नित्य निरन्तर परिवर्तनशील सह सृष्टि

December 1988

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संसार बाह्य दृष्टि से कितना सुहाना, व आश्चर्यमय प्रतीत होता है। शैशवकाल से जरावस्था तक इसे इसे देखते नहीं अघाते। इतना ही नहीं देखते देखते ऐसा अपनत्व बोध जाग्रत होता है कि इसे शाश्वत एवं चिर सनातन समझकर सदा अपनाने के लिए लालायित बने रहते हैं। किन्तु यह मोह अपनत्व दर्शाने का भाव उस समय बालुका भीत के सदृश प्रतीत होता है, जब एक एक करके सारी वस्तुएं हमें त्यागती हुई चली जाती हैं अथवा हम उन्हें स्वयं त्याग देते हैं। यहाँ तक कि अपना शरीर भी एक न एक दिन छूट जाता है।

परिवर्तनशीलता एवं गति की निरन्तरता ही इस सृष्टि का नियम है। नेत्रों में व्याप्त भ्रम अथवा इसकी सीमित क्षमता के कारण ही हम इस तथ्य से अनभिज्ञ बने रहते हैं। पैरों के नीचे पड़े मिट्टी के कण गतिहीन लगते है, पर उसके सूक्ष्मतम घटकों को देखा जाय तो यही स्पष्ट होता है, कि उनमें भी तीव्र हलचल हो रही है। शरीर के गति रहित होने पर भी आन्तरिक संस्थानों के क्रिया कलाप में रुकावट नहीं आती। प्रत्येक पल लाखों कोषाणु मरते तथा लाखों नए पैदा होकर उनका स्थान ग्रहण करते हैं। नेत्र तो परिवर्तन के स्थूल पक्ष का ही बोध कर पाने में समर्थ हैं। अधिक सूक्ष्म परिवर्तन इस बोध की परिधि में नहीं आते। पर इससे उस सत्यसत्ता पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता कि सृष्टि के हर परिवर्तन हो रहे हैं।

वस्तुतः स्थिति यह है भी नहीं। जड़ हो या चेतन सभी गतिमान हैं। जिन्हें हम जड़ कहते हैं, स्थिर मानते हैं। उनके भीतर भी स्थिरता नहीं है। प्रत्येक पदार्थ के अणु परमाणुओं में विद्यमान इलेक्ट्रॉन एक निश्चित गति से निर्धारित कक्षा में परिभ्रमण कर रहें है। इन सूक्ष्मतर इलेक्ट्रॉन से लेकर अपने सौर मण्डल के भारी भरकम सदस्यों तक की यही गतिशील है।

शरीर जिसको हम सर्वाधिक अपना मानते हैं। उस पर गौरव करते तथा सनातन शाश्वत मानते रहते है। इसी की बलिष्ठता स्वस्थता पर अभिमान करके दूसरों पर रौब गाँठने परेशान करने जैसी हरकतें भी करते हैं, पर पालने में पराश्रित हो झूलने वाला शैशवकीन शरीर झुकी कमर वाला बनकर लकुटी ग्रहणकर पुनः पराश्रित की स्थिति में जा पहुंचता है, पता ही नहीं चलता। यह विचित्र, समझ में न आने वाला परिवर्तन अकस्मात होता हो ऐसा नहीं है। यह प्रतिपल प्रतिक्षण अबाध गति से चलता रहता है।

शरीर ही क्या, जिस धरती मां की गोदी में यह पलता, बढ़ता मरता है, उसकी भी यही स्थिति है। अपनी पृथ्वी को जिस रूप में हम देखते हैं कभी ऐसी न थी। सतत् परिवर्तन की परिणति स्वरूप इसका वर्तमान स्वरूप बना है। जन्म से लेकर अब तक आकाशीय धुल, उल्का खंडों के द्बक्वस्नशद्ध पर से उसका भार बढ़ता आ रहा है और क्रमशः पक्वस्नशद्ध भारी ही होती चली आई है।

प्राप्त शिला लेखों एवं पुस्तकों के आधार पर पुरातत्वविदों तथा इतिहास वेत्ताओं ने गवेषणा की है कि धरती पर सामाजिक एवं राजनैतिक इतिहास का प्रारंभ लगभग ईसा से 10,000 वर्ष पूर्व हुआ था। जब कि धरती की परतों के नीचे प्राप्त विविध प्राणियों एवं वनस्पतियों के आधार पर जीवाश्म शास्त्रियों का मानना है कि पृथ्वी का इतिहास 52 वर्ष पूर्व से प्रारम्भ हुआ। हिमालय से वनस्पतियों एवं प्राणियों के अवशेष यह बताते हैं कि यह सारा प्रदेश पहले समुद्र में डूबा हुआ था अर्थात् जहाँ आज नगाधिराज हिमालय के विशालकाय उत्तुंग शिखर हैं कभी वहाँ विशाल वारिणि के प्रचण्ड लहरों का कोलाहल गूंजता होगा। भू-गर्भ विशेषज्ञों का कहना है कि दो टापुओं को छोड़कर सम्पूर्ण यूरोप खण्ड लहराया सागर था। एशा का रूसी भू-भाग, इंडोनेशिया, दक्षिणी अरब, दक्षिण भारत, आस्ट्रेलिया के पश्चिमी एवं पूर्वी किनारे को छोड़कर सम्पूर्ण यूरोप एशिया ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड समुद्र के तल में समाए थे। चीन का कुछ हिस्सा पूर्व साइबेरिया से होकर अमेरिका के पश्चिमी भाग से जुड़ा था।

