आस्तिकता की सच्ची परिभाषा

December 1988

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ईश्वरीय सत्ता में विश्वास कर लेना तथा “ईश्वर” है, इस बात को मान लेना मात्र बौद्धिक आस्था भर है। इसी के आधार पर व्यक्ति को आस्तिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि आस्तिकता विश्वास नहीं वरन् एक अनुभूति है। जिस किसी में भी आस्तिकता के भाव आते हैं, जो सच्चा आस्तिक बन जाता है, उसको अपने हृदय पटल पर ईश्वर के दिव्य प्रकाश की अनुभूति होने लगती है। वह विराट् सत्ता को सम्पूर्ण सचराचर जगत में देखता है तथा उस अनुभूति से रोमाँचित हो उठता है। ऐसा व्यक्ति ईश्वर के सतत् सामीप्य की सहज ही अनुभूति करता है तथा प्राणिमात्र में उसे अपनी ही आत्मा के दर्शन होते हैं। उसकी विवेक दृष्टि इतनी अधिक परिष्कृत परिपक्व हो जाती हैं कि जड़ चेतनमय सारे संसार में परमात्म सत्ता ही समाविष्ट दीखती है।

आस्तिकता कोई भावुक नहीं है। किसी प्रतिमा की पूजा अर्चा भर करते रहने से वह प्रयोजन पूरा नहीं होता। इसे अंतरात्मा की गहराई में जमाने के लिए भक्ति-भाव का आश्रय लेना पड़ता है। यह विश्वास मनोकामना पूरी करने या प्रकट होकर दर्शन देने जैसे बचकाने बाल कौतुक के लिए नहीं वरन् सत्प्रवृत्तियों के समन्वित समुच्चय की सघन आस्थाओं के रूप में अपना लिए जाने पर सम्पन्न होता है - ईश्वर के प्रति समर्पण।

सर्वव्यापी परमेश्वर को किसी शरीर विशेष में अवस्थित नहीं देखा जा सकता। वह नियम शक्ति एवं भाव चेतना के रूप में कण कण में समाहित है। परब्रह्म की यथार्थ सत्ता का यही स्वरूप है। अनुशासन और कर्तव्य पालन ही उसे अभीष्ट हैं। समस्त महर्षि नियम अनुशासन के परिपालन से ही गतिशील रहकर अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। यह अनुशासन ईश्वर ने अपने ऊपर भी स्वेच्छा- पूर्वक ओढ़ा हुआ है। इस मान्यता के परिपक्व होते ही “आत्मवत्सर्वभूतेषु” और “वसुधैव कुटुम्बकम्”‘ की श्रद्धा उभरती है। सेवा साधना और परमार्थ परायणता की दिशा में अग्रसर होना पड़ता है। समस्त प्राणियों को अपने ही समान तथा समस्त जगत को परमात्मा का स्वरूप मानने वाले ईश्वर परायण व्यक्ति से कभी भी असंगत, अनुचित अथवा अकरणीय कार्य बन ही नहीं पड़ते।

ईश्वर की सत्ता और महत्ता पर विश्वास करने का अर्थ है- उत्कृष्टता के साथ जुड़ने और सत्परिणामों पर - सद्गति पा -सर्वतोमुखी प्रगति पर विश्वास करना। आदर्शवादिता अपनाने पर इस प्रकार की परिणति सुनिश्चित रहती हैं। किन्तु कभी कभी उसकी उपलब्धि में देर सबेर होती देखी जाती है। ऐसे अवसरों पर ईश्वर विश्वासी विचलित नहीं होते। अपने सन्तुलन और सन्तोष को नष्ट नहीं होने देते। धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। और हर स्थिति में अपने आन्तरिक आनन्द एवं विश्वास को बनाये रखते हैं। दिव्य सत्ता के साथ मनुष्य जितनी सघनता के साथ जुड़ेगा उसके अनुशासन अनुबंधों का जितनी ईमानदारी, गहराई के साथ पालन करेगा उतना ही उसका कल्याण होगा। आस्तिक न तो याचना करता है और न अपनी पात्रता से अधिक पाने की अपेक्षा करता हैं। उसकी कामना भावना के रूप में विकसित होती है। भाव संवेदना फलित होती है तो आदर्शों के प्रति आस्थावान बनाती है। तनिक-सा दबाव या प्रलोभन आने पर फिसल जाने से रोकती है। पवित्र अन्तःकरण ईश्वर के अवतरण के मार्ग में आये अवरोध समाप्त कर देता है। दुष्प्रवृत्तियों को हटा देने पर उनका स्थान सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय ले लेता है। इस स्थिति के परिपक्व होने पर जो आनन्द आता है, सन्तोष प्राप्त होता है, उल्लास उमगता है, उसे ईश्वर प्राप्ति कहा जा सकता है। यही सच्चा भक्ति भाव, सच्चा धर्म है। ऐसा आस्तिक ही परम तत्व को, अंतिम लक्ष्य को प्राप्त होता है।


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