देवमानव बनने का आह्वान

December 1988

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नृतत्त्ववेत्ताओं ने विविध पर्यवेक्षणों और उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आदि मानव वनमानुष स्तर का था। उसमें पशु प्रवृत्तियों का ही बाहुल्य था, रहन-सहन और क्रिया कलाप भी उसी स्तर का। वह निज का उपार्जन कुछ भी नहीं करता था। प्रकृति के अनुदानों पर पशु−पक्षियों की तरह अपना निर्वाह करता था। प्रगति की दिशा में उसके कुछ चरण और बढ़े तो पुरुषार्थ परायण हुआ। कृषि, पशुपालन जैसे उद्योग सीखे। वस्त्र, निवास, अग्नि प्रज्ज्वलन जैसी विधि व्यवस्थाओं से अवगत हो गया। बोलना, लिखना, सीख गया और अपने-अपने समुदायों के प्रथा प्रचलनों में अभ्यस्त हो गया। भौतिक प्रगति इसी दिशा में गतिशील होती चली आई है। विज्ञान, यंत्रीकरण, अर्थशास्त्र एवं शासनतंत्र की उपलब्धियों के सहारे वह वहाँ पहुँचा है जहाँ आज है। उसके सामने सुविधा साधनों का बाहुल्य है। यह दूसरी बात है कि अपने व्यक्तित्व को घटिया बनाए रहकर वह उसका सही समुचित उपयोग न कर सके। मानवी प्रगति का यही लेखा जोखा है। मनुष्यों में से कुछ उद्दंड, अत्याचारी, छली, आक्रामक विलासी व अहंकारी बन गए हैं और कुछ को अपनी नासमझी तथा कुशलता, प्रतिभा के अभाव में गई गुजरी स्थिति में रहना पड़ रहा है। मनुष्यों को बन्दर की औलाद इसीलिए कहा जाता है कि उसकी भावना और विचारणा पेट, प्रजनन के इर्द गिर्द ही घूमती हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता ही उसकी प्रकृति है। पेट-प्रजनन के लिए वह मरता खपता है। बहुत हुआ तो ठाटबाट बनाता, दर्प जनाता और आक्रामक बनकर अपनी विशिष्टता सिद्ध करता है। जो इतना नहीं कर पाते वे परिस्थितियों की प्रतिकूलता और भाग्य की विपरीतता को कोसते हुए दिन गुजारते हैं। मनुष्यों में से अधिकाँश इन्हीं आदि मानव, वनमानुष या धूर्त शृंगाल प्रकृति के देखे जाते हैं। जनसंख्या की विपुलता ने न लोगों को निज की गौरव गरिमा प्रदान की है और न समाज को समुन्नत सुसंस्कृत बनाने में ही कोई योगदान दिया है। चकाचौंध उत्पन्न करने वाली विडम्बना तो चारों ओर बिखरी अवश्य दिखाई देती है पर उसकी परिणति- प्रतिक्रियाओं को देखते हुए निराशाजनक ही हो जाती है और असमंजस होता है कि जिसे ईश्वर का युवराज प्राणिवर्ग में शिरोमणि, देवमानव आदि नामों से सम्मानित किया गया है, क्या वह यही है? जिसे लोभ, मोह, स्वार्थ, वासना, तृष्णा, और अहंता के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं।

प्रकृति परायणता की सीमा इतनी है। जीवधारी अपने लिए ही जीते हैं। अपनी ही आवश्यकता जुटाते और अपनी ही प्रसन्नता अनुकूलता संजोने में निरत रहते हैं, प्रकृति परायण रह कर मनुष्य भी उसी गई गुजरी मनः स्थिति में रह सकता है, जिसमें कि अन्य जीवधारी मरते और मारते हैं, गिरते और गिराते हैं।

