व्यावहारिक साधना के चतुर्विध सोपान

December 1988

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ज्ञान और कर्म के संयोग से ही प्रगतिपथ चल सकना, सफलता वरण करने की स्थिति तक जा पहुँचना संभव होता है। अध्यात्म विज्ञान में भी तत्व दर्शन का सही स्वरूप समझने के उपरान्त दूसरा चरण यही रहता है कि उसे क्रियान्वित करने की, पूजा अर्चा की विधि व्यवस्था ठीक बने। अध्यात्म का तत्व दर्शन, परिष्कार और आत्म विकास के दो शब्दों में सन्निहित समझ जा सकता है। उपासना पक्ष की प्रतीक पूजा का तात्पर्य है- क्रिया एवं साधनों के सहारे आत्म शिक्षण की आवश्यकता पूरी करना। कोई भी कर्मकाण्ड उसकी भावनाओं को हृदयंगम किये बिना पूर्ण नहीं हो सकता।

सार्वजनिक सुलभ साधना का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए इन पंक्तियों में प्रज्ञा योग नाम से वह विधान प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसके सहारे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में अन्याय, उपचारों की अपेक्षा अधिक सरलता पूर्वक कम समय में अधिक सफलता मिल सकती है।

प्रज्ञायोग की दो संध्याएँ अत्यधिक सरल और अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। एक सबेरे आँख खुलते ही बिस्तर पर पड़े पड़े पन्द्रह मिनट हर दिन “नये जन्म” की भावना करने का उपक्रम हैं। दूसरा रात्रि को सोते समय यह अनुभव करना कि शयन एक प्रकार दैनिक मरण है। जन्म और मरण यही दो जीवन सत्ता के ओर छोर हैं। इन्हें यही रखा जाय तो मध्यवर्ती भाग सरलता पूर्वक सम्पन्न हो जाता है। बीजारोपण और फसल काटना, यही दो कृषि कार्य के प्रमुख अंग है। शेष तो लम्बे समय तक चलने वाली किसान की सामान्य क्रिया प्रक्रिया तक चलने वाली किसान की सामान्य क्रिया प्रक्रिया हैं। उसे तो सामान्य बुद्धि और सामान्य अभ्यास से भी चलाया जा सकता है। जाग्रति को प्रातः काल की संध्या और शयन को रात्रि की संध्या कहा जा सकता है। दो बार की संध्या कहा जा सकता है। दो बार की संध्या यों सूर्योदय और सूर्यास्त के समय वाली मानी जाती है, पर उसके साथ जुड़ी आध्यात्मिक साधना प्रातःकाल आँख खुलते समय और रात्रि को सोने आँख बन्द होने के समय की जा सकती है।

प्रज्ञायोग की प्रथम साधना को आत्मबोध कहते हैं। आँख खुलते ही यह भावना करनी चाहिये कि आज अपना नया जन्म हुआ। एक दिन ही जीना है। रात्रि को मरण की गोद में चले जाना है। इस अवधि का सर्वोत्तम उपयोग करना ही जीवन साधना का महान लक्ष्य है। यही अपना परीक्षा क्रम है और इसी में भविष्य में सारी संभावना सन्निहित है।

मनुष्य जन्म जीवधारी के लिए सबसे बड़ा सौभाग्य है। इसका सदुपयोग बन पड़ना ही किसी की उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता का प्रमाण परिचय है। उठते ही यह विचार करना चाहिये कि आज के दिन को सम्पूर्ण जीवन माना जाए और स्रष्टा की इस बहुमूल्य धरोहर का उन कार्यों में उपयोग किया जाए जिनके लिए इसे दिया गया है। इस आधार पर दिन भर की दिनचर्या इसी समय निर्धारित की जाय चिंतन, चरित्र और व्यवहार की वह रूपरेखा विनिर्मित की जाए जिसे सतर्कता पूर्वक पूरी करने पर यह माना जा सके कि आज का दिन एक बहुमूल्य जन्म, पूरी सार्थक हुआ। इस चिन्तन के सभी पक्षों पर विचार करने में जितना अधिक समय लगे, उतना कम हैं, पर इसे नित्य प्रति, नियमित रूप से करते रहने पर पन्द्रह मिनट भी पर्याप्त हो सकते हैं। एक दिन की छूटी बात को अगले दिन पूरा किया जा सकता है।

