मिशन के साथ किसी भी रूप में जुड़ने वाले व्यक्ति को व्रतशील बनने के लिए कहाँ जाता है। व्रतशील अर्थात् आत्मशोधन और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के अंतर्गत आने वाले क्रिया-कलापों एवं उत्तरदायित्वों का प्रतिज्ञापूर्वक शपथ लेकर पूरा करना। मिशन की प्रचार-प्रक्रिया का यही स्वरूप एवं उद्देश्य भी है।
लोक शिक्षण मात्र उपदेश देने भर से ही पूरा नहीं हो जाता वरन् उसकी सार्थकता, सफलता तभी मानी जाती है जब सुनने वाले उसे गंभीरता पूर्वक लें, हृदयंगम करें और कुछ करने के लिए कटिबद्ध हो चलें। अपने अगले कदमों की घोषणा सर्वसाधारण के सामने करें। पूरा न होने पर उनके सामने सकुचाये जिनके सामने कुछ आदर्शवादी प्रयासों के सामने प्रतिज्ञा की थी। उपेक्षा की स्थिति में आत्मग्लानि और लोकभर्त्सना की आशंका से भी डरें।
ऐसे प्रयोजन में धार्मिक कार्यक्रमों का समावेश बहुत ही फलप्रद होता है। देवताओं की अग्निदेव की साक्षी में जल हाथ में लेकर की गयी प्रतिज्ञाओं में किये हुए संकल्प प्रायः जीवन भर निभते ही रहते है। विवाह संस्कार इसका उदाहरण है। अग्नि की साक्षी में सात फेरे पड़ जाने के उपरान्त वर वधू, उनके कुटुम्बी, सम्बन्धी, इष्ट मित्र सभी निश्चिन्त हो जाते हैं कि लिया हुआ व्रत दोनों ही जीवन भर निभायेंगे। परस्पर सघन श्रृंखला में बंधकर एक जुट रहेंगे। वानप्रस्थ, संन्यास आदि की प्रतिज्ञाएँ भी इसी प्रकार धर्मसाक्षी में की जाती है। उनसे फिर कोई लौटते नहीं देखा गया। जो लौटते हैं वे अपनी प्रामाणिकता और प्रतिष्ठा खो बैठते हैं।
इसी मान्यता को ध्यान में रखते हुए ‘दीपयज्ञ’ की प्रथा प्रज्वलित की गई है। यह पुरातन परम्परा का अभिनव संस्करण है। पिछले दिनों में बहुत खर्च पड़ता था और बड़ा सरंजाम जुटाना पड़ता था। अब न लोगों में उतनी भाव श्रद्धा रही, न समय की बहुलता और आर्थिक खुशहाली। ऐसी दशा में समय की सहज माँग है कि साधन, श्रम और समय की बचत वाले कर्मकाण्ड की सर्वसाधारण द्वारा अपनाये जाने योग्य हो सकते है। दीपयज्ञ इसी आवश्यकता की पूर्ति करते है। थाली में तीन अगरबत्ती और एक दीपक अग्निदेव के प्रतीक रूप में स्थापित किया जाता है। चौबीस बार गायत्रीमंत्र का सहउच्चारण करने भर से यज्ञ विधान पूरा हो जाता है। इतने सरल क्रियाकृत्य में सम्मिलित होने के लिए अधिकाँश धर्म प्रेमी सम्मिलित हो जाते हैं। नर नारी का, जाति-पाँति का कोई अन्तर रहता नहीं इसलिए धर्मप्रेमी भारतीय जनता की एक बड़ी संख्या उस समारोह में सहज सम्मिलित हो जाती है। थोड़े ही प्रयास में उस क्षेत्र के आस्तिक जनों को बड़ी संख्या में एकत्रित कर लेना सरल पड़ता है और दीपयज्ञ आयोजन सफलतापूर्वक स्थान-स्थान पर स्थानीय लोगों के प्रयत्न से ही सम्पन्न होते रहते है।
एकत्र जन समुदाय को, समय की माँग एवं युग प्रत्यावर्तन में उनकी भूमिका के सम्बन्ध में आयोजन से पूर्व ही संगत प्रवचनों के माध्यम से इतना कुछ समझा दिया गया होता है कि उपस्थित जन यह जान सकें कि उन्हें क्या करना है? इस धर्मानुष्ठान में उन्हें किन सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का व्रत लेना है और किन दुष्प्रवृत्तियों के परित्याग हेतु संकल्प लिया जाना है? न्यूनतम एक त्याग और एक ग्रहण की मन स्थिति भावनाशील लोग बना सकें, इस प्रकार की भाव संवेदना उभार देना उन वक्ताओं, गायकों का लक्ष्य रहता है ताकि आयोजन में लगाया श्रम, समय, साधन सफल हो सके और अनेक नये व्रतशील उभर सकें।
