वाणी और लेखनी का विचार क्रान्ति में क्या योगदान हो सकता है और उस आधार पर इक्कीसवीं सदी से आरंभ होने वाले नवयुग को किसी प्रकार अग्रगामी बनाया जा सकता है, इसकी झलक-झाँकी इस लेखमाला के प्रारंभिक लेखों में गत माह दी गयी थी।
अब प्रश्न यह उठता है कि बिल्ली के गले में घण्टी कौन बाँधे? इन अस्त्र शस्त्रों को सही रीति से चला सकने वाली प्रतिभा कहाँ से उत्पन्न या उपलब्ध हो? बिना कुशल चालक के मोटर कैसे चले? अनाड़ी ड्राइवर तो दुर्घटना भी प्रस्तुत कर सकते है। अनजान व्यक्ति के बंदूक चलाने पर उसका जो धक्का पीछे लगता है, उससे अपनी पसली भी तोड़ लेता है। लेखनी और वाणी के अस्त्र-शस्त्र उठाने वाले यदि रुग्ण, कायर और भयभीत मानसिकता लिये फिरते हो तो वे मात्र उन साधनों से अनर्थ ही नियोजित करेंगे।
परीक्षित को जब मरने में एक सप्ताह भर बचा तो उनमें भागवत पुराण सुनने की इच्छा व्यक्त की। अनेकों प्रवचन कर्ताओं के नाम सुझाये गये, पर उन्हें कोई रास न आया। शुकदेव का नाम उन्हें सूझा। उन्हें ही बुलाया भी, क्योंकि परीक्षित जानते थे कि उपदेश नहीं, वस्तुतः उसे प्रस्तुत करने वाले का व्यक्तित्व ही काम करता है। यदि वह हेय स्तर का है तो लेखनी और वाणी में प्रस्तुत किये गये मार्गदर्शन के सही होते हुए भी उपहासास्पद ही बनेंगे। युग सृजन के मध्यवर्ती नाभिक की भूमिका ही प्रमुख होगी उनका व्यक्तित्व हर कसौटी पर खरा उतरने योग्य होना ही चाहिए। इतना बन पड़ने पर योग्य होना ही चाहिए। इतना बन पड़ने पर सुयोग्य साथियों की न तो कमी रहेगी, न कर्मठ कार्यकर्ताओं की। हनुमान के साथ अनपढ़ अनजाने बन्दर भी प्राण हथेली पर लेकर चल पड़े थे। बुद्ध के विहारों में भी प्रतिभाओं की कमी न थी। गाँधी को सुयोग्य साथी मिल ही गए थे। चुम्बक अपने वर्ग के अणुओं को खींचता और साथ में चिपकता देखा जाता है। विदूषकों की वाचालता मनोरंजन भर कर सकती है, किसी का महत्वपूर्ण मार्गदर्शन कर सकने की क्षमता उसमें कहाँ होती है? महान कार्य हमेशा महान व्यक्तित्वों से ही बन पड़े हैं। क्षुद्रजन तो नकल बनाते और उपहास करते रहते है। श्रद्धा के क्षेत्र में प्रवेश करने पर तो कलई खुलने पर और भी अधिक दुर्गति होती है। परमाणु हों या सौर मण्डल, उनका उद्गम स्त्रोत मध्य केन्द्र नाभिक में ही होता है। युगसृजन के लिए ऐसी प्रतिभाओं को अग्रगामी बनना चाहिए जो प्रामाणिकता और प्रखरता की कसौटी पर अपनी समर्थता सिद्ध कर सकें।
शाँतिकुँज के नीति निर्धारण, व्यवस्था, क्रम, अर्थतंत्र के साथ उच्चस्तरीय प्रबुद्ध प्रतिभाएँ आश्चर्यजनक संख्या में जुड़ी हुई हैं। वे अपना उत्तरदायित्व अहर्निशि सतत् सतर्कता बरतते हुए निभाती है। शोध, शिक्षण और प्रचार प्रक्रिया के विविध पक्षों को कार्यान्वित करने में संलग्न व्यक्तित्वों तो हाथ पैरों की तरह अपना कार्य संपादन करते हैं। परंतु मिशन का स्तर उच्चस्तरीय बनाये रखने की जिम्मेदारी सीमित लोग ही चलाते है। इस प्रबुद्ध वर्ग में न्यायाधीश, वकील, चार्टर्ड एकाउन्टेंट, इंजीनियर, सिविल सर्जन, पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के चिकित्सक, आयुर्वेदाचार्य, पी.एच.डी. डबल एम.ए.एम.एस.सी. स्तर की सौ से भी अधिक प्रतिभाएँ सम्मिलित है। इनमें से कई उच्च सरकारी पदों को छोड़कर आए हैं। एक लाँ कौलेज के प्रोफेसर जिनकी योग्यता एल.एल.एम. स्तर की हैं, यही के स्थायी निवासी पिछले दिनों बने हैं इस प्रकार आश्रम की कानूनी व्यवस्था जानने संभालने वाले चार वकील-प्लीडर आश्रम निवासी ही हैं। महिलाओं में एक दर्शन से अधिक पोस्ट ग्रेजुएट स्तर की हैं जो आश्रम की शिक्षण प्रक्रिया में निरन्तर संलग्न रहती है। यद्यपि शिक्षण का महत्व अपनी जगह हैं, पर आश्रम के संचालन-तंत्र के भावनाशीलों, कर्मठों को अधिकाधिक महत्व दिया है। यहाँ पढ़ाई का मापदण्ड नहीं, श्रेष्ठता के प्रति समर्पण, त्याग-बलिदान सबसे बड़ी कसौटी है। इस आधार पर तीन सौ से भी अधिक व्यक्ति एक विशाल परिवार बनाकर स्नेह-सद्भाव में रहते, सृजन प्रयोजनों में निरत यहाँ देखे जा सकते हैं। सभी स्वयंसेवक हैं नेता नहीं।