दूसरी संध्या रात को सोते समय पूरी की जाती है। उसमें यह माना जाना चाहिये कि अब मृत्यु की गोद में जाया जा रहा है। भगवान के दरबार में जवाब देना होगा कि आज के समय का एक दिन के जीवन का किस प्रकार सदुपयोग बन पड़ा। इसके लिए दिन भर के समय-यापन परक क्रिया कलापों और विचारों के उतार चढ़ावों की समीक्षा की जानी चाहिये। उसके उद्देश्य और स्तर को निष्पक्ष होकर परखना चाहिये कि कितना उचित बन पड़ा और कितनी उसमें भूल या विकृति होती रही। जो सही हुआ उसके लिए अपनी प्रशंसा की जाय और जहाँ जो भूल हुई हो अपनी प्रशंसा की जाय और जहाँ जो भूल हुई हो उसकी भरपाई अगले दिन करने की बात सोची जाय। पाप का प्रायश्चित्त शास्त्रकारों ने यही माना है कि उसकी क्षति पूर्ति की जाय। आज का दिन जो गुजर गया, उसे लौटाया तो नहीं जा सकता, पर यह हो सकता है कि उसका प्रायश्चित अगले दिन किया जाय। अगले दिन के क्रिया−कलाप में आज की कमी को पूरा करने की बात भी जोड़ दी जाए। इस प्रकार कुछ भार तो अवश्य बढ़ेगा, पर उसके परिमार्जन का और कोई उपाय भी तो नहीं है।

मृत्यु अवश्यंभावी है। लोग उसे भूल जाते हैं और बाल क्रीड़ा की तरह महत्वहीन कार्यों में जीवन बिता देते हैं। यदि यह ध्यान रखा जाए कि चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त जो अलभ्य हस्तगत हुआ है उसे इस प्रकार व्यतीत किया जाय जिससे भविष्य उज्ज्वल बने। देव मानव स्तर तक पहुँचने की आशा बंधे। दूसरों को अनुकरण की प्रेरणा मिले। स्रष्टा को, दायित्व निर्वाह की प्रामाणिकता का परिचय पाकर प्रसन्नता हो। पदोन्नति का सुयोग इस आधार पर उपलब्ध हो।

रात्रि को जिस प्रकार निश्चितता पूर्वक सोया जाता है उसी प्रकार मरणोत्तर काल से लेकर पुनर्जन्म की मध्यावधि में भी ऐसी ही शान्ति रह सकती है। इसकी तैयारी इन्हीं दिनों करनी चाहिये। हँसी-खुशी से दिन बीतता हो तो रात्रि को गहरी नींद आती है। दिन यदि शान्तिपूर्वक गुजारा जाए-श्रेष्ठता के साथ जुड़ता रहे तो मरणोत्तर विश्राम काल में नरक नहीं भुगतना पड़ेगा। स्वर्ग जैसी शान्ति का रसास्वादन मिलता रहेगा। इस प्रक्रिया को तत्व बोध कहा गया है।