सत्प्रवृत्ति - संवर्धन में - शिक्षा संवर्धन, वृक्षारोपण, सृजनात्मक प्रयोजनों में नियमित समयदान देते रहना प्रमुख है। छोड़ी जाने वाली बुराइयों में नशेबाजी, जातिगत ऊँच नीच, पर्दाप्रथा, भिक्षा-व्यवसाय, दहेज, जेवर धूम-धाम वाली खर्चीली शादियाँ आदि प्रमुख है। इनमें से जो जिन्हें अपने अनुरूप समझते हैं वे दीपयज्ञ की पूर्णाहुति के समय उनका शास्त्रोक्त विधि-व्यवस्था के साथ संकल्प लेते हैं और अग्नि साक्षी में घोषणा करते हैं कि इन वचनों का वे तत्परतापूर्वक निर्वाह करेंगे। व्रत टूटने का अवसर न आने देंगे।
उपरोक्त उद्देश्य और विधान को लेकर स्थान-स्थान पर, समय-समय पर होते रहने वाले दीपयज्ञों का नितान्त सस्ता और प्रायः दो तीन घंटे में सम्पन्न हो जाने वाला प्रवचन समेत कर्मकाण्ड बिना खर्च का होने के कारण उसकी व्यवस्था सरलता पूर्वक बन जाती है और प्रत्येक समारोह में बड़ी संख्या में लोग ऐसे संकल्प लेते हैं जिनके सहारे उनका वर्तमान जीवन क्रम अधिक परिष्कृत एवं प्रखर बन सके। साथ ही वे समाज की अभिनव संरचना में सत्प्रवृत्ति संवर्धन में भावभरा योगदान दे सकें।
जहाँ दीपयज्ञ होते हैं वहाँ साप्ताहिक सत्संग की स्थापना भी होती है। इसके लिए रविवार को प्रमुखता दी गयी है। इसमें गायत्री जप, सूर्य का ध्यान, संक्षिप्त दीपयज्ञ यह तो धर्मकृत्य रहते हैं। इसके अतिरिक्त युग संगीत का सहगान कीर्तन और किसी सामयिक प्रसंग पर मिशन के किसी प्रतिपादन का वाचन होता है। निर्धारित साप्ताहिक सत्संग का उपक्रम शान्ति पाठ के साथ इतने में ही पूरा हो जाता है।
इसके उपरान्त एक अति महत्वपूर्ण कार्य इसी साप्ताहिक सत्संग के अन्त में होता है वह है सत्साहित्य के स्वाध्याय का व्यापक निर्वाह। अब तक इस कार्य को व्यक्तिगत रूप से झोला पुस्तकालय माध्यम से चलाया करते थे। घर-घर जाकर शिक्षितों को पढ़ाने के लिए बिना कोई फीस लिये पढ़ने के लिए देते थे। बाद में जाकर वापस ले आया करते थे। अब उस प्रक्रिया को साप्ताहिक सत्संगों के अवसर पर सामूहिक रूप से करते रहने का नया प्रावधान चल पड़ा है।
साप्ताहिक सत्संगों का विस्तार एक से “पाँच-पाँच से पच्चीस” के चक्रवृद्धि गति से आगे बढ़ता है। न्यूनतम पच्चीस व्यक्ति तो हर सत्संग में होते ही है वे सात-सात पुस्तकें अपने साथ ले जाते हैं और सात व्यक्तियों में बारी-बारी घुमाकर सभी में पूरा करा देते है। एक दिन में एक व्यक्ति एक पुस्तक को आसानी से पढ़ लेता है, क्योंकि वे पचास-साठ पन्ने की होती है। जिन्हें पढ़ने में डेढ़ दो घण्टे का समय पर्याप्त होता है। इस योजना के आधार पर प्रत्येक साप्ताहिक सत्संग व्यक्तियों के लिए स्वाध्याय व्यवस्था सम्पन्न करता रहता है। शिक्षित अपने संपर्क के अशिक्षितों को युग साहित्य पढ़ कर सुनायें ऐसा क्रम भी सभी चलाते है। इस प्रकार विचारक्रान्ति अभियान को इस स्वाध्यायशीलता के माध्यम से विस्तार आगे बढ़ते रहने का अवसर मिलता है।
