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नियति की यह इच्छा हैं कि मनुष्य उच्च उठे। उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रकृति की शक्तियाँ निरन्तर सक्रिय रहती हैं। ईश्वर के राजकुमार को सुखी और सुसंपन्न बनाना ही प्रकृति का क्रम हैं। उसे स्रष्टा ने इसीलिए रचा और खड़ा किया है।
इतने पर भी यह अधिकार मनुष्य के हाथों ही सुरक्षित रखा गया है कि वह प्रगति किस दिशा में करे? चयन की यह स्वतंत्रता उसे प्राप्त है। किसी दूसरे को इसमें हस्तक्षेप का अवसर नहीं दिया जाता। ईश्वर विश्व का नियन्ता है। उसका ज्येष्ठ पुत्र स्वभाग्य निर्माता तो होना ही चाहिए। प्रकृति उसकी सहायता भर सकती है।
अंतःकरण की आकाँक्षा का चयन एवं उसका निर्धारण मनुष्य का प्रथम पुरुषार्थ है। यह निर्धारण होते ही आत्म सत्ता उसकी पूर्ति के लिए जुट जाती है। मनःतंत्र अपनी विचारशक्ति को और शरीर तंत्र अपनी क्रियाशक्ति को इसी आदेश के पालन में जुटा देता है। संपर्क क्षेत्र से वैसा ही सहयोग मिलने लगता है और परिस्थितियाँ अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति हेतु अनुकूलता उत्पन्न करने लगती हैं। मनुष्य आगे बढ़ता है। उसके निर्धारण और पुरुषार्थ को इस विश्व में चुनौती दे सकने वाला दूसरा कोई है भी तो नहीं, पतन अभीष्ट है या उत्कर्ष? असुरता प्रिय है या देवत्व? क्षुद्रता चाहिए या महानता? यह निर्णय मनुष्य स्वयं करता है। पतन के पथ पर नारकीय दुःख सहने पड़ते हैं और उत्कर्ष के पथ पर स्वर्गोपम सुख शांति मिलती है। चयन में दूरदर्शिता अपनायी गयी या अदूरदर्शिता, इसी से मिलता है मनुष्य की बुद्धिमता का परिचय।
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