प्रज्ञायोग के दो और चरण है- जिनको दिन में पूरा किया जाता है। इनमें एक है- भजन दूसरा मनन। भजन के लिए नित्य कर्म से निवृत्त होकर नियत पूजा स्थान पर पालथी मारकर बैठा जाता है। शरीर, मन और वाणी की शुद्धि के लिए जल द्वारा पवित्रीकरण, सिंचन, आचमन किया जाता है देव प्रतिमा के रूप में गायत्री की छवि अथवा धूप-दीप में से कोई प्रतीक स्थापित करके इसे इष्ट, आराध्य माना जाता है। धूप, दीप, नैवेद्य, जल, अक्षत, पुष्प में से जो उपलब्ध हो उससे उसका पूजन किया जाता है। पूजन में प्रयुक्त वस्तुओं की तरह अपने जीवन में उन विशेषताओं को उत्पन्न करने की भावना की जाती है जो इन उपचार, साधनों में पायी जाती है। चन्दन समीपवर्तियों में सुगन्ध भरता है। दीपक अपने प्रभाव क्षेत्र में ज्ञान रूपी प्रकाश फैलाता है। पुष्प हंसता और खिलता रहता है। जल शीतलता का प्रतीक बन कर रहता है। अक्षत, नैवेद्य के पीछे समयदान, अंशदान परमार्थ प्रयोजन के लिए निकाले जाने की भावना है। इष्टदेव को सत्प्रवृत्ति का समुच्चय माना जाय। इन मान्यताओं के आधार पर देव पूजन समग्र बन पड़ता है।

अब जप और ध्यान की बारी आती है। दोनों एक साथ चल सकते हैं। गायत्री जप मानसिक हो तो भी ठीक है। जितनी देर करने का निश्चय हो उसका हिसाब माला या घड़ी के सहारे किया जाता है। जिन्हें गायत्री की अपेक्षा कोई अन्य मन्त्र रुचिकर होवे उसे अपना सकते है। ॐकार भी सार्वभौम स्तर की जप मान्यता बन सकता है।

जप के साथ प्रातः काल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य का ध्यान किया जाय। भावन करनी चाहिये कि अपना खुला शरीर सूर्य के सम्मुख बैठा है। इष्ट की सूक्ष्म किरणें अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों में प्रवेश कर रही है। किरणें ऊर्जा और आभा की प्रतीक है। ऊर्जा अर्थात् शक्ति, आभा अर्थात् प्रकाश प्रज्ञा। दोनों का समन्वय तीनों शरीरों में प्रवेश करके उन्हें प्रभावित करता है ऐसी भावना की जानी चाहिये। प्रत्यक्ष शरीर में स्वास्थ्य और संयम, सूक्ष्म शरीर मस्तिष्क में विवेक और साहस, कारण शरीर अर्थात् अन्तःकरण में श्रद्धा, सद्भावना सूर्य किरणों के रूप में प्रवेश करके अस्तित्व की समग्र सत्ता को अनुप्रमाणित कर रही है। यह ध्यान धारणा और मंत्र जप साथ-साथ नियत निर्धारित समय तक चालू रखे जाय और अन्त में पूर्णाहुति के रूप में सूर्य सम्मुख जल अर्घ्य दिया जाय। इसका तात्पर्य है। परम सत्ता के सम्मुख जल रूपी आत्म सत्ता का समर्पण। भजन भावना इतनी ही है। यदि नियत स्थान पर बैठ सकना संभव नहीं, सफर में चलने जैसे स्थिति हो तो वह सारे कृत्य मानसिक रूप से बिना किसी वस्तु की सहायता के भी किये जा सकते हैं।

प्रज्ञायोग साधना का चौथा चरण है- मनन। यह मध्याह्नोत्तर कभी भी नहीं किया जा सकता है। समय पन्द्रह मिनट हो, तो भी काम चल जायेगा। इसमें अपनी वर्तमान स्थिति की समीक्षा की जाती है और आदर्शों के मापदण्ड से जाँच पड़ताल करने पर जो कमी प्रतीत हो, उसे पूरा करने की योजना बनानी पड़ती है। यही मनन है। इसके लिए एकान्त स्थान ढूँढ़ना चाहिये। आंखें बन्द कर के अन्तर्मुखी होना और आत्मसत्ता के सम्बन्ध में परिमार्जन परिष्कार की उभयपक्षीय योजना बनानी चाहिये। इसमें आज के दिन को प्रधान माना जाय। प्रातः से मध्याह्न तक जो सोचा और किया गया हो, उसे आदर्शों के मापदण्ड से जाँचना चाहिये और उस समय से लेकर सोते समय तक जो कुछ करना हो उसकी भावनात्मक योजना बनानी चाहिये, ताकि दिन के पूर्वार्ध की तुलना में उत्तरार्ध और भी अच्छा बन पड़े।

