होते ही सिखाना आरम्भ कर दिया जाता था। इस सुसंस्कारिता को अभ्यास में उतारने के लिए एक धार्मिक प्रचलन संस्कार ओर पर्व हर व्यक्ति की आयु वृद्धि के साथ साथ संस्कार आयोजन होते थे। उसमें साझेदारी उन सब की होती थी जो उस आयोजन में उपस्थित होते थे। संस्कार प्रवचन धार्मिक कर्मकांडों के माध्यम से उन सबको शिक्षण दिया जाता था, ताकि वे अपने को उस स्तर का ढाले जिसका अनुसरण करते हुए बालक या पालक भी उसी राह पर चल सके। इस प्रक्रिया को सभ्यता का श्री गणेश भी कहा जाता था।

इसी का एक दूसरा पक्ष या पर्व त्यौहारों का आयोजन। उन विशेष अवसरों पर विचारशील नर नारी भावना पूर्वक एकत्रित होते थे और उसके साथ जुड़े हुई प्राचीन परम्परा एवं अर्वाचीन विधि व्यवस्था को सामयिक संदर्भ में समझा समझाया जाता था। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि संस्कृति के यह आधार स्तम्भ एक प्रकार से लड़खड़ा से गए। निहित स्वार्थों पर उनका कब्जा हो गया। नियत कर्म कांडों के विधि विधान इतने जटिल और खर्चीले हो गए कि उनका भार सह सकना सर्व साधारण के लिए संभव ही न रहा। रूढ़िवादी चिन्ह पूजा तो अभी जहाँ तहाँ दृष्टीगोचर होती है, पर उनके लिए उत्साह होने के स्थान पर उपेक्षा ने जड़ जमा ली है। इससे सब से बड़ी खराबी यह हुई कि व्यावहारिक सभ्यता के प्रशिक्षण का वातावरण ही एक प्रकार से समाप्त हो गया। फलतः हम सब पढ़े अनपढ़े धनी निर्धन व्यक्तित्व की दृष्टि से जिस स्थिति में जा पहुंचते हैं, उससे निराशा भी होती है और लज्जा भी आती है।

समस्या एक देशीय नहीं सार्वभौमिक है। उसे सर्वजनीन भी कह सकते हैं। संसार के मूर्धन्य विचारकों और समाज सेवियों ने इस पर गंभीरता पूर्वक विचार किया हैं। ऐसा उपाय ढूंढ़ने का प्रयत्न किया है कि जन समुदाय को उस सभ्यता के साथ जोड़ा जाय तो नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों की बीच सघनता स्थापित करती है। इस अभाव की पूर्ति कि बिना वर्तमान आस्था संकट और चरित्र विग्रह हट नहीं सकेगा। प्रगति के स्थान पर पराभव, गौरव के स्थान पर पतन, समाज के लिए दुःखदायी वातावरण ही बनाता रहेगा। जो हर दृष्टि से हर किसी के लिए कष्टकारक ही सिद्ध होगा।

इस संदर्भ में एक युग मनीषी “वेडेन पावेल” ने स्काउटिंग नाम के आन्दोलन को जन्म दिया। उसका प्रधान उद्देश्य छात्रों में नागरिक सुसंस्कारिता एवं समाज के प्रति कर्तव्यों के परिपालन की भावना और क्षमता बढ़ाना रखा गया। उपयोगिता को देखते हुए संसार के अनेक देशों में उसका प्रचार हुआ। शिक्षा विभागों ने उसे अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया। स्वतंत्र रूप से भी उसकी प्रशिक्षण प्रक्रिया चलती रही। भारत में स्काउटिंग आन्दोलन की शाखा का बीजारोपण अभिवर्धन करने में श्री श्रीराम वाजपेयी ने पूरी लगन के साथ कार्य किया। उसमें भारतीयता के तत्व सम्मिलित किए ओर उसके प्रयोग अभ्यास का सिलसिला व्यापक रूप से चलाया।

इस आन्दोलन के समानान्तर समय समय पर स्थान स्थान पर अन्य कई आन्दोलनों का जन्म एवं विकास हुआ। इनमें राष्ट्रीय कैडेट कोर, एन.सी.सी. राष्ट्रीय समाज सेवक, रोटनी क्लब, लायन्स क्लब, भारत सेवक समाज, रेड क्रॉस, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, शिवसेना आर्यवीर दल, महावीर दल, आदि संगठनों की स्थापना हुई और उनका अपने अपने अनुभव क्षेत्र में विस्तार भी होता रहा। राष्ट्रीय काँग्रेस, लोकदल जनतापार्टी, दलित संगठन, जैसे राजनैतिक संस्थाओं ने भी इसी स्तर की अपनी स्वयं सेवी शाखाओं का निर्माण किया है। पर वे मतभेदों और निहित स्वार्थों के कारण अपने अपने सीमित प्रयोजनों को आगे रखे रहे। यदि मूल उद्देश्य भुलाया न जाता तो जन जन में सभ्यता के आरम्भिक चरण को परिपुष्ट करते रहने तक की बात को ही प्रमुख माना गया होता। यदि ऐसा बन पड़ता तो राजनैतिक या सामाजिक धाराओं में से किसी को चुन लेने पर भी कोई हानि न होती पर परिपक्व स्तर के नागरिक मानवी गरिमा को गौण और पार्टी स्वार्थों को प्रधानता देने लगते है। फलतः दोनों में से एक भी उद्देश्य पूरी तरह पूरा नहीं हो पाता। वर्तमान स्थित में अनेकों स्काउटिंग स्तर के संगठन बने दिखाई देते हैं, पर उन सब का सम्मिलित प्रयास भी इतना नहीं कर पाता कि अपने प्रभाव क्षेत्र के लोगों को नीति निष्ठा जागरूकता, कर्तव्य परायणता, नागरिकता एवं सामाजिकता के सर्वमान्य नियमों को समझने एवं स्वीकार करने में समर्थ हो सके।

गिनती गिनने में भूल हो जाने पर उसका एक ही समाधान है कि नए सिरे से गिनने आरम्भ कर दिया जाये। हमें एक सार्वभौम प्रयास आरम्भ करना चाहिए, जो मात्र मानवी संस्कृति को प्रखर प्राणवान् बनाने के लिए काम करे। सभ्यता का श्रीगणेश करने की विद्या को जन साधारण के लिए अनिवार्य घोषित करे। छात्रों को प्राथमिकता देना उचित है, पर इस छोटे वर्ग तक किसी सार्वभौमिक आन्दोलन को सीमित कर देने से काम नहीं चल सकता। अपने देश को तो विशेषतया परिस्थितियाँ भिन्न है, यहाँ मात्र 30 प्रतिशत जन संख्या शिक्षित है। उनमें यदि देखा जाय कि जो इन दिनों स्कूल में पढ़ रहे है, तो इन्हें दस पाँच शतप्रतिशत ही पाया जायगा। केवल उन्हीं को स्काउटिंग सिखा देने से व्यक्ति में संस्कारिता संवर्धन का प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता। करोड़ों की संख्या में ऐसे नर नारी है जो बिना पढ़े है। वे फिर से पढ़ना आरंभ करेंगे और प्रशिक्षण के साथ स्काउटिंग जैसे विशेष प्रशिक्षण को सम्मिलित रखेंगे, इसकी आशा कम ही बंधती है। फिर भी यह आवश्यकता अनिवार्य है, जिसके बिना प्रति रथ पूरी तरह रुक गया है। उसे निराकरण के लिए कुछ पाय उपचार तो करना ही पड़ेगा। कुछ सामयिक हल ढूंढ़ना और निकालना ही पड़ेगा।


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