सात ट्रस्टी मिलकर संचालक-संरक्षक के मार्गदर्शन में यहाँ की सारी व्यवस्था संभालते हैं सातों ट्रस्टी अपने दायित्वों को निभाने और मिशन के स्तर को निरन्तर उच्चस्तरीय बनाने में समग्र श्रद्धा के साथ इस प्रकार संलग्न रहते हैं मानो लोक सेवियों के आदर्श को प्रस्तुत करते रहना उन्हीं के जिम्मे आया हो इनसे विभिन्न योग्यताओं के पच्चीस वर्षों से भी अधिक समय से जुड़े भली-भाँति परखे निष्ठावान व्यक्ति हैं, जिनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। आश्रम का हिसाब किताब प्रामाणिकता व्यक्तियों का तंत्र संभालता हैं, जिनका अपना कठोर नियंत्रण तो है ही, आर्थिक तंत्र में गड़बड़ी करने की कोशिश करने की रंचमात्र भी गुँजाइश कही नहीं है।
संचालकों की संलग्न सभी प्रतिभाओं को कड़ी हिदायत है कि आर्थिक या नैतिक छिद्र अपनी प्रक्रिया में कहीं भी बनने न पाए, अन्यथा प्रामाणिकता पर उंगली उठाने लगने पर वह तेजस्विता समाप्त जो जाएगी, जिसके आधार पर असंभव समझे जाने वाले कार्य सम्पन्न होने जा रहे हैं। प्रगति का क्रम कभी तक तूफानी गति से चल सकेगा, जब तक उसकी पवित्रता और प्रामाणिकता हर कसौटी पर खरी सिद्ध होती रहेगी। अन्य आदेशों में संभव है किसी से कहीं कुछ प्रमाद हुआ हो, पर संगठन की मूलभूत शक्ति सामर्थ्य में कही कोई छिद्र बन सके, ऐसा नहीं ही होने दिया गया है। सभी प्रहरी इस मोर्चे पर एकमत और एक जुट हैं। वे सभी जानते हैं कि आदर्शों के मिशन के साथ जुड़ता रहेगा जब तक कि उसके स्तर की उत्कृष्टता अपनी गरिमा की यथावत् बनाये रहेगी।
जबकि अधिकाँश संगठनों को प्रतिभाशाली, निर्लोभी, कर्मठ और समर्पित कार्य-कर्ताओं की कर्मी अनुभव की जाती है जब मिशन के परिकर में सम्मिलित होते चलने वालों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। पर यह सब अनायास नहीं होता। भावावेश भी उन्हें घसीटकर नहीं लाता। तर्क, समीक्षा और जाँच पड़ताल के आधार पर खरापन सिद्ध होने से ही जो प्रभावित हो सकते हैं, उन्हें कोई सहज ही बहका नहीं सकता। बहका लें तो देर तक भ्रम में नहीं रख सकता और न टिक सकता है। किंतु कार्य संलग्न नैष्ठिकों में से अधिकाँश ऐसे हैं जिन्होंने मिशन के लक्ष्य उद्देश्यों ऐसे हैं जिन्होंने मिशन के लक्ष्य उद्देश्यों को भलीभांति परखा व समझा तो है ही, साथ ही यह भी जाँचा है कि कहीं कोई मिलावट-बनावट तो नहीं है। साथ ही उनको खींचा है सूत्र संचालकों के आदर्श भरे जीवन ने, उनके अगाध स्नेह ने एवं पारिवारिक स्तर पर निभने वाले स्नेह सौजन्य ने इतना सब कहुए बिना उन लोगों का जुड़ जाना कठिन था जो ऊँची आजीविका कमाते हैं और सुसम्पन्न स्थिति में निर्वाह करते थे। यहाँ तो हर किसी को उतनी ही सुविधाएं मिलती है, जिसमें रोटी, कपड़ा और मकान ब्राह्मणोचित निर्वाह व्यवस्था जुट सके। ऐसी दशा में किसी को क्या पड़ी है जो सुविधा सम्पन्न परिस्थितियों को छोड़कर दिन और रात एक करके बिना थके ऊबे, प्रफुल्ल भाव से निरन्तर काम में जुटा रहे।