आत्म समीक्षा के चार माप दण्ड हैं- (1) इन्द्रिय संयम, (2) समय संयम, (3) अर्थ संयम, (4) विचार संयम। देखना चाहिये कि इन चारों में कही कोई व्यक्तिक्रम तो नहीं हो रहा है? जीभ स्वाद के नाम अभक्ष्य भक्षण तो नहीं करने लगी? वाणी से असंस्कृत वार्तालाप तो नहीं होती? कामुकता की प्रवृत्ति कहीं कुदृष्टि से तो नहीं उभर रही? असंयम से शरीर और मस्तिष्क खोखला तो नहीं हो रहा? शारीरिक और मानसिक स्वस्थता बनाये रखने के लिए इन्द्रिय निग्रह अमोघ उपाय है।

समय संयम का अर्थ है- एक-एक क्षण का सदुपयोग। आलस्य प्रमाद में, दुर्व्यसनों में, दुर्गुणों के कुचक्र में फँस कर समय का एक अंश भी बर्बाद होने पाये। इसकी सुरक्षा और सदुपयोग पर पूरी पूरी जागरूकता बरती जानी चाहिये। समय ही जीवन है, जिसने समय का सदुपयोग किया, समझो कि उसने जीवन का परिपूर्ण लाभ उठा लिया।

तीसरा संयम हैं अर्थसंयम। पैसा ईमानदारी और परिश्रम कमाया जाय। मुफ्तखोरी और बेईमानी का आश्रय न लिया जाय। औसत भारतीय स्तर का जीवन जिया जाय। “सादा जीवन उच्च विचार” की नीति अपनायी जाय। विलास प्रदर्शन की मूर्खता में कुछ भी खर्च न होने दिया जाय। कुरीतियों के नाम पर भी बर्बादी न चले। बचत का एक बड़ा अंश परमार्थ प्रयोजन में लगा सकने और पुण्य की पूँजी जमा करने का श्रेय उन्हीं को मिलता है, जो विवेकपूर्ण औचित्य का ध्यान रखते हुए खर्च करते हैं।

चौथा संयम है- विचार संयम। मस्तिष्क में हर घड़ी विचार उठते रहते हैं, कल्पनाएँ चलती रहती है। ये अनर्गल, अस्त−व्यस्त एवं अनैतिक स्तर के न हो, इसके लिए विवेक को एक चौकीदार की तरह नियुक्त कर देना चाहिये। उसका काम हो कुविचारों को सद्विचारों की टक्कर मार कर परास्त करना। अनगढ़ विचारों के स्थान पर रचनात्मक चिन्तन का सिलसिला चलाना। विचार मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। वही कर्म के रूप में परिणत होती और परिस्थिति बनकर सामने आती है। जीवन को कल्प वृक्ष बनाने का श्रेय रचनात्मक विचारों का ही होता है। इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्चस्तरीय विचारों में ही संलग्न रखना चाहिये।

साधना, स्वाध्याय, संयम सेवा के चार पुरुषार्थ में जीवन की प्रगति एवं सफलता बन पड़ती है इसलिये दिनचर्या में उन चारों के लिए समुचित स्थान रहे, उसकी जाँच-पड़ताल आत्म समीक्षा के समय में निरन्तर करनी चाहिये। आत्मसमीक्षा,, आत्मनिर्माण और आत्मविकास की चतुर्दिक् प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने के लिए मध्यान्तर काल की मनन साधना करनी चाहिये। इसे आत्मदर्शन ही समझा जाना चाहिये, जो थोड़ी विकसित अवस्था में ईश्वर दर्शन के रूप में फलित होता है।


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