इस तरह के परिवर्तनों के महत्वपूर्ण कारणों में ज्वालामुखियों का आतंक, समुद्री उथल पुथल आदि प्रमुख है। जल के स्थान पर थल एवं थल के स्थान पर जल का नर्वत सतत् चलता रहा है। इन सारे परिवर्तनों से यही सुस्पष्ट होता है कि ब्रह्मांड के समूचे अवयव नित्य निरन्तर गतिशील है। इनमें नित्यता, स्थिरता, का भान होना हमारा अपना भ्रम है। वैज्ञानिकों का मानना है कि मात्र पृथ्वी ही नहीं उसके पिण्ड टुकड़े भी चल रहे है। वे अनेकों बार एक दूसरे से अलग हुए अनेकों बार डे। सप्त महाद्वीपों में पृथ्वी का विभाजित होना इन टुकड़ों के गतिशील होने का परिचायक है। नवीन शोध निष्कर्षों के अनुसार ये महाद्वीप भी अपने स्थानों से खिसककर कर स्थान बदल रहे हैं। विज्ञान की यह शाखा जिसके अंतर्गत विभिन्न भू भागों की गति का अध्ययन किया जाता है ग्लोबल प्लेट टैक्टानिक्स है। इस विद्या के वैज्ञानिकों ने यह भी बताया है कि ठोस दिखने पर भी पृथ्वी ठोस नहीं है। इसके केन्द्र में अतिशय गाढ़ा तरल पदार्थ है। जिसकी सतह पर 64 कि.मी. से 15 किमी. तक की मोटी परत के दस टुकड़े तैरते रहते हैं। इस शाखा में अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि 20 करोड़ वर्ष पूर्व में दसों टुकड़ों आपस में मिले थे तथा एक ही महाद्वीप था। गति के कारण कालान्तर में सात द्वीपों में विभाजित हो गया। ये भी स्थिर नहीं हैं। ये 1 सेमी. से लेकर 15 से.मी. तक प्रति वर्ष में विभिन्न दिशाओं में खिसकते जा रहे है। यूरोप और उत्तरी अमेरिका एक दूसरे से प्रति वर्ष 2.5 से.मी. दूर होते जा रहे है। कभी एटलांटिक नामक एक विकसित महाद्वीप धरती पर था। उसके विलुप्त हो जाने से ही समुद्रों व महाद्वीपों का वर्तमान स्वरूप बना।

गति एवं परिवर्तन का यह क्रम पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड में सर्वत्र चल रहा हैं। कितने ही जीव नित्य पैदा होते और कितने ही नित्य मरते है। कितने ही पदार्थों का विखण्डन होता कितने ही आपस में सम्मिलित होते है। परिवर्तन की यह श्रृंखला सर्वत्र परिव्याप्त है। तारों- ग्रह- उपग्रहों में भी कितने ही अपना स्थान बदलते टूटकर नष्ट−भ्रष्ट होते रहते हैं। आवश्यक नहीं कि उन सभी की जानकारी मनुष्य को हो जाय। अभी तो न जाने कितने ग्रह नक्षत्र ऐसे हैं जिनके अस्तित्व का हमें भान भी नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं कि मरक्यूरी ग्रह जो सूर्य की 5 करोड़ 80 लाख किलोमीटर दूरी पर परिक्रमा लगाता हैं, सबसे तेज गति से अर्थात् ब्रह्माण्ड में सभी ग्रहों–उपग्रहों में तीव्रतम गति से एक लाख 72 हजार किलोमीटर प्रति घण्टे की चाल से घूमता है। यह तो ज्ञात ब्रह्माण्ड के आंकड़े है। इससे भी परे वह है, जो अविज्ञात है।

परिवर्तन के ये नियम मनुष्य पर भी लागू है। एक हालत में न तो मानव की शारीरिक स्थिति रहती है और न ही प्रकृति की शारीरिक स्थिति रहती है और न ही प्रकृति की। जन्मा हुआ शिशु नित्य नए दौर से गुजरता तथा विकास की मंजिल पूरी करता है। शारीरिक परिवर्तनों तरह मनःस्थिति में भी अवस्था के अनुरूप परिवर्तन होते रहते हैं।

परिवर्तनशीलता की इस प्रक्रिया को प्रायः सभी जीव हर्ष स्वीकारते तथा उसके अनुरूप अपनी गतिविधियों का ताल-मेल बिठाते हैं। मनुष्य ही है जो परिस्थिति विशेष से आसक्ति व मोह की डोर में अपने को जकड़े रहता है। इसके परिवर्तित होने पर आवश्यक समायोजन न कर रोता-कलपता रहता है। स्थिरता गतिहीनता तो तमोगुण व मृत्यु का परिचायक है। इसी कारण प्राचीन तत्त्वान्वेषियों ने चरैवेति-चरैवेति का सूत्र प्रतिपादित किया। आत्मक्रम में बंधी इस परिवर्तन प्रक्रिया को स्वीकारने तथा उसके अनुरूप अपने जीवन को ढालने की गतिविधियों का निर्धारण करने से ही जीवन के लक्ष्य उत्कर्ष को पा सकना सम्भव है। सतत् चलना गतिशील सक्रिय बने रहना ही जीवन है।


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