समयदानी भी इच्छानुसार आते और आवश्यक काम निभने पर वापस भी चले जाते है। उन पर समय का कोई प्रतिबंध नहीं होता, फिर भी उनमें से अधिकाँश को यहाँ का ब्राह्मणोचित जीवन रास आ जाता है और देर तक या अन्त तक वे यहाँ बने भी रहते हैं।
वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं में से प्रायः ऐसे हैं जो अपनी पेन्शन या संचित सम्पदा से ही अपना खर्च चलाते हैं मिशन से एक पैसा नहीं लेते। कईयों ने तो अपने जेवर, जमा पूँजी इत्यादि मिशन को ही समर्पित कर दी हैं व यहाँ से मात्र निर्वाह भत्ता तथा भोजन मात्र लेते हैं। आर्थिक दृष्टि से आत्म निर्भर कई हैं, पर सभी अपने को मात्र एक स्वयं सेवक मानकर निष्ठा पूर्वक दिये हुए कार्य में संलग्न रहते हैं। यहाँ उदार भावनाएँ उनकी तब जगीं जब उनने सूत्र संचालकों को ऋषिकल्प प्रमाण प्रस्तुत करते देखा। अन्यथा चोरी के माल की हिस्सेदारी बाँटने का ही तो लसोक प्रचलन है वह यहाँ भी दीख पड़ता और असंख्यों को ऐसा कहते न सुना जाता कि सतयुगी वातावरण शाँतिकुँज आकर देखा जा सकता है।
आमतौर से लोकसेवी संस्थाओं को धन याचना के कार्य में अधिकाँश शक्ति खपानी पड़ती है पर शाँतिकुँज ही एक ऐसा संस्थान है जिसने किसी के सामने हाथ न पसारने और मुंह न खोलने की प्रतिज्ञा आरंभ से निभाई है। और अन्त तक निभाती रहेगी। स्वेच्छा सहयोग की अयाचित वृत्ति से ही सभी आवश्यक काम चलते रहते है। कभी कहीं कोई रुकावट नहीं आती। भोजनालय में प्रायः एक हजार व्यक्तियों की रसोई बनती है पर बिना पूर्व योजना के नियम समय पर आवश्यक खाद्य सामग्री उपलब्ध होती रहती है। भवन-निर्माण, बिजली, आवश्यक उपकरण भी पैसा माँगते हैं, पर कही हाथ रुकता नहीं। इसे ईश्वर कृपा और सहयोगियों की उदारता के अतिरिक्त तीसरी बात यह भी समझी जानी चाहिए कि सेवा प्रयासों की उत्कृष्टता, कार्यकर्त्ताओं की निस्पृहता तथा व्यवस्था की प्रमाणिकता हर किसी को ऐसे पुण्य प्रयोजन में सहयोग करने के लिए उकसाती है। विनोबा कहते थे कि किसी संस्था को तभी तक जीवित रहना चाहिए जब तक जनता उसे उपयोगिता की कसौटी पर खरा समझे और सहयोग के लिए स्वेच्छापूर्वक उल्लसित हो। यदि ऐसा न बन पड़े तो अच्छा यह है कि जहाँ तहाँ से जुगाड़ बैठाने की अपेक्षा उस ढकोसले को बन्द ही कर दिया जाये।
प्रसन्नता की बात है कि वह आदर्श कहीं अन्यत्र निभा हो या न निभा हो, पर वह युग सृजन चेतना के संबंध में पूरी तरह लागू हुआ है। दस पैसा या एक मुट्ठी अनाज के अनुदान से ही असंख्यों श्रद्धालु इस संस्थान को चलाते और अग्रगामी बनाते हैं ईसाई मिशन का भी ऐसा ही उदाहरण है। मदर टेरेसा, रामकृष्ण मिशन से लेकर अनेक स्वयंसेवी संगठन इसी आदर्श के साथ अपने क्रिया कलापों को बिना किसी अड़चन के अग्रगामी बनाये हुए हैं। गाँधी का सत्याग्रह और बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन भी कम खर्चीला न था, पर वे सभी सफलतापूर्वक चलते रहे।
युग सृजन की आवश्यकताओं में उच्चस्तरीय प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों का सहयोग और अर्थ-व्यवस्था का प्रबंध, यह दो आवश्यकताएँ प्रमुख हैं। विश्वव्यापी विचार क्रान्ति के लिए भी इन दोनों ही प्रयोजनों की पूर्ति अनिवार्य होगी। लेखनी और वाणी के सहारे विनिर्मित दो पहिए वाला रथ भी इस व्यवस्था धुरी के बिना गतिशील होने वाला नहीं है। वह कैसे संभव हो सकेगा? इसका एक छोटा “मॉडल” शान्तिकुँज की गतिविधियों के साथ शुरू हुआ देखा जा सकता है। उसके सूत्र संचालक की ऋषिकल्पों जीवनचर्या उन सभी की प्रगति मार्ग में व्यवधान न पड़ने का विश्वास दिलाती है, जो नव निर्माण के लिए वस्तुतः कुछ करना चाहते हैं।