संकल्पित एक घण्टे का समय इसी प्रयोजन के लिए संपर्क साधने, पुस्तकें देने, वापस लेने, पढ़े हुए विषय पर विचार विनिमय करने जैसे कार्य में लग जाता है। इसके लिए सुविधा का समय कोई भी श्रद्धावान सहज सरलता पूर्वक निकालता रहता है। आलस्य प्रमाद करने वाले की तब खिंचाई होती है जब वह साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर अपने कार्य की रिपोर्ट सुनाते हुए काम का हीना पोला विवरण बताता है। देखा गया है कि यह साप्ताहिक सत्संग, स्वाध्याय का उपक्रम भी साथ-साथ बड़ी सुगमता पूर्वक चलते रहते है। साधना-उपासना की आध्यात्मिकता जुड़ी रहने से श्रद्धा संवर्धन का पुट भी लगता रहता है। किसी को ऊब नहीं आती और सभी अगले सत्संग का दिन पहले से ही सोचते रहते है। सत्संग यों तो प्रायः किसी स्थिर सुविधाजनक स्थान पर होते रहते है। पर यदि किन्हीं सदस्यों का आग्रह हो तो उनके घरों पर भी आयोजन किये जाते है। आतिथ्य के रूप में किसी को किसी प्रकार का खर्च करने का प्रतिबन्ध है ताकि सभी गरीब अमीर समान रूप से उस सुविधा का लाभ उठा सकें। कोई किसी प्रकार का दबाव अनुभव न करे।
एक से पाँच-पाँच से पच्चीस बनना यही सत्संगों की सीमा है। सदस्य बढ़ें तो नये मण्डल बना दिये जाते है। ताकि अनपढ़ व्यक्तियों पर कड़ी नजर रखी जा सके और उनकी काट छाँट होती रहे। पच्चीस प्रतीत होने वाले व्यक्ति भी वस्तुतः पच्चीस नहीं होते। उनके द्वारा जिन 165 व्यक्तियों को पुस्तकें निःशुल्क नित्यप्रति एक नई पुस्तक देने और वापस लेने का क्रम चलाया जाता है, वह परिकर बिल्कुल अलग होते हैं। इस प्रकार मूल 25 सदस्य ओर 175 स्वाध्यायशील मिलकर 200 हो जाते है। इस समूचे परिकर में जहाँ उत्साह उभरा है वहाँ एक सत्संग मण्डल के दस विभाग हो गये है। इस प्रकार एक से दस होते हुए और कालान्तर में वे सदस्य भी उतने ही न रहकर सौ बन जाते है। आशा की गई है कि साप्ताहिक सत्संगों के बढ़ते हुए क्रम निरन्तर अग्रगामी भी होंगे और अगले वर्षों ये एक लाख बनकर करोड़ों तक नये युग का सन्देश पहुँचाने लगेंगे।
हर कार्य साधन चाहता है। प्रस्तुत विचार-क्रान्ति के निमित्त भी कुछ न कुछ खर्च तो स्थानीय व्यवस्था के लिए लगेगा ही। इसके लिए यही नियम अपनाया गया है कि पाँच और पच्चीस सदस्य समयदान की तरह अंशदान भी नियमित रूप से प्रस्तुत करें। बीस पैसे का अनुदान नियमित रूप से निकालें और सात दिन के संचय को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर जमा कर दिया करें। हर सप्ताह आय व्यय का विवरण सभी उपस्थित जनों को सुना दिया जाय ताकि कोई उंगली उठा न सकें।
वार्षिक समारोह करने हो तो उसमें सभी मुहल्ले-मुहल्ले वाले सत्संग मण्डल मिलकर एक विशाल समारोह कर लें। वक्ता, गायक अपने ही मिशन के सर्वत्र उपलब्ध होने लगे है। जहाँ कम पड़ते हों वहाँ से एक महीने के युगशिल्पी सत्र में हरिद्वार भेजकर इसके लिए प्रशिक्षण प्राप्त करा भी लिया जाता है। युगशिल्पी सत्रों में गायन, वादन, वक्तृत्व एवं दीपयज्ञ स्तर के कर्मकाण्डों की साँगोपाँग प्रवीणता प्राप्त हो जाती है। ऐसे ही समीपवर्ती लोगों से अपने कार्यक्रम पूरे कर लेने चाहिए। बड़े लोगों को बुलाने के फेर में समय और शक्ति बर्बाद नहीं करनी चाहिए।
युग संधि के बारह वर्षों में एक लाख कर्म कार्यकर्ता बनाकर नव सृजन के क्षेत्र में उतार देने का शान्तिकुँज का महापुरश्चरण के साथ आरंभ हुआ संकल्प इन्हीं उपरोक्त आधारोँ के सहारे पूर्ण होकर रहेगा, ऐसी आशा विश्वासपूर्वक संजोनी चाहिए। प्रामाणिकता, प्रखरता, प्रतिभा का जहाँ समर्पित प्रयास चलेगा वहाँ लक्ष्य की पूर्ति क्यों नहीं होगी? विश्व मानव को एकता समता के सुदृढ़बंधनों में बाँधने वाली ईश्वरेच्छा पूरी होकर रहेगी।