नवयुग की संभावनाएँ - लेखमाला - - प्रतिभा ही नहीं, मनीषा भी जागेगी!

December 1988

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विगत अंक में नवयुग की संभावनाएँ - लेखमाला के अंतर्गत आज की समस्याएँ, कल की संभावनाओं एवं उज्ज्वल भविष्य की संरचना के क्रिया-कलापों की चर्चा की गयी थी। विगत अंक में प्रकाशित पाँच लेखों की कड़ियों के आगे बढ़ाते हुए अंतिम तीन लेखमालाएँ इस अंक में प्रस्तुत है।

साधारण लोग चिन्तन भर करते हैं पर जिन्हें दूरदर्शी विवेकशीलता के आधार पर चिरस्थायी समाधान खोजने की क्षमता प्राप्त होती है, उन्हें मनीषियों के वर्ग में गिना जाता है। इसके अतिरिक्त व प्रतिभावान हैं जो हाथ के लिए कामों को आवश्यक सामर्थ्य और कौशल प्राप्त करके सफलता के मार्ग पर बढ़ते-बढ़ते बहुत कुछ कर दिखाते हैं इन दिनों भौतिक क्षेत्र में प्रतिभाएँ तो काम करती दीखतीं हैं, पर लोक चिन्तन को परिष्कृत करने वाले मनीषी बुरी तरह पिछड़ रहे हैं। यही कारण है कि नीति, धर्म, सदाचार, कर्तव्य के अभाव में वह सफलता नहीं मिल रही, जो सम्मिलित प्रयत्नों से मिल सकती थी।

प्रत्यक्ष आवश्यकताओं की पूर्ति और उपस्थित कठिनाइयों का निराकरण, इन्हीं दो प्रयोजनों पर मनुष्य की अधिकाँश क्षमताएँ नियोजित रहती हैं। अदृश्य होने के कारण चिन्तन की उत्कृष्टता न तो आवश्यक समझी जाती है और न उसके लिए गंभीरतापूर्वक प्रयत्न किये जाते हैं। इस प्रकार से हम भौतिक जीवन में घिर गये हैं वह सरल भी तो नहीं रहा। इतना विपन्न हो गया है कि सही तरह जीवन यापन की सुविधाएं जुटाने में ही सारा समय, श्रम, धन एवं कौशल चुक जाता है। इसमें कुछ अनुचित भी नहीं है, क्योंकि प्राथमिकता तो प्रत्यक्ष जीवन की गतिशील रखने वाले साधनों एवं उपक्रमों को ही देनी पड़ती है।

मनुष्य जीवन के साथ इन दिनों अगणित समस्याएँ जुड़ गयी हैं। जनसंख्या इस तेजी से बढ़ रही है कि अपने ही देश में इस शताब्दी के अन्त तक उसके एक अरब से अधिक हो जाने की आशंका हैं नवागन्तुकों के लिए भोजन, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा, निवास, आजीविका आदि सभी तो चाहिए। पृथ्वी उतना उगा नहीं पाती परम्परागत जल स्रोत कम पड़ते हैं। सघनता के बढ़ने पर सड़कों और वाहनों की आवश्यकता पड़ेगी ही। स्कूल खुलने ही चाहिए। ऐसे-ऐसे अनेकों कार्य हैं जिन्हें भौतिक क्षेत्र की साल संभाल करने वाले शासन तन्त्र, अर्थतन्त्र, कुशल निष्णात लोगों को पूरे प्रयत्न के साथ हल करने की आवश्यकता पड़ती है। शहर बढ़ रहे हैं प्रदूषण उभर रहा है। गंदगी बीमारी में परिणत होती जाती है। पिच पिच में घुटन ही नहीं बढ़ते अनाचार भी पनपते है। गरीबी और बेकारी की दोनों समस्यायें ऐसी हैं जो अपने साथ अनेकों संकट लिये-लिये फिरती हैं। ऐसे समय में अनाचारियों अपराधियों की भी बन जाती है। वे भी अपनी कसर नहीं छोड़ते। इनसे निबटना भी तो एक बड़ा काम है।