मानवी गरिमा का उज्ज्वल स्वरूप विकसित प्रस्फुटित तब होता है जब वह उत्कृष्ट आदर्शवादिता के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है। अपने चिन्तन, चरित्र व्यवहार और प्रयास को अभिनंदनीय अनुकरणीय बनाता है। इसी ढाँचे में उसे ढालने के लिए ऋषियों, ने शास्त्रों की रचना की है,अध्यात्म दर्शन का ढांचा खड़ा किया हैं, योग तप के अनेकों विधान बनाए हैं, ईश्वर भक्ति के अनेकानेक उपचार कर्म काण्डों का सृजन किया है। इन आत्मोत्कर्ष की अनेकानेक विधि व्यवस्थाओं का मूलभूत उद्देश्य एक ही हैं कि मनुष्य इसी जीवन में स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि प्राप्त करे। यह तीनों ही किसी अन्य लोक से संबंधित या जादू चमत्कार जैसी नहीं हैं। वरन् उन्हें व्यक्तित्व की महानता के रूप में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। दृष्टिकोण का परिष्कार ही “स्वर्ग” है दुष्प्रवृत्तियों से छूट निकलना मुक्ति और अभिनंदनीय स्तर पर जीवनचर्या को बनाए रखना है और जो परिणाम सामने आते हैं वे चमत्कारी स्तर के होते हैं। परमार्थी पुरोहितों को ही ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है। वस्तुतः वे ही समाज का स्तर, परिस्थितियों का प्रवाह और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने के लिए आगे बढ़ते और सफल होकर रहते हैं। समय की पुकार हैं कि ऐसे उदार चेता उभरें। अपने इर्द गिर्द के भव बंधनों की पकड़ से अपने को उबारें और साथ ही जन कल्याण की उन प्रवृत्तियों में जुटें जिन्हें प्रकारान्तर से अधर्म का उन्मूलन और धर्म का संस्थापन भी कहा जा सकता है। परिस्थितियों की माँग इतनी प्रबल है कि इससे बच निकलने के लिए कोई बहाना नहीं ढूँढ़ा जाना चाहिए। सतयुग का माहौल बनाने के लिए भावनाशीलों को संकल्प पूर्वक आगे आना चाहिए। आज की परिस्थितियाँ में इस रीति नीति को अपनाए जाने की नितान्त आवश्यकता है। साधु और ब्राह्मणों को भूसुर- पृथ्वी के देवता कहा जाता है। वे अपनी योग्यता, श्रमशीलता, सम्पदा का न्यूनतम अंश अपने निर्वाह के लिए रखते हैं और शेष को अन्यान्यों को उठाने, बढ़ाने में खर्च करने के लिए अवसर तलाशते रहते हैं। किसी के निवेदन की प्रतीक्षा नहीं करते। बादलों की तरह बिना बुलाए ही सर्वत्र पहुंचते हैं और हर किसी को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए प्रयत्न करते हैं। ऐसे ही वातावरण स्वर्गोपम बनता है।

लोक सेवियों की जिस जमाने में कमी पड़ती है उन दिनों विकास का स्तर घट जाता है। जन साधारण का भावनात्मक परिष्कार - दृष्टिकोण का उदात्तीकरण नितान्त आवश्यक है। इस कार्य को विलासी, स्वार्थी एवं घटिया स्तर के लोग नहीं कर सकते। भले ही वे क्रिया कौशल में पारंगत अथवा ऊंचे पदाधिकारी ही क्यों न हों? परामर्श उनका माना जाता है, जिनके प्रति सहज श्रद्धा होती है। सह विभूति हर किसी को अनायास ही नहीं मिलती। इसके लिए मात्र सेवा भावना ही उच्चस्तरीय नहीं होनी चाहिए, वरन् चरित्रनिष्ठा आदर्शवादिता भी ऐसी होनी चाहिए जिसे हर कसौटी पर खरा पाया जा सके और जिसे अनुकरणीय अभिनंदनीय ठहराया जा सके


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