चिन्ता का विषय यह है कि आस्था संकट से निबटने के लिए, जन मानस परिष्कार सम्पन्न करने के लिए इतनी गंभीरता से नहीं सोचा और उतनी तत्परता से कुछ किया नहीं जा रहा हैं जितना कि किया जाना चाहिए। चिन्तन अदृश्य है। उसका कोई रोल ऐसा भी नहीं होता जो तत्काल अपने क्रिया कौशल का परिचय दे सके। ऐसी दशा में प्रस्तुत प्रवाह को देखते हुए उस प्रमुखता को उपेक्षा के गर्त में धकेल दिया जाये तो उसके लिए सामान्य जनों को दोष नहीं दिया जा सकता। दोष उन पर जाता है जिन्हें मनीषा के कर्णधार कहा जा सकता है। जिन्हें दूर दृष्टि प्राप्त है और जो वस्तुस्थिति को समझते हैं। जिन्हें सर्वत्र पेट ही पेट नहीं दिखता। जो इस तथ्य को भी जानते हैं कि लोक-चिन्तन को भटकाव के, दिशा शूल के संकट से उबारा जाना चाहिए। मानवी गरिमा को उत्कृष्ट आदर्शवादिता से रहित नहीं होने देना चाहिए। जिन्हें ज्ञान है कि परिस्थितियों की जन्मदात्री मन स्थित ही हैं जो सोचा जाता है वह क्रिया में परिणत होता है जैसा किया जाता है वैसा ही भुगता जाता है। इस तथ्य पर जिनका भी विश्वास हो, उन्हें मनीषा के पक्षधर कहा जा सकता हैं उनका प्रयत्न होना चाहिए कि अपनी पहुँच वाले क्षेत्र में संभालने सुधारने में वैसा प्रमाद न होने दें जैसा कि इन दिनों चल रहा है। लोक चिन्तन को यदि सदाशयता के साथ न जोड़ा गया तो भौतिक जीवन को सुखी बनाने के प्रयास सफल नहीं हो सकेंगे। दुर्बुद्धि अनेक अवरोध खड़े करेगी और प्रगति की दिशा को अवगति की ओर मोड़ देंगी। मात्र साधनों के सहारे ही सब कुछ बन पड़ता हो, ऐसी बात नहीं, उसके साथ आदर्शों के अनुरूप सूझ-बूझ और लगन भी होनी चाहिए। अन्यथा जो किया जायेगा उसमें अनेक खोट रहेंगे और लक्ष्य तक पहुँचने की स्थिति लाने में अवरोध ही बने रहेंगे। आदर्शवादिता मात्र स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि आदि तक ही सीमित नहीं है। उसके आधार पर भौतिक क्षेत्र का हर काम सही, सुदृढ़ और परिपक्व स्तर का बन कर रहता है। गतिविधियाँ सुसम्पन्नता प्राप्त करने की दिशा में नियोजित हो और उत्साह पूर्वक चल पड़े तो ठीक है, पर देखना यह भी होगा कि निर्धारणकर्ताओं का मानस और कार्यान्वित करने वालों का प्रयास इस उत्कृष्टता के साथ जुड़ा हुआ है या नहीं जिसे पुरातन भाषा में धर्म, अध्यात्म, दर्शन आदि के नाम से जाना जाता था। उसकी आवश्यकता मात्र पर परलोक संभालने भर के लिए ही नहीं है वरन् गहराई में सोचने पर विदित होगा कि साँसारिक क्षेत्र का हर काम सदाशयता की अपेक्षा करता है। इसके बिना जो बन पड़ेगा उसमें खोखली विडम्बना के अतिरिक्त और कोई सार तत्व न रहेगा। सीमेन्ट के बिना ईंट की दीवार कब तक खड़ी रह सकती है।

विज्ञानी अपना काम करता रहे। उस पक्ष से संबंधित शासनतंत्र, अर्थतंत्र, उद्यमी-शिल्पी आदि अपना-अपना काम करें। पर असमंजस में उन्हें भी नहीं रहना चाहिए। जिन्हें मनीषा का कर्णधार कहते हैं। कभी इस वर्ग के लोगों को “पुरोधा” या “पुरोहित” कहते थे। आज उन्हें धर्म क्षेत्र के प्रवक्ता, साहित्यकार, कलाकार, दार्शनिक आदि के सम्मिलित रूप से देखा समझा जा सकता है। आवश्यक नहीं कि इसके लिए उच्च शिक्षा का होना आवश्यक ही हो। भाव संवेदनाओं के धनी भी अपनी परमार्थ परायणता को सचेतन बनाकर ऐसे कुछ कर सकते हैं जैसा कि तथाकथित विद्वानों-प्रबुद्धों में से कदाचित ही कितनों से बन पड़ता हो। बहुत जानना है तो उत्तम पर उसकी सार्थकता तभी है जब वह अपने और दूसरों के स्तर को ऊँचा उठाने में प्रयत्नरत हो सके। निष्क्रिय मनीषा तो और भी अधिक भारभूत होता है, क्योंकि समय की अवनति का दोष प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उन्हीं पर लगता हैं सेना हारती है तो सेनापति ही दोषी ठहराया जाता है। मस्तिष्क उनींदा हो तो चलते पैर खड्डे में जा गिरें तो इसमें अचरज क्या है? युग मनीषा जब भी जगी है तब उसने अपने समय का कायाकल्प किया है लोक तंत्र का मंत्र संसार को मनीषा ने दिया और प्रतिभाओं ने उसे विश्व-व्यापी कर दिखाया। साम्यवाद की सूत्रधार मनीषा है प्रतिभाएँ तो उसे कार्यान्वित करने भर में जुटी रही हैं। उसके विस्तार की वर्तमान सफलता उन दोनों के समन्वय की ही परिणति है और भी संसार में जो कुछ बना बिगड़ा है उसका निर्धारण मनीषा ने अपने स्तर के अनुरूप किया है। विचारशील श्रेय उस निर्धारण को ही देते रहेंगे जिसने प्रतिभाओं को झकझोर और अपने निर्धारण के अनुरूप वातावरण बनाकर दिखाया।


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